Friday, December 30, 2011

2011 - मेरे लिए



वर्ष 2011  समाप्त होने को ही है. यूँ तो है ये एक आंकड़ा ही, मगर कुछ छोटी-बड़ी घटनाओं को गूंथता ये कालखंड यादों का एक संकलन छोड़ ही जाता है, और जिसका पुनरावलोकन तो एक परंपरा है ही. आखिर इन्ही अनुभवों पर पिछला कदम रखकर ही तो रखेंगे नए वर्ष में अगला कदम. 

पिछले दिनों टूर आदि की व्यस्तताओं में उलझा ब्लौगिंग से अपेक्षया दूर ही रहा. आज फिर एक संछिप्त टूर पर निकल रहा हूँ, जो संभवतः रोचक ही रहेगा; विस्तृत विवरण तो दूंगा ही. 

नेटवर्क ज़ोन से लगभग अज्ञातवास सदृश्य अरुणाचल प्रवास से दिसंबर, 2010  तो बाहर ले ही आया था, 2011  में केंद्र के निकट रहने का भरपूर लाभ भी उठाया. 

वर्ष के शुरुआत में ही पुस्तक मेला से साल भर का कोटा तो जमा कर ही लिया था, जिसमें संमय के साथ इजाफा ही होता रहा. कुछ अच्छे उपन्यास, विज्ञान गल्प संग्रह, कहानी संग्रह आदि पढ़े - जिनमें आर. के. नारायण की 'महात्मा का इंतजार', डोमीनिक लोपियर की 'आधी रात की आजादी', हिमांशु जोशी की 'तुम्हारे लिए' इत्यादि महत्वपूर्ण रहीं. 



पारंपरिक लेखन की दृष्टि से 'विज्ञान प्रगति' और 'राजभाषा पत्रिका' में रचनायें छपीं, मगर इसे पूर्णतः संतोषजनक नहीं मान सकता. इसमें कुछ भूमिका फेसबुक और ब्लौगिंग की भी रही. अज्ञातवास के बाद से नेटवर्क की प्यास थी ही इतनी बड़ी ..... 

हां, मेरे ब्लॉग से कुछ आर्टिकल्स 'हिंदुस्तान' आदि समाचारपत्रों में जरुर प्रकाशित हुए.

इस वर्ष को एक और मायने में याद रखूँगा अपने भ्रमण के लिए. शौकिया और औफिसियली दोनों मायनों में जमकर घुमने का मौका मिला. नैनीताल, मसूरी, हरिद्वार, हृषिकेश, आगरा, जयपुर, अमृतसर, चंडीगढ़ के अलावे उत्तराखंड और हिमाचल के कई सुदूरवर्ती स्थलों में भी जाने का मौका मिलता रहा. साल के अंत-अंत में अपनी विशेष रूचि के एस्ट्रोनौमिकल महत्व के एक स्थल से ' विंटर सोल्स्ताईस ' के नज़ारे का भी लुत्फ़ लिया. कुछ और स्थानीय मगर ऐतिहासिक महत्व के स्थलों का भी भ्रमण किया. 



दिल्ली में कुछ नए ठिकाने भी बने जिनमें मंडी हाउस, इन्डियन हैबिटैट सेंटर और  इंदिरा गाँधी कला केंद्र आदि प्रमुख हैं जहाँ कला और संस्कृति जगत के कई स्वरूपों से साक्षात्कार भी हुए.....



नई जगह, नए माहौल में कुछ नए लोगों से दोस्ती हुई और कुछ नए लोगों से 'दोस्ती' के प्रयास फलीभूत नहीं भी हो पाए... खैर " जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए..." . फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से जहाँ पुराने परिचितों से टूटा संपर्क बहाल हुआ वहीँ रचनाकर्म से जुड़े कुछ नए और यादगार संपर्क भी कायम हुए. जैसे चंडीदत्त शुक्ल, मनोज कुमार जी आदि. 

अपनी एक और विशेष रूचि फिल्मों में इस साल 'बोल' और टैगोर की 150  वीं जयंती के उपलक्ष्य में देखी 'काबुलीवाला' को उल्लेखनीय  मानूंगा. बौलीवुड ने अमूमन निराश ही किया. वैसे जोया अख्तर जैसे कुछ नए फिल्मकारों ने उम्मीदें बरक़रार रखी हैं.....

जहाँ इस वर्ष ने कई महत्वपूर्ण यादें दीं, वहीँ कुछ अति दुखद प्रसंग भी आये. कला एवं रचना जगत की महत्वपूर्ण  हस्तियाँ हमसे छीन  ले गया 2011 ... (आशा है अगले वर्ष इसे कम्पेंसेट करने की भी कोशिश करेगा उनके विपरीत लोगों को अपने साथ ले जाकर.....). इनमें जो सबसे महत्वपूर्ण हैं वो हैं देव आनंद और जगजीत सिंह का हमारे बीच से चले जाना... इन दोनों से मैं काफी भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था. देवसाहब पर विस्तृत पोस्ट जल्द ही.....

कहने को अभी भी काफी कुछ है, मगर ' क्या भूलूं क्या याद करूँ...'

आनेवाले वर्ष में अपने लेखन पर कुछ और ध्यान देने पर जोर दूंगा. आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.....

Monday, December 12, 2011

शतायु राजधानी दिल्ली.....


"दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का,
ये तो तीरथ है सारे जहान का..."

जी हाँ, यही गुनगुनाते हुए देश की नई राजधानी के रूप में दिल्ली आज आपनी पुनर्प्रतिस्थापना के सौ वर्ष पूरे कर रही है. 

दिल्ली कई बार बसी और उजड़ी. दिल्ली शहर के नामकरण को लेकर भी कई मत हैं. एक मत के अनुसार  'दिल्ली' शब्द फ़ारसी के 'देहलीज़' से आया क्योंकि दिल्ली गंगा के तराई इलाकों के लिए एक ‘देहलीज़’ था. एक अन्य मान्यता के अनुसार दिल्ली का नाम तोमर राजा ढिल्लू के नाम पर दिल्ली पड़ा. एक राय ये भी है कि एक अभिशाप को झूठा सिद्ध करने के लिए राजा ढिल्लू ने इस शहर की नींव में गड़ी एक कील को खुदवाने की कोशिश की. इस घटना के बाद उनके राजपाट का तो अंत हो गया लेकिन एक कहावत मशहूर हो गई - "किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन"

पांडवों के द्वारा बसाये गए इन्द्रप्रस्थ के अलावे गौरी, गजनी, खिलजी, तुगलक और मुगलों आदि ने भी समय-समय पर इस शहर पर शासन किया और यहाँ कई अलग-अलग शहरों को बसाया. लाल कोट, महरौली, सीरी, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीन पनाह और शाहजहानाबाद आज भी अपनी विरासत के साथ दिल्ली के अतीत की कहानियां सुनते हैं. 

ब्रिटिश राज ने प्रशासनिक कारणों से कलकत्ता में अपनी गतिविधियों को केन्द्रित किया और वो नई राजधानी के रूप में स्थापित होता गया. मगर उन्नीसवीं शताब्दी की शरुआत के साथ-साथ कलकत्ता अंग्रेजों को अपने लिए अनुकूल नहीं लगने लगा. स्वराज के लिए बढ़ते संघर्षों के केंद्र के रूप में उभरते बंगाल की अपेक्षा दिल्ली के आस-पास बसे समर्थक राज्य अंग्रेजों को अपने लिए ज्यादा अनुकूल लगे. यही कारण था कि 12  दिसंबर, 1911  को दिल्ली दरबार के आयो जन के दौरान किंग जॉर्ज पंचम ने अपनी प्रसिद्द घोषणा की कि - " हमें भारत की जनता को यह बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि सरकार और उसके मंत्रियों की सलाह पर देश को बेहतर ढंग से प्रशासित करने के लिए ब्रितानी सरकार भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली हस्तांतरित करती है. "



दिल्ली की आधारशीला पर उन्होंने अपनी ये भावनाएं स्पष्ट करवाईं थीं कि - "  मेरी तमन्ना है कि जब नई राजधानी बनाई जाये, तब इस शहर की खूबसूरती और प्राचीन छवि को ध्यान में रखा जाये; ताकि यहाँ नई इमारतें इस शहर में खड़ी होने लायक लग सकें."

उनकी यह भावनाएं निश्चित रूप से ब्रिटिश वास्तुविद्दों द्वारा कायम रखी गईं जो उनके द्वारा निर्मित 'वायसराय हाउस' (राष्ट्रपति भवन) 'नेशनल वार मेमोरियल' (इण्डिया गेट) आदि के रूप में हमारे सामने हैं.

मगर क्या आज की दिल्ली अपने नागरिक संसाधनों और वास्तु संकल्पना के लिहाजों से अपनी प्राचीन परंपरा के अनुरूप विकसित हो पा रही है, इस अवसर पर इस ओर भी विचार करने की जरुरत है.

बहरहाल बधाई हो ' नई दिल्ली '...


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