Thursday, November 26, 2020

तेरी तस्वीर मिल गई: उल्कापिंड के पहले फोटोग्राफ की वर्षगांठ


खगोलीय पिंडों में उल्का का एक अलग ही स्थान है जिससे गंभीर शोधकर्ता ही नहीं आम जन भी परिचित हैं। 

आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का (meteor) और साधारण बोलचाल में 'टूटते हुए तारे' अथवा 'लूका' कहते हैं। उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड (meteorite) कहते हैं। प्रायः प्रत्येक रात्रि को उल्काएँ अनगिनत संख्या में देखी जा सकती हैं, किंतु इनमें से पृथ्वी पर गिरनेवाले पिंडों की संख्या अत्यंत अल्प होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से इनका महत्व बहुत अधिक है क्योंकि एक तो ये अति दुर्लभ होते हैं, दूसरे आकाश में विचरते हुए विभिन्न ग्रहों इत्यादि के संगठन और संरचना (स्ट्रक्चर) के ज्ञान के प्रत्यक्ष स्रोत केवल ये ही पिंड हैं।

यद्यपि मनुष्य इन टूटते हुए तारों से अत्यंत प्राचीन समय से परिचित था, प्राकएतिहासिक काल से ही इनके देखे जाने के संकेत उनकी रॉक आर्ट जैसी रचनाओं से मिलती रही हैं, तथापि आधुनिक विज्ञान के विकासयुग में मनुष्य को यह विश्वास करने में बहुत समय लगा कि भूतल पर पाए गए ये पिंड पृथ्वी पर आकाश से आए हैं। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में डी. ट्रौयली नामक दार्शनिक ने इटली में अल्बारेतो स्थान पर गिरे हुए उल्कापिंड का वर्णन करते हुए यह विचार प्रकट किया कि वह अंतरिक्ष से टूटते हुए तारे के रूप में आया होगा, किंतु किसी ने भी इसपर ध्यान नहीं दिया। सन् 1768 ई. में फादर बासिले ने फ्रांस में लूस नामक स्थान पर एक उल्कापिंड को पृथ्वी पर आते हुए स्वत: देखा। अगले वर्ष उसने पेरिस की विज्ञान की रायल अकैडमी के अधिवेशन में इस वृत्तांत पर एक लेख पढ़ा। अकैडमी ने वृत्तांत पर विश्वास न करते हुए घटना की जाँच करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जिसके प्रतिवेदन में फादर बासिले के वृत्तांत को भ्रमात्मक बताते हुए यह मंतव्य प्रकट किया गया कि बिजली गिर जाने से पिंड का पृष्ठ कुछ इस प्रकार काँच सदृश हो गया था जिससे बासिले को यह भ्रम हुआ कि यह पिंड पृथ्वी का अंश नहीं हैं। तदनंतर जर्मन दार्शनिक क्लाडनी ने सन् 1794 ई. में साइबीरिया से प्राप्त एक उल्कापिंड का अध्ययन करते हुए यह सिद्धांत प्रस्तावित किया कि ये पिंड खमंडल के प्रतिनिधि होते हैं। यद्यपि इस बार भी यह विचार तुरंत स्वीकार नहीं किया गया, फिर भी क्लाडनी को इस प्रसंग पर ध्यान आकर्षित करने का श्रेय मिला और तब से वैज्ञानिक इस विषय पर अधिक मनोयोग देने लगे। सन् 1803 ई. में फ्रांस में ला ऐगिल स्थान पर उल्कापिंडों की एक बहुत बड़ी वृष्टि हुई जिसमें अनगिनत छोटे-बड़े पत्थर गिरे और उनमें से प्राय: दो-तीन हजार इकट्ठे भी किए जा सके। विज्ञान की फ्रांसीसी अकैडमी ने उस वृष्टि की पूरी छानबीन की और अंत में किसी को भी यह संदेह नहीं रहा कि उल्कापिंड वस्तुत: अंतरिक्ष से ही पृथ्वी पर आते हैं।

अभी भी इनसे जुड़ी एक घटना इतिहास में जुड़नी शेष थी। 27 नवंबर, 1885 की तारीख को उल्कापिंड की पहली तस्वीर लिए जाने की तारीख के रूप में याद किया जाता है। यह तस्वीर Austro-Hungarian astronomer, Ladislaus Weinek द्वारा ली गई थी। 


यह उल्कापिंड Andromedids meteor shower से जुड़ा माना जाता है जो Biela's Comet से संबद्ध था; जिसके 6 दिसंबर, 1741 से ही देखे जाने का उल्लेख मिलता रहा है।

Lick Observatory और Meudon Observatory, की सहायता से प्राप्त तस्वीरों के आधार पर Weinek ने चन्द्रमा का पहला एटलस भी तैयार किया। 

चंद्रमा का Crater Weinek और Asteroid 7114 Weinek का नामकरण उनके नाम के आधार पर ही किया गया।

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