Thursday, December 22, 2022

अपने सपनों को रंगों में उकेरतीं उभरती चित्रकार प्रियंका अंबष्ठ

अपनी एक एक पेंटिंग के साथ प्रियंका अंबष्ठ 

''सपने वो नहीं होते जो आप सोने के बाद देखते हैं, सपने वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते''- डॉ कलाम साहब का यह कथन कई रचनात्मक लोगों के जीवन की वास्तविकता है। ऐसे ही लोगों में से एक से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ ललित कला अकादमी, नई दिल्ली में एक पेंटिंग प्रदर्शनी के दौरान। यहां की विभिन्न गैलरियों में लगी प्रदर्शनियों में एक एकल प्रदर्शनी थी प्रियंका अंबष्ठ जी की भी। 8-14 दिसंबर, 2022 के मध्य आयोजित उनकी प्रदर्शनी की थीम थी- 'Healing with colours'

प्रियंका अंबष्ठ जी की चित्र प्रदर्शनी की एक झलक 


उनके चित्र इस थीम की भावना के ही अनुरूप थे। प्रियंका जी की पेंटिंग्स के रंग न सिर्फ आकर्षक लगते हैं बल्कि आंखों को राहत भी देते हैं। इसके पीछे उनकी पृष्ठभूमि का भी कुछ योगदान हो सकता है। मूलतः बिहार से संबंध रखने वाली और अब ग़ाज़ियाबाद में निवास कर रहीं प्रियंका जी की शैक्षणिक पृष्ठभूमि विज्ञान की है। इस हिंदी बेल्ट में किसी भी छात्र-छात्रा के लिए अपने शौक को कैरियर बना पाना सहज नहीं। इसके बावजूद प्रियंका जी ने अपनी शैक्षणिक-पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपने शौक को मुरझाने नहीं दिया और अब उपयुक्त समय आने पर ये रँग मात्र कैनवास ही नहीं उनके जीवन और मन पर भी बिखर रहे होंगे। 


दर्शकों को अपनी पेंटिंग के बारे में बताती हुई प्रियंका जी 

एक भौतिक चिकित्सक न सही एक आत्मिक चिकित्सक के रूप में वो रंगों को साधन बना अपने दर्शकों के मन की अंतःचिकित्सा की ओर बढ़ रही हैं। उनके चित्र इस प्रक्रिया के सुंदर माध्यम हैं। ये चित्र और इनके रंग महज किसी कल्पना के साकार रूप मात्र नहीं हैं बल्कि हर रंग, हर पेंटिंग, हर कोण मनुष्य के किस चक्र को किस प्रकार प्रभावित कर जाए इसके सुचिंतित चिंतन का साकार रूप भी हैं। इसीलिए उनके चित्र देश के विभिन्न भागों में कला प्रेमियों द्वारा काफी पसंद किये और सराहे जा रहे हैं।  

प्रियंका जी इस क्षेत्र में देर से पर एक स्पष्ट थीम को लेकर उतरी हैं। चित्रकला उनकी मात्र आवश्यकता नहीं है बल्कि अब तक बचा कर रखा गया वो ज़ज़्बा है जो उनके सोच, विचारों आदि को अभिव्यक्ति देता है; साथ ही दर्शकों से जुड़ने की तो थीम मौजूद है ही उनके चित्रों में। 

ऐसे में उनके अंदर पूरी संभावना है कि वो इस विस्तृत क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट जगह और छवि बना सकें। उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना और शुभकामनाएं हैं।

Saturday, September 3, 2022

मुग़ल सल्तनत के इतिहास की बिसार दी जा रही धरोहर- रोशनआरा बाग़

 

आहिस्त: बर्ग ए गुल बा-फिशां बर मज़ारे मा, 

पस नाज़ुकस्त शीशा ए दिल दरकिनार मा ... 


“मेरी मज़ार पर फूल की पंखुड़ी आहिस्ता से फैलाओ , आखिरकार अलग सा शीशे की मानिन्द मेरा दिल बहुत नाज़ुक है...”  

कहते हैं कि यह शेर रौशनआरा बेगम का है। रोशनआरा बेगम जो कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की पुत्री थीं की अपने परिवार और सल्तनत में महत्वपूर्ण भूमिका रही। 

अर्पण कपाड़िया की बनाई रौशनआरा बेग़म की पेंटिंग


रोशनआरा का जन्म 3 सितंबर 1617 को हुआ था। वह शाहजहाँ की दूसरी पुत्री थीं और एक राजनीतिक सूझबूझ युक्त एक प्रभावशाली महिला एवं एक प्रतिभाशाली शायरा भी थीं। तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार उनका रंग सांवला और नैन-नक्श बिलकुल साधारण ही थे। इसलिए शाहजहाँ उनकी जगह जहाँआरा को ज्यादा तवज्जो देता था। इस बात से रोशनआरा काफी खफा रहती थी। उनकी नाराज़गी ने उत्तराधिकार की लड़ाई में शाहजहाँ और उनके प्रिय पुत्र दाराशिकोह की तुलना में उन्हें औरंगजेब के पक्ष में खड़ा कर दिया। उनके द्वारा भेजी जाती रहीं गुप्त सूचनाओं ने औरंगजेब को काफी सहायता पहुँचाई और तख़्त पाने में उसकी जीत ने स्वाभाविक ही उनके महत्व को और बढ़ा दिया। 

रौशनआरा बाग का प्रवेश द्वार


सन 1658 से 1666 तक शहज़ादी रौशनआरा बेगम मुगलिया सल्तनत की सब से ताक़तवर महिला के रूप में उभरीं। इस दौर में जहांआरा जो रूप और गुण के कारण अत्यंत लोकप्रिय थी शाहजहाँ के साथ आगरा किले में ही रहीं। जहांआरा के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ और दाराशिकोह का पक्ष लेने के बावजूद उन्हें ‘पादशाह बेग़म’ का रुतबा दिया गया। सन 1666 में शाहजहाँ की मौत  के बाद जब जहांआरा बेगम आगरा से दिल्ली आ गयी तो रौशनआरा बेगम का रूतबा धीरे-धीरे कम होने लगा।

बारादरी


कहा जाता है कि राजधानी के सियासी दांवपेंचों से ख़ुद को अलग रखने की चाहत लिए रोशनआरा बेगम ने सन 1650 के आसपास शाहजहानाबाद की चाहरदीवारी से लगभग 3 मील की दूरी पर एक  बाग़ लगवाया था।  उन्होंने अपने इस खूबसूरत बाग़ में बारादरी और दूसरी इमारतों का भी निर्माण करवाया। गीत, संगीत, मुशायरों आदि की महफ़िलें सजती होंगीं जिनमें चारों ओर के फव्वारे एक अलग ही संगीत जोड़ते होंगे! चाँदनी रातों में ये सारे दृश्य जुड़ एक अलग ही दृश्यावली का निर्माण करते होंगे! बताया जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर ने मुग़ल शहजादियों के लिए ये नियम बनाया था, कि उन्हें आजीवन कुंवारी ही रहना पड़ेगा। रौशनआरा को भी इसी शर्त से गुजरना पड़ा। लेकिन रोशनआरा आजाद ख्याल शहजादी थीं। विदेशी यात्रियों के संस्मरणों के अनुसार उनके प्रेम संबंधों की भनक औरंगजेब को लग गई जो उसे अस्वीकार्य था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि रोशनआरा की मौत 1671 में जहर देने से हुई थी। लेकिन यह राज है कि यह जहर उसने खुद खाया या किसी ने दिया। 

रौशनआरा बेग़म की खुली क़ब्र


11 सितंबर 1671 को 54 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। रोशनआरा बाग मे ही बेगम रोशनआरा को एक बारादरी मे सन् 1671 मे दफनाया गया l बताया जाता है कि उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप ही उनकी क़ब्र ढँकी नहीं गई, वहाँ मात्र मिट्टी की परत ही है जो संगमरमर के नक्काशीदार छज्जों से घिरी है। 

पानी में छवि, रौशनी, फव्वारे कितना सुंदर प्रभाव उत्पन्न करते होंगे!

हज़रत निजामुद्दीन दरगाह परिसर में स्थित जहाँआरा की क़ब्र भी ऐसे ही सादगीपूर्ण और खुली है क्योंकि उनकी ख्वाहिश थी कि उनकी क़ब्र कच्ची बनाई जाए, ताकि उसपर हरियाली रहे।


स्थानीय मान्यता है कि इस मजार पर गिले-शिकवे मिट जाते हैं। लोग बेहद गुस्से में आते हों, लेकिन जब वे इस मजार के आसपास बैठ कुछ देर आपस में बैठकर बातें करते हैं, तो उनके सारे गिले-शिकवे मिट जाते हैं। जब वे यहां से घर लौटते हैं तो उनके चेहरों पर एक मुस्कान नजर आती है। 


यह भी उल्लेखनीय है कि आजादी से पहले इस क्षेत्र में ज्यादातर फौजी रहते थे। सड़क किनारे घोड़े बांधे जाते थे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए पंजाबी लोग भी यहां बसे।


इस परिसर से जुड़ी एक और खास बात इतिहास में इसकी जगह सुनिश्चित करती है और वो है देश के क्रिकेट इतिहास से संबंध। क्रिकेट से जुड़ा रोशनआरा क्लब जो पहले इसी बाग से जुड़ा रहा माना जाता है का इतिहास अंग्रेजों के समय 1922 से ही है। क्रिकेट के इतिहास में इस क्लब का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहीं द बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआइ) की स्थापना हुई थी। देश की पहली क्रिकेट पिच क्लब के ग्राउंड में बनी थी। 1927 से यहां क्रिकेट खेला जा रहा है। इस देख महसूस होता है कि कपिल और धोनी जैसे जमीन से जुड़े सितारों ने क्रिकेट को गली-कूचों तक पहुँचा दिया, वरना यह अभिजात्य वर्ग का शाही खेल ही रहता आम आदमी की पहुँच से काफी दूर... 

रौशनआरा क्लब


लेकिन आज यह बारादरी बदहाल हालत में है। दिल्ली की तमाम पुरानी इमारतों की तरह यहाँ भी पुरातत्व विभाग का बोर्ड मौजूद है मगर उसके प्रभाव का कोई और संकेत नहीं मिलता। अंदर काफी बड़ा जलाशय है, जो सूखा हुआ है, आसपास के लोगों के टहलने, बच्चों के खेलने और बुजुर्गों या खाली बैठे लोगों के ताश खेलने तो कुछ असामाजिक लोगों के जमा होने का भी अड्डा बनती जा रही है यह विरासत जो देश के सबसे प्रमुख दौर में से एक की गतिविधियों की साक्षी रही है। इमरा को रखरखाव की आवश्यकता है, इसके चारों ओर की पानी और फव्वारों की व्यवस्था के सौंदर्यीकरण की आवश्यकता है। भीड़ भरी आबादी के बीच यह बाग ध्यान दिये जाने पर दिल्ली का एक खास आकर्षण हो सकता है। हाल ही अखबारों की ख़बरों के अनुसार दिल्ली के राज्यपाल महोदय ने भी यहाँ का दौरा कर इसकी दशा सुधारने के संबंध में कुछ निर्देश दिये हैं। इस पार्क का संरक्षण और संवर्धन इस विरासत को सहेजने और दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहरों में एक और उल्लेखनीय नाम जोड़ सकता है।


(स्रोत: इंटरनेट पर उपलब्ध विविध जानकारियों से संकलित)



Saturday, August 27, 2022

हमारे इतिहास की एक दर्द भरी धरोहर - ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’


15 अगस्त 1947 की तिथि हमारे देश में जहाँ एक ओर स्वतंत्रता का उल्लास लिए आई वहीं इसकी पृष्ठभूमि में 14 अगस्त की तारीख़ एक ऐसी पीड़ा को भी लिए हुये है जिसने इस देश को कभी भी न मिटाने वाले ज़ख्म दिये हैं। विभाजन की विभीषिका ने करोड़ों लोगों को कभी न भूलने वाले दर्द दिये जिनकी तीस आज भी उठती रहती है। यह विभाजन सिर्फ जमीन के एक टुकड़े का नहीं था, बल्कि इस जमीन पर असंख्य लोगों को पीढ़ियों से जमी उनकी जड़ों समेत उखाड़ कर फेंक दिया था। यह विभाजन राजनीतिक कूटनीति, इसके खिलाड़ियों, उनके प्यादों के आपसी दांवपेचों का नतीजा थी, मगर इसका परिणाम उन लोगों को भुगतना पड़ा जो शायद ही ऐसी किसी स्थिति की कामना करते हों! आम आदमी आपसी मतभेदों का शिकार हो, बहकाये जाकर झगड़े कर सकते हों, मगर उनके चाहने से देश का विभाजन जैसी घटना हो जाए ऐसी गलतफहमी शायद ही किसी को हो। इसके असली रणनीतिकार, इससे लाभ उठाने वाले और अमल तक पहुँचाने वाले तत्व अलग ही रहे होंगे। उन वास्तविक गुनहगारों को पहचानने और सबक ले सतर्क रहने की आवश्यकता ज्यादा है ताकि मानवता को फिर ऐसी त्रासदी फिर कभी न देखनी पड़े।
प्रदर्शनी का विषय


‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को लेकर 14 अगस्त 2021 को केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से भारत सरकार का राजपत्र यानी कि गजट जारी किया गया था, जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार, भारत की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को विभाजन के दौरान लोगों द्वारा सही गई यातना और वेदना का स्मरण दिलाने के लिए 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में घोषित करती है।
इस अवसर पर पूरे देश में विभिन्न कार्यक्रम हो रहे हैं। इन्हीं में से एक में शामिल होने का अवसर मिला नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट, नई दिल्ली में जहां इस विभीषिका के विविध पहलुओं को दर्शाने वाली प्रदर्शनी ''भारत का विभाजन... 1947' आयोजित की गई थी।
एक विस्थापित का रुमाल, कितने अरमानों और यादों के साथ क्या लेकर, क्या छोड़ कर निकले होंगे वो लोग!


प्रदर्शनी में विभाजन और आजादी की यह दास्ताँ आवाम के नजरिए से सुनाई जा रही हैं। 1947 में भारत के विभाजन ने इतिहास के सबसे बड़े सामूहिक पलायन को अंजाम दिया। लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोग अपने घर छोड़कर भागने पर विवश हुए और 10 लाख से अधिक की मृत्यु हो गई। ये आयोजन विभाजन के पीड़ितों और उनकी भावी पीढ़ियों के अनुभवों से पुनः गुजरने का अवसर देते हैं।
विस्थापन के एक अक्स को उकेरती तस्वीर, इंटरनेट से


यह प्रदर्शनी 1900 के दशक में ब्रिटिश राज के बढ़ते प्रतिरोध के साथ शुरू होती है। यहाँ 1900-1946 की अवधि में हुई महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रदर्शनी में 1947 की शुरुआत में हुई उस अराजकता का वर्णन भी किया गया है जब दंगों ने भारत के अधिकांश हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था और केवल 5 सप्ताह के भीतर ही बंगाल और पंजाब को विभाजित करते हुए तदर्थ सीमाएं खाँच दी गई थी। इन विभाजनकारी फैसलों के कारण लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। वे भोजन और आश्रय के बिना अपने घर से भागकर दोनों देशों में बने शरणार्थी शिविरों में पहुंचे। 6 सितंबर 1947 को राहत और पुनर्वास मंत्रालय की स्थापना की गई। केंद्र की अस्थायी सरकारों ने रातों-रात बड़े पैमाने पर तंबुओं का निर्माण करवाया। स्कूलों और अन्य सार्वजनिक भवनों में अस्थायी आश्रय प्रदान किए गए। अंतहीन हिंसा का सामना करते हुए कई शरणार्थियों को अपने घरों, परिवारों और दोस्तों से अलग होकर सुदूर अज्ञात भूमि की ओर प्रवास करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
यहाँ मानवीय स्वभाव का एक और दुःखद पहलू उभर कर सामने आता है जब हम पाते हैं कि अपनी जड़ों से उजड़े लोग विस्थापित हो बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं मगर उनके मन से छुआछूत जैसी भावनाएं नियंत्रित तक नहीं हो पातीं और अंबेडकर जी को नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ता है कि दलित शरणार्थियों के लिए अलग व्यवस्था की आवश्यकता है।
पुराना क़िला, हुमायूं का मक़बरा जैसे क्षेत्र शरणार्थियों के प्रारंभिक आश्रय बने


अधिकांश विस्थापितों के लिए विभाजन के बाद के वर्ष कठिन थे क्योंकि वे जीवित रहने और अपने जीवन के पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे थे। सरकार ने शरणार्थियों के लिए रोजगार के लिए नई टाउनशिप और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र बनाना शुरू किया। फरीदाबाद जैसे शहर इसी की निशानी हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पुनर्वास की इस प्रक्रिया में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान साहब यानी बादशाह खान की भी काफी सक्रिय भूमिका रही। दिल्ली का खान मार्केट और फरीदाबाद का बीके अस्पताल उनकी स्मृतियों की स्वीकृति है जो भले आज एक बड़ी आबादी के द्वारा भुला दिया गया हो!


जैसे-जैसे लोग बसे, उन्होंने अपने जीवन को फिर से संगठित किया और उसे सार्थक बनाने वाले विभिन्न सामाजिक और प्राकृतिक पहलुओं से जुड़ना शुरू किया। साहित्य, संगीत, सिनेमा ने इस दिशा में विशेष भूमिका निभाई। इसने जताया कि दोनों देशों की आम जनता अब भी कुछ बिंदुओं पर एक सूत्र से जुड़ी हुई है।
उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां साहब को आजादी के लगभग एक दशक बाद मोरारजी देसाई जी और नेहरू जी के प्रयासों से भारत वापस आने और मुंबई में बसने को राजी किया जा सका। ऐसे ही और भी कई उदाहरण हैं।

समय के साथ भले राह मुश्किल होती गई पर कुछ लोग जो अपने बचपन के घरों का दौरा करने में सक्षम हुए. अपनी इस यात्रा के प्रत्येक विवरण को इस प्रकार बताते हैं जैसे कि यह उनकी स्मृति में अमिट रूप से अंकित हो चुकी हो। आखिरकार, शरणार्थियों के लिए स्मृतियां ही वह कोना रह जाती हैं जिसमें वो अपनी पुरानी यादों को सहेज और जी पाते हैं।
यादों के धागों को फिर से पिरो आगे की जिंदगी गढ़ने को प्रदर्शित करती एक कलाकार की रचना


यहाँ भी जिक्र उचित होगा कि इस अवसर से जुड़े साहित्य, फिल्मों के माध्यम से भी आप उस दौर को महसूस कर सकते हैं। 'तमस' उपन्यास और फ़िल्म जो कि यूट्यूब पर भी उपलब्ध है ऐसा ही एक उदाहरण है।
यह अवसर सिर्फ नफरत को बनाए रखने का नहीं है, बल्कि इस बात को समझने का है कि इस नफरत की आग को भड़काया किन्होंने, किनके घर जले और किनके घर सजे। इस देश का आम आदमी फिर ऐसी किसी साजिश का शिकार न बन जाए इसके लिए जरूरी है कि इन स्मृतियों को याद रखते हुये खुद को ऐसी किसी साजिश का शिकार होने से भी बचाए। इसी में उन मृतात्माओं को भी श्रद्धांजलि है जिन्हें राजनीति के इस चक्रव्यूह में अपने तन-मन-धन की कुर्बानी देनी पड़ी...
स्रोत: म्यूजियम में उपलब्ध जानकारी,
प्रदर्शनी में तस्वीरें लेने की अनुमति न होने के कारण इंटरनेट से उपलब्ध कुछ तस्वीरें

Tuesday, May 10, 2022

1857 की क्रांति के बलिदानियों की स्मृति की धरोहर अजनाला का कालियांवाला खू

आज 10 मई है। 10 मई 1857 ही वो तारीख थी जब वर्षों से जहां-तहां उभरती-दबती असंतोष की अग्नि को एक चिंगारी ने भड़का दिया था और इसने आज़ादी के लिए पहले ठोस कदम का रूप लिया जिसके बाद से इस देश की पूरी व्यवस्था बादल गई। कठोर दमन चक्र चला मगर यहां से स्वतन्त्रता की जो चेतना जागृत हुई उसके आगे ब्रिटिश साम्राज्यवाद अगले 100 साल तक भी इस देश में न टिक सका।

इतिहास के किसी भी अंश को किसी भी तरह से कितना भी क्यों न दबाया जाये, अपने हिस्से की जगह लिए वो कभी-न-कभी उभर ही आता है। ऐसी ही एक दास्तान पंजाब के अजनाला कस्बे के कुएं में मिले नरकंकालों की है जो इतिहास के एक गुम पन्ने से वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ उभर आये हैं।
अजनाला स्थित कुंआ और उससे मिले शहीदों के अवशेष



डॉक्यूमेंटेशन में अंग्रेजों ने कई महत्वपूर्ण काम किये हैं। इन्हीं से उस दौर के विवरण के साथ ऐसे तथ्य भी सामने आ जाते हैं जिनका उल्लेख सामान्य परिस्थितियों में शायद न किया जाता या किसी और रूप में किया जाता। मगर वास्तविक इतिहास और गल्पों में यही अंतर है। 1857 में पंजाब के अमृतसर में तैनात रहे ब्रिटिश कमिश्नर फेडरिक हेनरी कूपर की किताब 'द क्राइसिस ऑफ पंजाब' में कई चौंकाने वाली बातों के साथ यह भी उल्लेख था कि अमृतसर के अजनाला गांव के एक गुरुद्वारे के नीचे कुआं है, जिसमें 282 सैनिकों को 1857 में मारकर फेंका गया था। साथ ही लिखा था कि इन सैनिकों ने अंग्रेजों से गद्दारी की थी लेकिन वस्तुतः वो असली देशभक्त थे जो अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे।
भारत और पाकिस्तान के पंजाब राज्यों में 'उपेक्षित पड़े स्मारकों’ की खोज में समर्पित भाव से जुटे अमृतसर निवासी 42 वर्षीय सुरिंदर कोचर इतिहास में खासी दिलचस्पी रखते हैं।

यह उनका जुनून ही था कि अजनाला के 30,000 निवासियों ने उनकी बात सुनी और अमृतसर के बाहरी किनारे पर स्थित कालियांवाला खू में खुदाई करने के लिए स्वेच्छा से अपनी सेवाएं दीं। यह वही जगह थी, जहां शहीदों का इतिहास सदियों पुराने ईंट से अटे कुएं में गुमनाम दफन था।

खुदाई में जो सामने आया, वह कल्पना से परे था। यहां नरकंकाल, 90 साबुत खोपडिय़ां, करीब 200 जबड़ों के हिस्से और हड्डियों के हजारों टुकड़े मिले हैं, जिन्हें कूपर ने यहां दफन करवाया था। ये ईस्ट इंडिया कंपनी की 26वीं एनआइ (नेटिव इन्फेंट्री) के सैनिक थे, जो 31 जुलाई, 1857 को लाहौर के बाहर स्थित मियां मीर छावनी की जेल से भाग निकले थे। कोचर के पास इस सिलसिले में 'पर्याप्त सबूत थे’।

ये सबूत कूपर की 1958 में लिखी में हत्याकांड के बारे में दिए गए विस्तृत, सर्द और आत्मप्रशंसा से भरे ब्यौरे की ओर इशारा करते हैं। इसमें दफनाने की जगह चुने जाने का जिक्र है। कूपर की क्रूरता का सबूत ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के आर्काइव में भी मौजूद है। 1883 और 1947 के बीच प्रकाशित अमृतसर जिला गजट के सभी चार संस्करणों में कालियांवाला खू का जिक्र किया गया है।

28 फरवरी 2014 को, सुरिंदर कोचर के नेतृत्व में एक शौकिया पुरातत्व दल ने पंजाब में स्थित अजनाला शहर में एक पुराने कुएं से 22 शवों के अवशेषों का पता लगाया। अगले दो दिनों में, कोचर और उनकी टीम ने 90 खोपड़ियों, 170 जबड़े की हड्डियों, और 5,000 से अधिक दांतों सहित हजारों हड्डियों के साथ ही गहने और पुराने सिक्कों के टुकड़े भी प्राप्त किये।

कोचर के इकट्ठा किए गए तमाम कागजी सबूतों के बावजूद कोई भी अधिकारी उन्हें सहयोग देने के लिए तैयार नहीं था। उनके मुताबिक काबिल विशेषज्ञों ने भी 1 चुप्पी साध रखी थी। कोचर कहते हैं, "सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि कूपर की किताब या फिर अन्य दस्तावेजों में जिस जगह का जिक्र था, वहां ऐसे किसी कुएं के निशान नहीं दिख रहे थे। "

कोचर का मानना था कि सैनिकों को जिस जगह दफनाया गया था, वह गुरुद्वारा शहीदगंज के नीचे रहा होगा। यह गुरुद्वारा 1947 के आसपास बना था। लेकिन एक आशंका से उनकी जान निकल रही थी कि गुरुद्वारा शहीदों की कब्र पर न खड़ा हो। दिसंबर, में अमरजीत सिंह सरकारिया के नेतृत्व वाले गुरुद्वारा प्रबंधन ने किसी इतिहासकार की निगरानी में खुदाई की मंजूरी दे दी।

कोचर ने याद करते हुए बताया, "अभी 10 फुट भी खुदाई नहीं हुई थी कि हमें प्राचीन नानकशाही ईंटों से बनी कुएं की घुमावदार दीवार दिखी। "कोचर कहते हैं कि लोगों के इकट्ठा किए गए पैसे, 80 लाख रु. के कर्ज और अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह के सहयोग से गुरुद्वारे को इस साल जनवरी में नई जगह पर ले जाया गया। इस तरह यहां पर बड़े पैमाने पर खुदाई की जमीन तैयार हो सकी।

28 फरवरी की सुबह जमीन से 8 फुट नीचे एक हाथ उठाकर खड़े एक सैनिक का लगभग पूरा कंकाल दिखाई दिया तो वहां मौजूद भीड़ की दर्द में डूबी आवाज फूट पड़ी। उस कंकाल के आसपास पड़े सात और कंकालों को देखते हुए उस समय के हालात का अंदाजा लगाते हुए कोचर कहते हैं, "यह खड़ा व्यक्ति जरूर उस वक्त जिंदा रहा होगा और लाशों के ढेर से होता हुआ बाहर निकलने की कोशिश कर रहा होगा। "

दो दिनों तक खुदाई में निकले कंकालों के ढेर बता रहे थे कि वह कितनी नृशंस घटना थी। उन्हें देखकर अजनाला के लोगों के आंसू थम नहीं रहे थे। उनको इस बात का सुकून तो है कि उन्होंने उस नरसंहार की हकीकत सबके सामने ला दी, लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस भी है कि इस क्रम में घटना से जुड़े फॉरेंसिक महत्व के साक्ष्य शायद हमेशा के लिए बर्बाद भी हो गए क्योंकि उन्हें अप्रशिक्षित गांववालों से खुदाई करानी पड़ी थी।

इतिहासकारों के एक वर्ग की मान्यता रही कि ये कंकाल भारत, पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान दंगों में मारे गए लोगों के थे।
इन कंकालों की वास्त विकता का पता लगाने के लिए पंजाब विश्वभविद्यालय के डॉ. जेएस सेहरावत ने सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (CCMB) हैदराबाद, बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट, लखनऊ और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर अवशेषों का डीएनए और आइसोटोप अध्यययन किया। इस अध्यवयन में हड्डियों, खोपड़ी और दांत के डीएनए टेस्टा से इस बात की पुष्टि हुई है कि मरने वाले सभी उत्तर भारतीय मूल के हैं।

शोध में 50 सैंपल डीएनए और 85 सैंपल आइसोटोप एनालिसिस के लिए इस्तेईमाल किए गए। डीएनए विश्लेिषण से लोगों के अनुवांशिक संबंध को समझने में मदद मिलती है और आइसोटोप एनालिसिस भोजन की आदतों पर प्रकाश डालता है। शोध विधियों ने इस बात का समर्थन किया कि कुएं में मिले मानव कंकाल पंजाब या पाकिस्तान में रहने वाले लोगों के नहीं बल्कि, डीएनए सीक्वेंस यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल के लोगों के साथ मेल खाते हैं। ये सभी पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, अवध (वर्तमान में पूर्वी उत्तर प्रदेश) राज्यों से आए थे।

इस शोध को 26 अप्रैल को ‘फ्रंटियर्स इन जेनेटिक्स’ नाम के जर्नल में प्रकाशित किया गया है। शोध के मुताबिक, कुएं में जिन सैनिकों के नरकंकाल मिले हैं, वो ब्रिटिश इंडियन आर्मी की 26वीं बंगाल इनफैंट्री का हिस्सा थे। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, पुरातत्वविदों ने अजनाला के कुएं को ऐसी जगह बताया है, जहां 1857 के विद्रोह से जुड़े सबसे अधिक नरकंकाल पाए गए हैं।

इस कुंए को पहले "कलियां वाला खू" (अश्वेतों का कुआं) कहा जाता था। इसे अब "शहीदान वाला खू" (शहीदों का कुआं) कहा जाता है।

रिपोर्ट के विस्तृत विवरण के अनुसार भारतीय विद्रोह 10 मई 1857 को शुरू हुआ, जब उत्तर भारत के मेरठ के छावनी शहर में तैनात भारतीय सिपाहियों ने अपने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ तब बगावत कर दी, जब अफवाहें फैलीं कि उनकी नई एनफील्ड राइफलों के लिए इस्तेमाल किए गए कारतूस गाय और सुअर की चर्बी से बने हुए थे। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने इसे अपने धार्मिक रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक परंपराओं के खिलाफ एक सुविचारित हमले के रूप में देखा। आक्रोश ने हिंसक प्रतिरोध के लिए प्रेरित किया और इसका शिकार ब्रिटिश अधिकारियों के साथ-साथ महिलाओं और बच्चों सहित किसी भी अन्य यूरोपीय या ईसाई नागरिकों को बनना पड़ा।

इसी क्रम में विद्रोही दिल्ली के लिए रवाना हुए, और ग़दर भड़क उठा क्योंकि पीड़ित किसान और अभिजात वर्ग समान रूप से अपने ब्रिटिश आकाओं को बाहर करने के प्रयास में एकजुट हो खड़े हो गए।

अजनाला में मारे गए सिपाही 26वीं नेटिव इन्फैंट्री (एनआई) रेजिमेंट के थे, जो मियां मीर (मीन मीर) छावनी में तैनात थे। लाहौर शहर के ठीक बाहर। 13 मई 1857 को, पूरी सेना में असंतोष फैलने के डर से, ब्रिटिश अधिकारियों ने मियां मीर में तैनात कई अन्य रेजिमेंटों के साथ 26वीं को निरस्त्र कर दिया। 30 जुलाई को, लगभग 635-सदस्यीय मजबूत 26वें एनआई उठे और रेजिमेंट के सार्जेंट-मेजर और दो भारतीय अधिकारियों के साथ उनके कमांडिंग ऑफिसर को मार डाला। इसके बाद सिपाहियों ने छावनी के समर्थक दल के साथ, उत्तर की ओर प्रस्थान किया। एक बड़ी धूल भरी आंधी ने उनकी गतिविधियों को छिपाने में उन्हें मदद की।

इस प्रकरण के तुरंत बाद, अंग्रेजों ने विद्रोहियों का पीछा करने के लिए लाहौर और अमृतसर दोनों से सैनिकों को भेजा, और सिपाहियों का पीछा करने में सिख ग्रामीणों की मदद ली। अगले दिन, दादियान (डूडियन) की बस्ती के ग्रामीणों ने रावी नदी के पास सिपाहियों को देखा और तुरंत ही पड़ोसी जिलों में से एक के तहसीलदार (राजस्व कलेक्टर) को सूचना भेजी। स्थानीय पुलिसकर्मियों और स्वयंसेवकों को इकट्ठा करने के बाद, सेना ने सिपाहियों पर हमला किया, जिनमें से लगभग 150 खूनी झड़प में मारे गए या भागने की कोशिश में डूब गए। शेष सिपाही भाग गए, और लगभग 200 नदी के एक छोटे से द्वीप तक तैरने में कामयाब रहे। खून से लथपथ, थके हुए, और परिस्थितियों से निराश, अधिकांश सिपाहियों ने घटनास्थल पर पहुंचने के बाद कूपर और उसके आदमियों के सामने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया। सिपाहियों ने सोचा कि उन पर कोर्ट-मार्शल द्वारा मुकदमा चलाया जाएगा। ग्रामीणों की सहायता से, कूपर और उसके आदमियों ने सिपाहियों को अजनाला तक लगभग 10 किलोमीटर की दूरी तक मार्च किया, जहाँ उन्हें थाने और कई अन्य पुरानी इमारतों में रात भर के लिए बंद कर दिया गया।

अगली सुबह, 1 अगस्त 1857 को, कूपर ने अपने मुस्लिम घुड़सवारों को ईद अल-अधा मनाने की अनुमति देने की उदारता का ढोंग रचते हुए वापस अमृतसर भेज दिया। इन अधिक अनुभवी मुस्लिम सैनिकों को भेजने के लिए कूपर की वास्तविक मंशा यह थी कि उन्हें उनकी वफादारी पर संदेह था, और उन्हें डर था कि पकड़े गए सिपाहियों के ख़िलाफ़ इनकी योजना को जान वे उसके खिलाफ उठ खड़े हो सकते हैं।

मुस्लिम सैनिकों के जाते ही, कूपर ने अपने शेष सिख सैनिकों को दस के समूह में कैदियों को बाहर लाने का आदेश दिया। कैदियों को एक साथ बांधा गया, फायरिंग दस्ते के सामने मार्च किया गया, और बिना किसी मुकदमे या सुनवाई के सीधे मार डाला गया। सुबह 10 बजे तक, 237 सिपाहियों की हत्या कर दी गई थी, और उनके शवों को गांव के सफाईकर्मियों ने एक बड़े कुएं में फेंक दिया था। अभी भी 45 को सजा दिया जाना बाकी था, लेकिन जब कूपर और उसके लोगों ने अपनी जेल की कोठरी खोली, तो उन्होंने पाया कि अंदर लगभग सभी लोग पहले ही मर चुके थे। किसी भी प्रकार की ताजी हवा की गुंजाइश को खत्म करते हुए कसकर बंद खिड़कियों और बैरिकेडिंग ने अत्यधिक गर्मी और घुटन के कारण कम जगह में ज्यादा लोगों के घुटकर मर जाने की संभावना जताई गई।

कूपर ने 237 सैनिकों के ब्यौरे इस तरह दर्ज किए हैं सभी पूर्वियों ( पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के युवक) को 10-10 के समूह में गोली मारी गई। अन्य 45 सैनिकों को ऐसे हालात में रखा गया कि उनकी मौत घुटन से हो जाए। उनमें से ज्यादातर अजनाला पुलिस स्टेशन के पास एक दुर्ग में गर्मी और उमस में घुटकर मर गए। अन्य 41 जवानों को लाहौर में 'तोप के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया गया। ये वे जवान थे जो अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बचने में कामयाब हो गए।

ब्रिटिश कमिश्नर फेडरिक हेनरी कूपर 


कूपर के कार्यों को पंजाब के मुख्य आयुक्त जॉन लॉरेंस और यहां तक कि गवर्नर-जनरल चार्ल्स कैनिंग दोनों से मजबूत समर्थन मिला। पंजाब के न्यायिक आयुक्त रॉबर्ट मोंटगोमरी ने व्यक्तिगत रूप से कूपर को इस "सफलता" के लिए हार्दिक बधाई दी।

इस स्टडी के बारे में इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए जे एस सेहरावत ने कई जरूरी बातें बताईं। उन्होंने बताया कि ट्रेस एलिमेंट्स और डीएनए एनालिसिस के आधार पर पता चला है कि जिन सैनिकों को मारा गया, उनकी उम्र 21 साल से 49 साल के बीच थी। उन्होंने आगे बताया, “डेंटल पैथालॉजी एनालिसिस के आधार पर पता चला कि मारे गए सैनिक हेल्दी थे और शायद इसलिए ही सेना में थे। आर्मी में होने की वजह से उनके पास अच्छी डेंटल हेल्थ बनाए रखने की सुविधाएं उपलब्ध थीं। ”

स्टडी में ये भी सामने आया कि इन सैनिकों को बहुत ही क्रूरता से मारा गया। स्टडी करने वालों को 86 खोपड़ियों में दोनों भौंहों के बीच चोट के निशान मिले हैं। जिससे पता चलता है कि उन्हें प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी गई। साथ ही साथ नरकंकालों के साथ पत्थर की गोलियां भी मिली हैं, जिनका इस्तेमाल 19वीं शताब्दी में कैद किए गए लोगों की हत्या में होता था। कूल्हे की हड्डियां भी टूटी पाई गई हैं। जिससे पता चलता है कि गोली मारने से पहले सैनिकों को प्रताड़ित किया गया। साथ ही साथ मृत सैनिकों को दफनाने की जगह सीधे ऊपर से कुएं में फेंक दिया गया।

इतिहास के इन शहीदों के साथ वर्तमान जो आज इंका नाम तक नहीं जानता पूरा न्याय नहीं कर सकता, किन्तु इस खोज से जुड़े लोगों की मनोभावना है कि ब्रिटिश सरकार उन शहीदों के नाम बताए ताकि उनके परिजनों के माध्यम से पृथक मान्यताओं के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया जा सके। इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार अपने जघन्यतम अपराध के लिए भारत से खेद भी प्रकट करे। भविष्य में देखते हैं इतिहास से वर्तमान तक का यह सफर आगे क्या मोड लेता है।

तबतक तो उन गुमनाम शहीदों के प्रति नमन और कृतज्ञता ही प्रकट कर सकते हैं.....
🙏🙏🙏
(स्रोत: इन्टरनेट पर उपलब्ध विविध स्रोतों से संलग्न)

Sunday, May 8, 2022

गूगल_डूडल, Mothers Day और "मातृ प्रकृति" एक कानूनी इकाई के रूप में "जीवित प्राणी"

 



सर्च इंजन गूगल ने आज, 8 मई 2022 को अपना डूडल 'मदर्स डे' को समर्पित किया है। हर साल मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।

गूगल ने डूडल के जरिए माँ-बच्चे के खास रिश्ते और बच्चों के विकास में मां की भूमिका को दर्शाते हुए मातृत्व का उत्सव मनाया है। गूगल ने मदर्स डे 2022 पर चार स्लाइड्स के साथ एक विशेष Gif Doodle जारी किया है।

डूडल में एक बच्चे और मां के हाथों के चार चित्र दिखाए गए हैं। पहली स्लाइड में, बच्चे को मां की उंगली पकड़े हुए दिखाया गया है, दूसरी स्लाइड में दिखाया गया है कि उन्हें ब्रेल से परिचित कराया जा रहा, तीसरी स्लाइड में उन्हें एक नल के नीचे हाथ धोते हुए दिखाया गया है, जो अच्छी आदतों को सीखाने का प्रतीक है और आखिरी में मां और बच्चे को पौधे लगाते हुए दिखाया गया है।



मदर्स डे मनाने की शुरुआत एना जार्विस नाम की एक अमेरिकी महिला ने की थी। माना जाता है कि एना अपनी मां को आदर्श मानती थीं और उनसे बहुत प्यार करती थीं। जब एना की मां की निधन हुआ तो उन्होंने उनके सम्मान में स्मारक बनवाया और मदर्स डे की शुरुआत की। उन समय इस खास दिन को मदरिंग संडे कहा जाता था।

एना के इस कदम के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने औपचारिक तौर पर 9 मई 1914 से मदर्स डे मनाने की शुरुआत की। इस खास दिन के लिए अमेरिकी संसद में कानून पास किया गया। जिसके बाद से मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाने लगा।




आज यह भी जिक्र करना उल्लेखनीय होगा कि प्रकृति जो भी माँ का ही रूप है के संदर्भ में मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए इसे भी एक जीवित प्राणी के रूप में घोषित किया। मीडिया में उपलब्ध टिप्पणी के अनुसार- '... "मातृ प्रकृति" को एक कानूनी इकाई / कानूनी व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति/ नैतिक व्यक्ति / कृत्रिम व्यक्ति के रूप में "जीवित प्राणी" के रूप में घोषित किया, जिसे सभी संबंधित अधिकारों, कर्तव्यों और देनदारियों के साथ कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त हो, ताकि उसे संरक्षित किया जा सके।

मदुरै पीठ की न्यायमूर्ति एस. श्रीमती ने यह भी कहा कि प्रकृति के पास अपनी स्थिति बनाए रखने और अपने स्वास्थ्य और भलाई को बढ़ावा देने के लिए अपने अस्तित्व, सुरक्षा और जीविका, और पुनरुत्थान के लिए मौलिक अधिकार / कानूनी अधिकार और संवैधानिक अधिकार होंगे। कोर्ट ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार को धरती मां की रक्षा के लिए हर संभव तरीके से उचित कदम उठाने का भी निर्देश दिया।

"पिछली पीढ़ियों ने 'पृथ्वी माता' को इसकी प्राचीन महिमा में हमें सौंप दिया है और हम नैतिक रूप से उसी धरती माता को अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए बाध्य हैं। यह सही समय है कि "माँ प्रकृति" को न्यायिक दर्जा घोषित / प्रदान किया जाए।" इसलिए यह कोर्ट "माता-पिता के अधिकार क्षेत्र" को लागू करके एतद्द्वारा "मातृ प्रकृति" को "जीवित प्राणी" के रूप में घोषित कर रहा है, जिसे कानूनी इकाई /कानूनी व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति / नैतिक व्यक्ति / कृत्रिम व्यक्ति के रूप में एक कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त है, जिसे सभी संबंधित अधिकारों, कर्तव्यों और देनदारियों के साथ कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त होगा, ताकि उसे संरक्षित किया जा सके।"

Friday, April 8, 2022

गाईड: अब तक 56...

 




इस अप्रैल माह 1966 में प्रदर्शित हिंदुस्तानी सिनेमा की कालजयी फ़िल्म 'गाईड' अपने 56 साल पूरे कर रही है। देव आनंद की फिल्में समय से आगे तो कही ही जाती हैं, यह फ़िल्म और इसकी कहानी और मूल उपन्यास आज भी अपने इस गुण के कारण प्रासंगिक है। 



शायद ऑस्कर को ध्यान में रखते फ़िल्म का अंग्रेजी संस्करण एक साल पहले यानी 6 फरवरी 1965 को अमेरिका में प्रदर्शित कर दिया गया। हिंदुस्तानी दर्शकों की संवेदना को ध्यान में रखते मूल कहानी में कुछ संशोधनों के साथ हिंदी संस्करण तैयार किया गया, जिससे उपन्यासकार आर के नारायण सहमत नहीं थे, फिर भी फिल्फेयर के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार उन्हें ही मिला।


अंग्रेजी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखने वाले देव साहब को जब किसी ने आर के नारायण की इस किताब के बारे में बताया वो बर्लिन फिल्म फेस्टिवल आए थे 'हमदोनों' को लेकर। वहां से लंदन आ उन्होंने ‘द गाइड’ की तलाश शुरू की। बुकस्टोर के मालिक ने कहा कि किताब अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन उनके लिए वह इसे भारत से 24 घंटे के अंदर मंगवा देगा। जैसे ही उन्हें यह किताब मिली, उन्होंने एक बार में ही इसे पूरा पढ़ डाला। और इसके बाद प्रोड्यूसर, निर्देशक से लेकर मूल उपन्यासकार से मिलने का सिलसिला शुरू हुआ।

India's entry for the OSCAR 'The Guide', written by Pearl S Buck and directed by Tad Danielewski

India's entry for the OSCAR 'The Guide', written by Pearl S Buck and directed by Tad Danielewski

हिंदी संस्करण में भी फ़िल्म के बनते कई कहानियां जुड़ीं। चेतन आनंद से राज खोसला होते विजय आनंद निर्देशक बने और अपनी मास्टर पीस रची। हसरत जयपुरी के फ़िल्म छोड़ने पर शैलेंद्र ने गीत लिखे, परंतु उन्हें सम्मान देते 'दिन ढ़ल जाये...' का मुखड़ा बरकरार रखते हुए पूरा गीत लिखा। 



विवाहेत्तर प्रेम संबंध जिसमें नायिका पीड़िता नहीं बल्कि अपनी मर्जी से प्रेम का चयन करती है की कहानी उस दौर में ही नहीं आज भी सहज ग्राह्य नहीं है। मगर यह फ़िल्म आम हिंदी फिल्मों की तरह किसी को देवी या देवता या खलनायक न बनाते हुए एक इंसान के तौर पर परिस्थितियों के अनुरूप उनके व्यवहार को दर्शाती है, जो कहानी के तौर पर एक अलग हट कर किया गया प्रयोग है।  



टूरिस्ट गाईड से अपने खुद के गाईड बनने का सफ़र तय करती एक युवा पर आधारित यह फ़िल्म आज भी देखे जाने की योग्यता रखती है और हर अगली पीढ़ी को देखनी ही चाहिए...

Tuesday, March 1, 2022

महाशिवरात्रि, ध्यान और मानसिक स्वास्थ्य


 


आज महाशिवरात्रि है और साथ ही है Self-Injury Awareness Day (आत्म-चोट जागरूकता दिवस, SIAD ) तथा Zero Discrimination Day (शून्य भेदभाव दिवस) भी। 


शिव बड़े अद्भुत और प्रेरक व्यक्तित्व हैं। तमाम दुरूह और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्वंय को शांत रख विश्व कल्याण की उनकी भावना अतुलनीय है। विश्व के कल्याण के लिए वह विषपान कर लेते हैं तो व्यक्तिगत पीड़ा से विश्व पर संभावित आपदा को ध्यान में रखते उसे अपने अंदर जज्ब भी कर लेते हैं। हर परिस्थिति में मानसिक शांति की उनकी क्षमता अप्रतिम है। 


किसी भी प्रकार का भेदभाव हो या जीवन में मिले ऐसे अनुभव जो खुद को शारीरिक-मानसिक दर्द पंहुचना भी स्वीकार करने की स्थिति में ले जाते हैं से उबरने में आत्मकेंद्रित हो खुद को समझने, सहेजने के प्रयास महत्वपूर्ण हैं। इस प्रक्रिया में ध्यान भी काफी सहायक हो सकता है। डिप्रेशन आदि के लिए जब आप दवा का उपयोग ले रहे होते हैं तो साथ-साथ योग, प्राणायाम, ध्यान आदि जैसी परम्परा का प्रयोग भी किया जाता रह सकता है। तमाम सुख-सुविधा रहते भी मानसिक अशांति आज एक बड़ी वैश्विक समस्या है और विभिन्न परिस्थितियां इसे और बढ़ाती ही जा रही हैं।



इन प्रक्रियाओं के यूँ तो कई माध्यम हैं, आप अपनी पसंद, सुविधा के अनुसार किसी को भी चुन सकते हैं। एक बार राह मिल गई तो आगे आप ख़ुद भी बढ़ते जा सकते हैं। 


मुझे जब ऐसी किसी राह की तलाश थी मुझे 'आर्ट ऑफ लिविंग' की 'सुदर्शन क्रिया' की जानकारी मिली और मैंने इसे अपनाया। हिमाचल में रहते कोरोना के प्रारंभिक दौर की बिल्कुल नई परिस्थितियों में पहले से ही विचलित मेरी मनःस्थिति से उबरने में इस प्रक्रिया का काफी सहारा मिला। आस पास की परिस्थितियों और अपनी कमियों-कमजोरियों ने साल भर जितने विष धीमे-धीमे मन-मस्तिष्क में भरे उससे उबरने की राह तलाशते फिर एक राह इसी के अगले चरण के कैंप में ऋषिकेश लेती गई।


अपने अनुभव के आधार पर मैं तो कहूंगा कि आप जो अपनी मनःस्थिति से ख़ुद बेहतर वाकिफ़ हैं यदि जरूरी समझें तो अपनी सुविधानुसार ऐसे किसी विकल्प को अवश्य आजमाएं।


आजकल ऑनलाइन होने के कारण कहीं से किसी भी कोर्स को करने की भी सुविधा है।


ऐसा ही एक ऑनलाइन कोर्स 3-6 मार्च, 2022 से आरंभ हो रहा है। ज्यादा जानकारी के लिए इसका विवरण भी दे रहा हूँ। इच्छुक व्यक्ति स्वंय संपर्क कर सकते हैं। 


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Sunday, February 6, 2022

स्वर कोकिला का मौन हो जाना...

 


हमारे देश की पहचान जिन चंद नामों से है उनमें से एक को आज हमने खो दिया। इसी साल जनवरी महीने की शुरुआत में कोविड संक्रमित होने के बाद मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी ने आज रविवार सुबह 8 बजकर 12 मिनट पर 92 साल की उम्र में अंतिम साँस ली। इस देश के आम आदमी के जीवन का शायद ही कोई दिन होगा जिस दिन उसके कानों में लता जी के किसी गीत की आवाज न जाती हो। मेरे जैसे रात को सोते सुबह उठते ही विविध भारतीऔर पुराने गाने सुनने वाले व्यक्तियों को अगली सुबह यह याद दिलायेगी कि यह आवाज अब सशरीर हमारे बीच मौजूद नहीं है। भारत के रत्नों में आज एक और रत्न कम हो गया। 


इस देश में बहुत कम ऐसे अवसर आते हैं जब हर इंसान के मन में एक ही भाव हों। आज भी फेसबुक टाइमलाइन या व्हाट्सएप स्टेटस यही दर्शा रहे हैं। 


सोशल मीडिया की हालिया परंपरा में धारा के अलग बोल कर अपनी अलग पहचान दिखाने के इच्छुक कुछ लोग भी दिखेंगे, मगर लता जी अब इन सब से बहुत दूर निकल चुकी हैं।


उनके साथ हिंदी फिल्म संगीत के सुमधुर इतिहास का एक बड़ा हिस्सा भी चला गया है। पीछे छोड़ गई हैं असंख्य गीत जो संगीत प्रिय आम आदमी के विभिन्न मनोभावों में उसके दिल में उमड़ते रहेंगे। 

माता सरस्वती की विदाई के दिन ही स्वर साम्राज्ञी की भी विदाई 


उन्होंने ख़ुद भी कभी शास्त्रीय संगीत में संभावित भूमिका में कमी पर अफसोस ज़ाहिर किया था। काश हिंदी फ़िल्म संगीत के अलावा भी अन्य विधायें अपने बीच उनकी उपस्थिति का और लाभ उठा पातीं...


उन्हें याद करते गीतकार आनंद बख्शी जी की एक कविता  जो उन्होंने 1973 में लिखी थी लेकिन उन्होंने लता जी को ये कविता 2001 में भेंट की, जब उन्हें पद्म विभूषण से नवाज़ा गया था।


ये गुलशन में बाद-ए-सबा गा रही है


के पर्वत पे काली घटा गा रही है


ये झरनों ने पैदा किया है तरन्नुम


कि नदियां कोई गीत सा गा रही हैं


ये माहिवाल को याद करती है सोहनी


कि मीरा भजन श्याम का गा रही हैं


मुझे जानें क्या क्या गुमां हो रहे हैं


नहीं और कोई लता गा रही हैं


यूं ही काश गाती रहें ये हमेशा


दुआ आज खुद ये दुआ गा रही है


लता को पसंद करने वाले देश, धर्म, भाषा आदि की सीमाओं से भी परे थे। शायर हबीब जालिब ने भी एक नज़्म लता जी के लिए लिखी थी। उन्हें श्रद्धांजलि देते इस नज़्म के माध्यम से भी याद करते हैं...


तेरे मधुर गीतों के सहारे

बीते हैं दिन रेन हमारे


तेरी अगर आवाज़ न होती

बुझ जाती जीवन की जोती

तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे

जैसे सूरज चांद सितारे


तेरे मधुर गीतों के सहारे

बीते हैं दिन रेन हमारे


क्या क्या तू ने गीत हैं गाये

सुर जब लागे मन झुक जाए

तुझ को सुन कर जी उठते हैं

हम जैसे दुख-दर्द के मारे


तेरे मधुर गीतों के सहारे

बीते हैं दिन रेन हमारे


'मीरा' तुझ में आन बसी है

अंग वही है रंग वही है

जग में तेरे दास हैं इतने

जितने हैं आकाश पे तारे


तेरे मधुर गीतों के सहारे

बीते हैं दिन रेन हमारे

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