Saturday, September 3, 2022

मुग़ल सल्तनत के इतिहास की बिसार दी जा रही धरोहर- रोशनआरा बाग़

 

आहिस्त: बर्ग ए गुल बा-फिशां बर मज़ारे मा, 

पस नाज़ुकस्त शीशा ए दिल दरकिनार मा ... 


“मेरी मज़ार पर फूल की पंखुड़ी आहिस्ता से फैलाओ , आखिरकार अलग सा शीशे की मानिन्द मेरा दिल बहुत नाज़ुक है...”  

कहते हैं कि यह शेर रौशनआरा बेगम का है। रोशनआरा बेगम जो कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की पुत्री थीं की अपने परिवार और सल्तनत में महत्वपूर्ण भूमिका रही। 

अर्पण कपाड़िया की बनाई रौशनआरा बेग़म की पेंटिंग


रोशनआरा का जन्म 3 सितंबर 1617 को हुआ था। वह शाहजहाँ की दूसरी पुत्री थीं और एक राजनीतिक सूझबूझ युक्त एक प्रभावशाली महिला एवं एक प्रतिभाशाली शायरा भी थीं। तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार उनका रंग सांवला और नैन-नक्श बिलकुल साधारण ही थे। इसलिए शाहजहाँ उनकी जगह जहाँआरा को ज्यादा तवज्जो देता था। इस बात से रोशनआरा काफी खफा रहती थी। उनकी नाराज़गी ने उत्तराधिकार की लड़ाई में शाहजहाँ और उनके प्रिय पुत्र दाराशिकोह की तुलना में उन्हें औरंगजेब के पक्ष में खड़ा कर दिया। उनके द्वारा भेजी जाती रहीं गुप्त सूचनाओं ने औरंगजेब को काफी सहायता पहुँचाई और तख़्त पाने में उसकी जीत ने स्वाभाविक ही उनके महत्व को और बढ़ा दिया। 

रौशनआरा बाग का प्रवेश द्वार


सन 1658 से 1666 तक शहज़ादी रौशनआरा बेगम मुगलिया सल्तनत की सब से ताक़तवर महिला के रूप में उभरीं। इस दौर में जहांआरा जो रूप और गुण के कारण अत्यंत लोकप्रिय थी शाहजहाँ के साथ आगरा किले में ही रहीं। जहांआरा के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ और दाराशिकोह का पक्ष लेने के बावजूद उन्हें ‘पादशाह बेग़म’ का रुतबा दिया गया। सन 1666 में शाहजहाँ की मौत  के बाद जब जहांआरा बेगम आगरा से दिल्ली आ गयी तो रौशनआरा बेगम का रूतबा धीरे-धीरे कम होने लगा।

बारादरी


कहा जाता है कि राजधानी के सियासी दांवपेंचों से ख़ुद को अलग रखने की चाहत लिए रोशनआरा बेगम ने सन 1650 के आसपास शाहजहानाबाद की चाहरदीवारी से लगभग 3 मील की दूरी पर एक  बाग़ लगवाया था।  उन्होंने अपने इस खूबसूरत बाग़ में बारादरी और दूसरी इमारतों का भी निर्माण करवाया। गीत, संगीत, मुशायरों आदि की महफ़िलें सजती होंगीं जिनमें चारों ओर के फव्वारे एक अलग ही संगीत जोड़ते होंगे! चाँदनी रातों में ये सारे दृश्य जुड़ एक अलग ही दृश्यावली का निर्माण करते होंगे! बताया जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर ने मुग़ल शहजादियों के लिए ये नियम बनाया था, कि उन्हें आजीवन कुंवारी ही रहना पड़ेगा। रौशनआरा को भी इसी शर्त से गुजरना पड़ा। लेकिन रोशनआरा आजाद ख्याल शहजादी थीं। विदेशी यात्रियों के संस्मरणों के अनुसार उनके प्रेम संबंधों की भनक औरंगजेब को लग गई जो उसे अस्वीकार्य था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि रोशनआरा की मौत 1671 में जहर देने से हुई थी। लेकिन यह राज है कि यह जहर उसने खुद खाया या किसी ने दिया। 

रौशनआरा बेग़म की खुली क़ब्र


11 सितंबर 1671 को 54 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। रोशनआरा बाग मे ही बेगम रोशनआरा को एक बारादरी मे सन् 1671 मे दफनाया गया l बताया जाता है कि उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप ही उनकी क़ब्र ढँकी नहीं गई, वहाँ मात्र मिट्टी की परत ही है जो संगमरमर के नक्काशीदार छज्जों से घिरी है। 

पानी में छवि, रौशनी, फव्वारे कितना सुंदर प्रभाव उत्पन्न करते होंगे!

हज़रत निजामुद्दीन दरगाह परिसर में स्थित जहाँआरा की क़ब्र भी ऐसे ही सादगीपूर्ण और खुली है क्योंकि उनकी ख्वाहिश थी कि उनकी क़ब्र कच्ची बनाई जाए, ताकि उसपर हरियाली रहे।


स्थानीय मान्यता है कि इस मजार पर गिले-शिकवे मिट जाते हैं। लोग बेहद गुस्से में आते हों, लेकिन जब वे इस मजार के आसपास बैठ कुछ देर आपस में बैठकर बातें करते हैं, तो उनके सारे गिले-शिकवे मिट जाते हैं। जब वे यहां से घर लौटते हैं तो उनके चेहरों पर एक मुस्कान नजर आती है। 


यह भी उल्लेखनीय है कि आजादी से पहले इस क्षेत्र में ज्यादातर फौजी रहते थे। सड़क किनारे घोड़े बांधे जाते थे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए पंजाबी लोग भी यहां बसे।


इस परिसर से जुड़ी एक और खास बात इतिहास में इसकी जगह सुनिश्चित करती है और वो है देश के क्रिकेट इतिहास से संबंध। क्रिकेट से जुड़ा रोशनआरा क्लब जो पहले इसी बाग से जुड़ा रहा माना जाता है का इतिहास अंग्रेजों के समय 1922 से ही है। क्रिकेट के इतिहास में इस क्लब का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहीं द बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआइ) की स्थापना हुई थी। देश की पहली क्रिकेट पिच क्लब के ग्राउंड में बनी थी। 1927 से यहां क्रिकेट खेला जा रहा है। इस देख महसूस होता है कि कपिल और धोनी जैसे जमीन से जुड़े सितारों ने क्रिकेट को गली-कूचों तक पहुँचा दिया, वरना यह अभिजात्य वर्ग का शाही खेल ही रहता आम आदमी की पहुँच से काफी दूर... 

रौशनआरा क्लब


लेकिन आज यह बारादरी बदहाल हालत में है। दिल्ली की तमाम पुरानी इमारतों की तरह यहाँ भी पुरातत्व विभाग का बोर्ड मौजूद है मगर उसके प्रभाव का कोई और संकेत नहीं मिलता। अंदर काफी बड़ा जलाशय है, जो सूखा हुआ है, आसपास के लोगों के टहलने, बच्चों के खेलने और बुजुर्गों या खाली बैठे लोगों के ताश खेलने तो कुछ असामाजिक लोगों के जमा होने का भी अड्डा बनती जा रही है यह विरासत जो देश के सबसे प्रमुख दौर में से एक की गतिविधियों की साक्षी रही है। इमरा को रखरखाव की आवश्यकता है, इसके चारों ओर की पानी और फव्वारों की व्यवस्था के सौंदर्यीकरण की आवश्यकता है। भीड़ भरी आबादी के बीच यह बाग ध्यान दिये जाने पर दिल्ली का एक खास आकर्षण हो सकता है। हाल ही अखबारों की ख़बरों के अनुसार दिल्ली के राज्यपाल महोदय ने भी यहाँ का दौरा कर इसकी दशा सुधारने के संबंध में कुछ निर्देश दिये हैं। इस पार्क का संरक्षण और संवर्धन इस विरासत को सहेजने और दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहरों में एक और उल्लेखनीय नाम जोड़ सकता है।


(स्रोत: इंटरनेट पर उपलब्ध विविध जानकारियों से संकलित)



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