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Saturday, July 16, 2011

रंगमंच से : दब न जाये कहीं भारत-पाक की एक सम्मिलित आवाज


भारत-पाक संबंध इनके स्थापना काल से ही एक तलवार की धार पर चलने सरीखे हैं, जिन्हें इनकी राह से भटकाने में कई स्वार्थजन्य तत्व भी छुपे हुए हैं. कहते हैं मो. अली जिन्ना को भी आगे चलकर अपने इस निर्णय के औचित्य पर संदेह होने लगा था, मगर तबतक राजनीति की शतरंज के खिलाडी अपने खेल में काफी दूर निकल चुके थे. उस दौर की विभीषिका झेल चुकी एक पीढ़ी अपने स्तर पर इतिहास की इस भूल को सुधारने के प्रयास करती रही. अब जब दोनों मुल्कों में एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ चुकी है जो इतिहास के उस कटु अनुभव की छाया से पूर्णतः मुक्त है. इन दोनों पीढ़ियों के मध्य एक विरासत के रूप में हस्तांतरण हो रहा है एक स्वप्न का जिसमें दोनों देशों के अपनी साझी संस्कृति, इतिहास की पृष्ठभूमि में एक साझे भविष्य की आधारशिला रखने के प्रयास हो रहे हैं. राजनयिक दांव-पेंचों के परे दोनों मुल्कों के आम बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा की जा रही ऐसी ही पहलों में से एक थी 15 जुलाई, 2011 को 'गाँधी स्मृति और दर्शन समिति' के तत्वावधान में पाकिस्तान की सीमा किरमानी जी द्वारा संचालित 'तहरीक-ए-निस्वां' (Tehrik-E-Niswan) समूह द्वारा प्रस्तुत नाटक 'जंग अब नहीं होगी'.

411 BCE  में एरिस्तोफेन्स (Aristophanes) रचित ग्रीक नाटक 'लिसिस्त्राटा' (Lysistrata), जो कि दुनिया की पहली स्त्रीवादी और युद्धविरोधी कृति मानी जाती है, से प्रभावित इस  नाटक का नए परिवेश में एडाप्टेशन फहमीदा रियाज और अनवर जाफरी ने किया था, जबकि इसके निर्देशन की कमान संभाली थी अनवर जाफरी और शीम किरमई ने. 

नाटक की विषयवस्तु उन दो कबीलों के इर्द - गिर्द घुमती है जिन्होंने कभी एक साथ मिलकर विदेशी शत्रुओं का मुकाबला कर विजय पाई थी, मगर बाद में आपस में ही हिंसक संघर्ष में शामिल हो गए. अपने संघर्ष की आग में ये अपने समाज की सुख, समृद्धि, विकास, महत्वकांक्षाएं सबकुछ झोंकते चले जा रहे थे. जाहिरा तौर पर युद्धों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं को ही भुगतने पड़ते हैं. किसी का सुहाग उजड़ता है तो किसी की गोद और विजयी पक्ष की प्रतिहिंसा का भी आसान लक्ष्य स्त्री ही बनती है. ऐसे में दोनों कबीलों की औरतों ने एकजुट हो इस संघर्ष को रोकने के लिए दबाव बनने की ठान ली. 

औरतें यहाँ प्रतीक हैं दोनों कबीलों की उस आवाज का जो अक्सर नेताओं द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं.

नाटक का एक दृश्य 
इसके लिए उन्होंने दो माध्यम चुने - पहला - 'मर्दों को अपने पास न आने दो' और दूसरा 'अपने खजाने पर कब्ज़ा कर लो क्योंकि हमारा धन समाज के विकास के लिए है गोले-बारूद और एटम बम खरीदने के लिए नहीं. ' इसके प्रत्युत्तर में पुरुषवादी मानसिकता और स्त्रियों के बीच गहरा द्वन्द होता है. धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में मुल्ले-मौलवियों को भी स्त्रियों की तर्कशक्ति के आगे झुकना पड़ता है. 

गोले-बारूद खत्म हो जाने के बाद भी अपने वजूद की तलाश की छटपटाहट, जो इन कबीलों में संघर्ष की स्थिति बने रहने पर ही निर्भर करती है;  दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों को मथ रही है.. मगर स्त्रियों का दबाव इन्हें भी अपने दंभ को परे रख वार्ता के लिए संग बैठने को विवश करता है. दोनों देशों के सैनिक आम दोस्तों की तरह उन्ही के शब्दों में 'पहली बार जंग की दोपहर में नहीं, बल्कि एक खूबसूरत शाम' में बैठते हैं, और कहीं दबे पड़े उस एहसास को पुनर्जीवित करते हैं कि आखिर उनकी भाषा, संस्कृति, सभ्यता सब तो एक ही थी फिर यह जंग बीच में कहाँ से आ गई !
नाटक का एक अन्य दृश्य 
इस भाव के पुनर्जीवित होने के साथ ही यह नाटक तो खत्म हो जाता है मगर यह सवाल भी छोड़ जाता है कि भारत-पाक जैसे देशों की आम जनता के उस वर्ग की क्षीण सी आवाजें क्या अपने हुक्मरानों तक पहुँच पाएंगीं, जिसमें वो बार-बार इन सहोदरों के बीच उपजे अविश्वास को दूर करने के आग्रह करते आ रहे हैं. कुलदीप नैयर, गुलजार साहब जैसी शख्शियतें भारत से इस विचारधारा की एक प्रखर आवाज हैं तो सीमापार से भी प्रतिध्वनि न आ पा रही हो ऐसा भी नहीं है. 

वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैयर कलाकारों का उत्साहवर्धन करते हुए 

मुंबई धमाकों जैसी घटनाओं के माध्यम से उभरती कट्टरपंथी ताकतों के शोर में चाहे ये आवाजें दब जा रही हों, मगर ये खामोश नहीं होंगीं. दोनों देशों की अंधवैचारिक और कट्टरपंथी पूर्वाग्रहों से मुक्त युवा पीढ़ी अपने हुक्मरानों को भी एक-न-एक दिन आत्ममंथन के लिए जरुर विवश कर देगी. और तबतक के लिए गाँधी दर्शन एक माध्यम है इस भाव का कि -

"अन्धकार से क्यों घबड़ायें,
अच्छा है एक दीप जलाएं."

Wednesday, June 29, 2011

मेरा गाँव – मेरा देश




गर्मी की छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं. शहरों में बसा मध्यवर्ग किसी-न-किसी बहाने अपने गाँव का एक चक्कर लगा चुका है, जो नहीं लगा सके हैं वो - विशेषकर महिलाएं सावन में नैहर जाने के बहाने ही सही गाँव हो आने के लिए आतुर ही हैं. जो किसी कारणवश अभी छुट गए हैं, उनके लिए चंद महीनों में ही पूजा का दौर शुरू होने वाला है. कोई पूछे कि गाँवों में ऐसा क्या है – तो झट जवाब होगा, पेड़ों पर आम पक आये होंगे, खेतों में धान तैयार हो गई होगी आदि-आदि. ये चीजें ऐसी नहीं जो शहर में मयस्सर न हों, मगर इनके पीछे मुख्य तत्व वो भावनाएं हैं जो आर्थिक पहलु नहीं देखतीं. कहीं-न-कहीं गाँव की मिट्टी की कसक है जो आम हिन्दुस्तानी को कसोटती हैं – खींचती हैं. मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व बोकारो स्टील सिटी जैसे औद्योगिक शहर में जब एक व्यक्ति ने अपने मकान के पास स्थित मैदान में धान रोपवाई थी तो वह स्थानीय जनता के आकर्षण का एक केन्द्र बन गई थी. J

मगर गाँवों की भावना / संवेदना में छुपी तस्वीर यथार्थ में भी दिखाई देती है ! अफ़सोस है कि शहरों की चकाचौंध से विचलित होते गाँव अपनी स्वाभाविकता खो रहे हैं. मौलिक गाँवों से अलग वो एक कस्बे की शक्ल लेते जा रहे हैं. पढ़े-लिखे युवाओं के पलायन ने गाँवों को विद्या और शक्ति से भी विहीन कर दिया है. उसपर से सरकारी योजनाओं के मकडजाल ने ग्रामीण जनता को भी अकर्मण्य कर दिया है. शिक्षा, स्वास्थय, रोजगार, विकास किसी भी मसले पर स्वयंसेवा की जगह मुफ्त की सरकारी बैसाखी की बाट जोहती फिर रही है ग्रामीण आबादी. कुछ समय पूर्व बी. एच. यू. में अपनी एक सीनियर के साथ वाटर सैम्पल लेने सोनभद्र (उप्र) गया था, जहाँ ग्रामीणों से जल प्रदूषण के उनके स्वास्थय पर प्रभाव के संबंध में भी जानकारी लेनी थी. लगभग सभी ग्रामीण हमसे किसी सरकारी योजना के अंतर्गत मुफ्त दवा वितरण की उम्मीद में अपने कष्टों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाने को ही ज्यादा उत्सुक दिखे.

गाँव हजारों वर्ष पुरानी हमारी सभ्यता के क्रमिक विकास के प्रतीक चिह्न हैं. पश्चिमी प्रभाव से महानगरीय संस्कृति का अतिक्रमण आज विकास का मॉडल माना जा रहा है, मगर गाँव हमारे स्वाभाविक विकास का आधार हैं, इसीलिए देश की मिट्टी से जुड़े मनीषियों ने भारत माता को ‘ग्रामवासिनी’ माना, गांधीजी ने ‘ग्रामस्वराज’ की अवधारणा रखी. वो गाँवों को स्वावलंबी देखना चाहते थे, अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर और इसी आधार पर दूसरे ग्रामों से स्थापित संबंध. इस प्रक्रिया के आधार पर ही एक मजबूत भारत की नींव रखी जाती.

अब भी समय है कि अपने आधार को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किये जायें अन्यथा खोखली, दीमक लगी बुनियाद पर तथाकथित समृद्धि और प्रगति की मेट्रोपोलिटन ईमारत 
कभी भी ध्वस्त हो जायेगी. 

चलते-चलते प्रेमचन्द के ‘गोदान’ पर आधारित इस क्लासिक फिल्म से मिट्टी की खुशबू लिए यह गीत - जिसे फिल्माया गया है महमूद पर, गायक हैं रफ़ी साहब और संगीत दिया है - प्रख्यात संगीतज्ञ पं. रविशंकर ने.  ( जो किसी कारणवश यहाँ डाउनलोड न हो सका).
यदि किसी कारणवश इस लिंक का वीडियो पूर्णतः न खुले तो इस लिंक को ट्राई कर लीजियेगा. 


Tuesday, April 12, 2011

लोकमानस के राम



संकीर्ण राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के परे राम भारतीय जनमानस के रोम-रोम में अंतरतम तक बसे हुए हैं. विभिन्न भाषाओँ में हर प्रमुख कवि / लेखक ने अपने दृष्टिकोण से राम के स्वरुप को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है. मगर मुख्यतः रामचरित्र सीता हरण और रावण वध के इर्द – गिर्द ही घुमता नजर आता है. रामचरित्र के श्रवण को अतर्मन की प्यास अनबुझी ही रह जाती है. वनवास से सीता हरण तक के दरम्यान राम परिवार के दिन कैसे कटे यह प्रश्न करोड़ों लोगों के साथ मेरे मन में भी सदा से ही कहीं उभरता रहा था, मगर इसका समाधान हुआ प्रेरक व्यक्तित्व और महानतम लोकयात्री स्व. श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी को पढते हुए. देश की मिट्टी में बिखरे लोक-गीतों को सहेजने में समग्र जीवन होम कर चुके सत्यार्थी जी के लिए गांधीजी ने कहा था कि – “ देश को एकसूत्र में पिरोने में आप भी हमारे ही काम को आगे बढ़ा रहे हैं, मगर एक अलग ढंग से.
 ”
लोकमानस ने वनवासी राम को अपनी आँखों के सामने, दिल के पास रखा और काफी गहरे और आत्मीयता से अवलोकन किया, जो उसके लोकगीतों में भी झलकता है.

ओडिसा के कृषकों द्वारा गए जाने वाले ‘हालिया गीतों’ में राम की गाथा गाई जाती है, जिसमें राम के कृषक रूप को देखा गया है.
“ राम बांधे हल, लेखन देवे माई;
 आउरी कि करिवे जे ...
सीताया देवे रोई जे ...”

अर्थात – “ राम हल चला रहे हैं, लक्ष्मण जी जुताई करेंगे, सीताजी के लिए और क्या काम है, वो बीज बो देंगीं. “

धान कुटने वाले उपकरण ढेंकी से जुड़े एक ‘ढेंकी गीत’  में राम – लक्ष्मण का विवाद  कि धान कौन डाले और कौन कूटे ?
राम ने कहा –
 “ लक्ष्मण तुम धान डालो मैं कुटूंगा. यह कह कर राम ढेंकी पर बैठ गए और पान खाने लगे. धान कूटने का कम आनंद से चलता गया. चारों ओर महक फ़ैल गई. “

राम – सीता के प्रेम की एक लोक झांकी –

“ जहाँ सीता सुपारी हैं, वहीं राम पान हैं; जहाँ सीता टोकरी हैं, वहीं राम धान हैं “

लगभग हरेक भाषा में लोक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में, भावनात्मक रंगों को राम – सीता और लक्ष्मण के चरित्र में पिरोकर पति – पत्नी के प्रेम, तनाव, नोंक – झोंक,  भाई –भाई, देवर – भाभी आदि की विभिन्न काल्पनिक परिदृश्यों के माध्यम से व्यक्त किया गया है. स्पष्ट है कि लोक मानस ने रामायण सहित किसी भी महाकाव्य या पौराणिक ईश्वरतुल्य पात्रों के साथ तथाकथित शास्त्रीय मानकों के विपरीत अपना एक अलग आत्मीय संबंध बना रखा है जो होली आदि त्योहरिक, वैवाहिक उत्सवों के क्रम में झलक ही जाता है. और स्पष्ट है कि लोक मानस में बसे यही राम हैं, जिन्हें आम आदमी के ह्रदय से निकाल दोबारा किसी ‘ स्वर्णिम वनवास ‘ में भेजना कभी संभव नहीं हो पायेगा. 
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