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Thursday, November 24, 2011

नैनीताल, मैं और ‘ तुम्हारे लिए’



नैनीताल – उन चंद जगहों में से एक जिनसे मुझे बेइंतिहा प्यार है. जबतक इसे देखा नहीं था, तब तक शिवानी की कहानियों से झलकता नैनीताल, जब इससे जुड़े कुछ लोगों से मिला तो उनके चेहरों से झांकता नैनीताल और जब खुद इससे रूबरू होने का मौका मिला तो प्रकृति का सलोना ख़्वाब नैनीताल. और इस ख्वाब की गिरफ्त में अकेले मेरे ही होने की तो खुशफहमी हो सकती भी नहीं थी, क्योंकि जो कोई भी इसे दिल की नजर से देख ले वो इसके इश्क में तो डूब ही जाये (वैसे इसके कुछ अपवाद भी हुए हैं...) मगर जिनपर भी इस छोटे से पहाड़ी शहर का इश्क सवार हुआ है, खूब हुआ है. इसके इश्क की गिरफ्त में मशहूर हुए एक और शख्सियत के बारे में हाल ही में जानने को मिला, उनके एक चर्चित शाहकार ‘ तुम्हारे लिए ‘ के माध्यम से.


हिंदी साहित्य के अग्रणी कथाकार और कई राष्ट्रीय- अन्तराष्ट्रीय पुराश्कारों से सम्मानित श्री हिमांशु जोशी को एक बड़ा पाठक वर्ग प्रसिद्द उपन्यास ‘ तुम्हारे लिए ‘ के लेखक के रूप में जानता है.  नैनीताल की पृष्ठभूमि में विराग और मेहा जैसे पात्रों के माध्यम से किशोर वय के सुकोमल प्रेम और जीवन के कटु यथार्थ को भी कुशलता से उभारने वाली यह रचना हिंदी के बहुचर्चित उपन्यासों में से एक है, जिसके कई संस्करण निकले. विभिन्न भारतीय भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ और ब्रिटेन की एक कंपनी द्वारा ऑडियो कैसेट तैयार किये जाने पर वो भी श्रोताओं द्वारा हाथों-हाथ लिए गए. दूरदर्शन से इसका धारावाहिक रूप में प्रसारण भी हुआ. (किन्ही को नाम याद हो तो बताने का कष्ट करें. क्या वो ‘पलाश के फूल’ था ?)

उपन्यास की हृदयग्राहिता की एक वजह इस पृष्ठभूमि से लेखक का खुद का जुडा होना भी है. हल्द्वानी से नैनीताल प्रवास और इस दौरान उनके अनुभवों ने बड़े करीने से उपन्यास की कथावस्तु में अपनी जगह बना ली है. ‘ साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘ में धारावाहिक के रूप में प्रकाशन से लेकर उपन्यास के रूप में प्रकाशन के बाद से विविध संस्करणों के माध्यम से इसने अपना एक अलग ही पाठक वर्ग बना लिया है. पाठकों पर इसके सम्मोहन का कुछ ऐसा असर पड़ा कि इसे पढ़ने के बाद कई लोग नैनताल आये और इसमें वर्णित स्थलों को ढूँढ – ढूँढ कर देखने गए, कईयों ने इसे अपनी ही कहानी माना तो कईयों ने इसकी प्रतियाँ अपने मित्रों में बंटवाईं; तो एक पाठक ने लेखक के ही शब्दों में इसे दो सौ पचास बार पढ़ डाला. मुझे खुद इसके सम्मोहन ने ऐसा जकड़ा कि रात बारह बजे शुरू कर सुबह चार बजे खत्म करने के बाद ही रुक पाया, जबकि नौ बजे ऑफिस भी पहुंचना होता है.
इस उपन्यास में कुछ तो है ऐसा जो आपको नैनीताल से और कहीं-न-कहीं खुद से भी जुड़ने का मौका देता है. खुद ही आजमा कर देख लें ...

चलते-चलते लेखक के ही शब्दों में – “ ... आज भी कभी नैनीताल जाता हूँ तो उन भीड़ – भरी सड़कों पर मेरी आँखें अनायास कुछ खोजने – सी क्यों लगती हैं ? रात के अकेले में, उन वीरान सड़कों पर भटकना अच्छा क्यों लगता है ?...
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