Wednesday, June 14, 2023
दिल्ली में शिक्षा की नई उम्मीद जगाता शैक्षणिक प्रयोग: स्कूल ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सीलेंस
Thursday, December 22, 2022
अपने सपनों को रंगों में उकेरतीं उभरती चित्रकार प्रियंका अंबष्ठ
अपनी एक एक पेंटिंग के साथ प्रियंका अंबष्ठ |
''सपने वो नहीं होते जो आप सोने के बाद देखते हैं, सपने वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते''- डॉ कलाम साहब का यह कथन कई रचनात्मक लोगों के जीवन की वास्तविकता है। ऐसे ही लोगों में से एक से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ ललित कला अकादमी, नई दिल्ली में एक पेंटिंग प्रदर्शनी के दौरान। यहां की विभिन्न गैलरियों में लगी प्रदर्शनियों में एक एकल प्रदर्शनी थी प्रियंका अंबष्ठ जी की भी। 8-14 दिसंबर, 2022 के मध्य आयोजित उनकी प्रदर्शनी की थीम थी- 'Healing with colours'
प्रियंका अंबष्ठ जी की चित्र प्रदर्शनी की एक झलक |
दर्शकों को अपनी पेंटिंग के बारे में बताती हुई प्रियंका जी |
एक भौतिक चिकित्सक न सही एक आत्मिक चिकित्सक के रूप में वो रंगों को साधन बना अपने दर्शकों के मन की अंतःचिकित्सा की ओर बढ़ रही हैं। उनके चित्र इस प्रक्रिया के सुंदर माध्यम हैं। ये चित्र और इनके रंग महज किसी कल्पना के साकार रूप मात्र नहीं हैं बल्कि हर रंग, हर पेंटिंग, हर कोण मनुष्य के किस चक्र को किस प्रकार प्रभावित कर जाए इसके सुचिंतित चिंतन का साकार रूप भी हैं। इसीलिए उनके चित्र देश के विभिन्न भागों में कला प्रेमियों द्वारा काफी पसंद किये और सराहे जा रहे हैं।
प्रियंका जी इस क्षेत्र में देर से पर एक स्पष्ट थीम को लेकर उतरी हैं। चित्रकला उनकी मात्र आवश्यकता नहीं है बल्कि अब तक बचा कर रखा गया वो ज़ज़्बा है जो उनके सोच, विचारों आदि को अभिव्यक्ति देता है; साथ ही दर्शकों से जुड़ने की तो थीम मौजूद है ही उनके चित्रों में।
ऐसे में उनके अंदर पूरी संभावना है कि वो इस विस्तृत क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट जगह और छवि बना सकें। उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना और शुभकामनाएं हैं।
Saturday, September 3, 2022
मुग़ल सल्तनत के इतिहास की बिसार दी जा रही धरोहर- रोशनआरा बाग़
आहिस्त: बर्ग ए गुल बा-फिशां बर मज़ारे मा,
पस नाज़ुकस्त शीशा ए दिल दरकिनार मा ...
“मेरी मज़ार पर फूल की पंखुड़ी आहिस्ता से फैलाओ , आखिरकार अलग सा शीशे की मानिन्द मेरा दिल बहुत नाज़ुक है...”
कहते हैं कि यह शेर रौशनआरा बेगम का है। रोशनआरा बेगम जो कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की पुत्री थीं की अपने परिवार और सल्तनत में महत्वपूर्ण भूमिका रही।
अर्पण कपाड़िया की बनाई रौशनआरा बेग़म की पेंटिंग |
रोशनआरा का जन्म 3 सितंबर 1617 को हुआ था। वह शाहजहाँ की दूसरी पुत्री थीं और एक राजनीतिक सूझबूझ युक्त एक प्रभावशाली महिला एवं एक प्रतिभाशाली शायरा भी थीं। तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार उनका रंग सांवला और नैन-नक्श बिलकुल साधारण ही थे। इसलिए शाहजहाँ उनकी जगह जहाँआरा को ज्यादा तवज्जो देता था। इस बात से रोशनआरा काफी खफा रहती थी। उनकी नाराज़गी ने उत्तराधिकार की लड़ाई में शाहजहाँ और उनके प्रिय पुत्र दाराशिकोह की तुलना में उन्हें औरंगजेब के पक्ष में खड़ा कर दिया। उनके द्वारा भेजी जाती रहीं गुप्त सूचनाओं ने औरंगजेब को काफी सहायता पहुँचाई और तख़्त पाने में उसकी जीत ने स्वाभाविक ही उनके महत्व को और बढ़ा दिया।
रौशनआरा बाग का प्रवेश द्वार |
सन 1658 से 1666 तक शहज़ादी रौशनआरा बेगम मुगलिया सल्तनत की सब से ताक़तवर महिला के रूप में उभरीं। इस दौर में जहांआरा जो रूप और गुण के कारण अत्यंत लोकप्रिय थी शाहजहाँ के साथ आगरा किले में ही रहीं। जहांआरा के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ और दाराशिकोह का पक्ष लेने के बावजूद उन्हें ‘पादशाह बेग़म’ का रुतबा दिया गया। सन 1666 में शाहजहाँ की मौत के बाद जब जहांआरा बेगम आगरा से दिल्ली आ गयी तो रौशनआरा बेगम का रूतबा धीरे-धीरे कम होने लगा।
बारादरी |
कहा जाता है कि राजधानी के सियासी दांवपेंचों से ख़ुद को अलग रखने की चाहत लिए रोशनआरा बेगम ने सन 1650 के आसपास शाहजहानाबाद की चाहरदीवारी से लगभग 3 मील की दूरी पर एक बाग़ लगवाया था। उन्होंने अपने इस खूबसूरत बाग़ में बारादरी और दूसरी इमारतों का भी निर्माण करवाया। गीत, संगीत, मुशायरों आदि की महफ़िलें सजती होंगीं जिनमें चारों ओर के फव्वारे एक अलग ही संगीत जोड़ते होंगे! चाँदनी रातों में ये सारे दृश्य जुड़ एक अलग ही दृश्यावली का निर्माण करते होंगे! बताया जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर ने मुग़ल शहजादियों के लिए ये नियम बनाया था, कि उन्हें आजीवन कुंवारी ही रहना पड़ेगा। रौशनआरा को भी इसी शर्त से गुजरना पड़ा। लेकिन रोशनआरा आजाद ख्याल शहजादी थीं। विदेशी यात्रियों के संस्मरणों के अनुसार उनके प्रेम संबंधों की भनक औरंगजेब को लग गई जो उसे अस्वीकार्य था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि रोशनआरा की मौत 1671 में जहर देने से हुई थी। लेकिन यह राज है कि यह जहर उसने खुद खाया या किसी ने दिया।
रौशनआरा बेग़म की खुली क़ब्र |
11 सितंबर 1671 को 54 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। रोशनआरा बाग मे ही बेगम रोशनआरा को एक बारादरी मे सन् 1671 मे दफनाया गया l बताया जाता है कि उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप ही उनकी क़ब्र ढँकी नहीं गई, वहाँ मात्र मिट्टी की परत ही है जो संगमरमर के नक्काशीदार छज्जों से घिरी है।
पानी में छवि, रौशनी, फव्वारे कितना सुंदर प्रभाव उत्पन्न करते होंगे! |
हज़रत निजामुद्दीन दरगाह परिसर में स्थित जहाँआरा की क़ब्र भी ऐसे ही सादगीपूर्ण और खुली है क्योंकि उनकी ख्वाहिश थी कि उनकी क़ब्र कच्ची बनाई जाए, ताकि उसपर हरियाली रहे।
स्थानीय मान्यता है कि इस मजार पर गिले-शिकवे मिट जाते हैं। लोग बेहद गुस्से में आते हों, लेकिन जब वे इस मजार के आसपास बैठ कुछ देर आपस में बैठकर बातें करते हैं, तो उनके सारे गिले-शिकवे मिट जाते हैं। जब वे यहां से घर लौटते हैं तो उनके चेहरों पर एक मुस्कान नजर आती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि आजादी से पहले इस क्षेत्र में ज्यादातर फौजी रहते थे। सड़क किनारे घोड़े बांधे जाते थे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए पंजाबी लोग भी यहां बसे।
इस परिसर से जुड़ी एक और खास बात इतिहास में इसकी जगह सुनिश्चित करती है और वो है देश के क्रिकेट इतिहास से संबंध। क्रिकेट से जुड़ा रोशनआरा क्लब जो पहले इसी बाग से जुड़ा रहा माना जाता है का इतिहास अंग्रेजों के समय 1922 से ही है। क्रिकेट के इतिहास में इस क्लब का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहीं द बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआइ) की स्थापना हुई थी। देश की पहली क्रिकेट पिच क्लब के ग्राउंड में बनी थी। 1927 से यहां क्रिकेट खेला जा रहा है। इस देख महसूस होता है कि कपिल और धोनी जैसे जमीन से जुड़े सितारों ने क्रिकेट को गली-कूचों तक पहुँचा दिया, वरना यह अभिजात्य वर्ग का शाही खेल ही रहता आम आदमी की पहुँच से काफी दूर...
रौशनआरा क्लब |
लेकिन आज यह बारादरी बदहाल हालत में है। दिल्ली की तमाम पुरानी इमारतों की तरह यहाँ भी पुरातत्व विभाग का बोर्ड मौजूद है मगर उसके प्रभाव का कोई और संकेत नहीं मिलता। अंदर काफी बड़ा जलाशय है, जो सूखा हुआ है, आसपास के लोगों के टहलने, बच्चों के खेलने और बुजुर्गों या खाली बैठे लोगों के ताश खेलने तो कुछ असामाजिक लोगों के जमा होने का भी अड्डा बनती जा रही है यह विरासत जो देश के सबसे प्रमुख दौर में से एक की गतिविधियों की साक्षी रही है। इमरा को रखरखाव की आवश्यकता है, इसके चारों ओर की पानी और फव्वारों की व्यवस्था के सौंदर्यीकरण की आवश्यकता है। भीड़ भरी आबादी के बीच यह बाग ध्यान दिये जाने पर दिल्ली का एक खास आकर्षण हो सकता है। हाल ही अखबारों की ख़बरों के अनुसार दिल्ली के राज्यपाल महोदय ने भी यहाँ का दौरा कर इसकी दशा सुधारने के संबंध में कुछ निर्देश दिये हैं। इस पार्क का संरक्षण और संवर्धन इस विरासत को सहेजने और दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहरों में एक और उल्लेखनीय नाम जोड़ सकता है।
(स्रोत: इंटरनेट पर उपलब्ध विविध जानकारियों से संकलित)
Saturday, August 27, 2022
हमारे इतिहास की एक दर्द भरी धरोहर - ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’
Tuesday, May 10, 2022
1857 की क्रांति के बलिदानियों की स्मृति की धरोहर अजनाला का कालियांवाला खू
आज 10 मई है। 10 मई 1857 ही वो तारीख थी जब वर्षों से जहां-तहां उभरती-दबती असंतोष की अग्नि को एक चिंगारी ने भड़का दिया था और इसने आज़ादी के लिए पहले ठोस कदम का रूप लिया जिसके बाद से इस देश की पूरी व्यवस्था बादल गई। कठोर दमन चक्र चला मगर यहां से स्वतन्त्रता की जो चेतना जागृत हुई उसके आगे ब्रिटिश साम्राज्यवाद अगले 100 साल तक भी इस देश में न टिक सका।
अजनाला स्थित कुंआ और उससे मिले शहीदों के अवशेष |
ब्रिटिश कमिश्नर फेडरिक हेनरी कूपर |
Sunday, May 8, 2022
गूगल_डूडल, Mothers Day और "मातृ प्रकृति" एक कानूनी इकाई के रूप में "जीवित प्राणी"
सर्च इंजन गूगल ने आज, 8 मई 2022 को अपना डूडल 'मदर्स डे' को समर्पित किया है। हर साल मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।
गूगल ने डूडल के जरिए माँ-बच्चे के खास रिश्ते और बच्चों के विकास में मां की भूमिका को दर्शाते हुए मातृत्व का उत्सव मनाया है। गूगल ने मदर्स डे 2022 पर चार स्लाइड्स के साथ एक विशेष Gif Doodle जारी किया है।
डूडल में एक बच्चे और मां के हाथों के चार चित्र दिखाए गए हैं। पहली स्लाइड में, बच्चे को मां की उंगली पकड़े हुए दिखाया गया है, दूसरी स्लाइड में दिखाया गया है कि उन्हें ब्रेल से परिचित कराया जा रहा, तीसरी स्लाइड में उन्हें एक नल के नीचे हाथ धोते हुए दिखाया गया है, जो अच्छी आदतों को सीखाने का प्रतीक है और आखिरी में मां और बच्चे को पौधे लगाते हुए दिखाया गया है।
मदर्स डे मनाने की शुरुआत एना जार्विस नाम की एक अमेरिकी महिला ने की थी। माना जाता है कि एना अपनी मां को आदर्श मानती थीं और उनसे बहुत प्यार करती थीं। जब एना की मां की निधन हुआ तो उन्होंने उनके सम्मान में स्मारक बनवाया और मदर्स डे की शुरुआत की। उन समय इस खास दिन को मदरिंग संडे कहा जाता था।
एना के इस कदम के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने औपचारिक तौर पर 9 मई 1914 से मदर्स डे मनाने की शुरुआत की। इस खास दिन के लिए अमेरिकी संसद में कानून पास किया गया। जिसके बाद से मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाने लगा।
आज यह भी जिक्र करना उल्लेखनीय होगा कि प्रकृति जो भी माँ का ही रूप है के संदर्भ में मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए इसे भी एक जीवित प्राणी के रूप में घोषित किया। मीडिया में उपलब्ध टिप्पणी के अनुसार- '... "मातृ प्रकृति" को एक कानूनी इकाई / कानूनी व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति/ नैतिक व्यक्ति / कृत्रिम व्यक्ति के रूप में "जीवित प्राणी" के रूप में घोषित किया, जिसे सभी संबंधित अधिकारों, कर्तव्यों और देनदारियों के साथ कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त हो, ताकि उसे संरक्षित किया जा सके।
मदुरै पीठ की न्यायमूर्ति एस. श्रीमती ने यह भी कहा कि प्रकृति के पास अपनी स्थिति बनाए रखने और अपने स्वास्थ्य और भलाई को बढ़ावा देने के लिए अपने अस्तित्व, सुरक्षा और जीविका, और पुनरुत्थान के लिए मौलिक अधिकार / कानूनी अधिकार और संवैधानिक अधिकार होंगे। कोर्ट ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार को धरती मां की रक्षा के लिए हर संभव तरीके से उचित कदम उठाने का भी निर्देश दिया।
"पिछली पीढ़ियों ने 'पृथ्वी माता' को इसकी प्राचीन महिमा में हमें सौंप दिया है और हम नैतिक रूप से उसी धरती माता को अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए बाध्य हैं। यह सही समय है कि "माँ प्रकृति" को न्यायिक दर्जा घोषित / प्रदान किया जाए।" इसलिए यह कोर्ट "माता-पिता के अधिकार क्षेत्र" को लागू करके एतद्द्वारा "मातृ प्रकृति" को "जीवित प्राणी" के रूप में घोषित कर रहा है, जिसे कानूनी इकाई /कानूनी व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति / न्यायिक व्यक्ति / नैतिक व्यक्ति / कृत्रिम व्यक्ति के रूप में एक कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त है, जिसे सभी संबंधित अधिकारों, कर्तव्यों और देनदारियों के साथ कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्राप्त होगा, ताकि उसे संरक्षित किया जा सके।"
Friday, April 8, 2022
गाईड: अब तक 56...
इस अप्रैल माह 1966 में प्रदर्शित हिंदुस्तानी सिनेमा की कालजयी फ़िल्म 'गाईड' अपने 56 साल पूरे कर रही है। देव आनंद की फिल्में समय से आगे तो कही ही जाती हैं, यह फ़िल्म और इसकी कहानी और मूल उपन्यास आज भी अपने इस गुण के कारण प्रासंगिक है।
शायद ऑस्कर को ध्यान में रखते फ़िल्म का अंग्रेजी संस्करण एक साल पहले यानी 6 फरवरी 1965 को अमेरिका में प्रदर्शित कर दिया गया। हिंदुस्तानी दर्शकों की संवेदना को ध्यान में रखते मूल कहानी में कुछ संशोधनों के साथ हिंदी संस्करण तैयार किया गया, जिससे उपन्यासकार आर के नारायण सहमत नहीं थे, फिर भी फिल्फेयर के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार उन्हें ही मिला।
अंग्रेजी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखने वाले देव साहब को जब किसी ने आर के नारायण की इस किताब के बारे में बताया वो बर्लिन फिल्म फेस्टिवल आए थे 'हमदोनों' को लेकर। वहां से लंदन आ उन्होंने ‘द गाइड’ की तलाश शुरू की। बुकस्टोर के मालिक ने कहा कि किताब अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन उनके लिए वह इसे भारत से 24 घंटे के अंदर मंगवा देगा। जैसे ही उन्हें यह किताब मिली, उन्होंने एक बार में ही इसे पूरा पढ़ डाला। और इसके बाद प्रोड्यूसर, निर्देशक से लेकर मूल उपन्यासकार से मिलने का सिलसिला शुरू हुआ।
India's entry for the OSCAR 'The Guide', written by Pearl S Buck and directed by Tad Danielewski
हिंदी संस्करण में भी फ़िल्म के बनते कई कहानियां जुड़ीं। चेतन आनंद से राज खोसला होते विजय आनंद निर्देशक बने और अपनी मास्टर पीस रची। हसरत जयपुरी के फ़िल्म छोड़ने पर शैलेंद्र ने गीत लिखे, परंतु उन्हें सम्मान देते 'दिन ढ़ल जाये...' का मुखड़ा बरकरार रखते हुए पूरा गीत लिखा।
विवाहेत्तर प्रेम संबंध जिसमें नायिका पीड़िता नहीं बल्कि अपनी मर्जी से प्रेम का चयन करती है की कहानी उस दौर में ही नहीं आज भी सहज ग्राह्य नहीं है। मगर यह फ़िल्म आम हिंदी फिल्मों की तरह किसी को देवी या देवता या खलनायक न बनाते हुए एक इंसान के तौर पर परिस्थितियों के अनुरूप उनके व्यवहार को दर्शाती है, जो कहानी के तौर पर एक अलग हट कर किया गया प्रयोग है।
टूरिस्ट गाईड से अपने खुद के गाईड बनने का सफ़र तय करती एक युवा पर आधारित यह फ़िल्म आज भी देखे जाने की योग्यता रखती है और हर अगली पीढ़ी को देखनी ही चाहिए...