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Friday, January 24, 2014

हिमाच्छादित कश्मीर


यूँ तो कश्मीर का सैलानी सीजन मार्च के बाद से ही माना जाता है, मगर लाखों पर्यटक यहाँ स्नोफौल देखने के लिए भी आते हैं. इस साल भी कश्मीर ने अपने इन चाहने वालों को निराश नहीं किया है. रुई के फाहों सी धीमे-धीमे होती हिमकणों की बारिश और देखते ही देखते पूरी वादी को अपने श्वेताभ आगोश में समेट लेना एक अलग सा ही अनुभव है, जिसे शब्दों में सहेज पाना सहज नहीं...

स्नोफौल के कई दौर गुजर चुके हैं और कई अभी आने को हैं. वादियाँ बर्फ की धवल चादर ओढ़ अपने प्रशंसकों के लिए बाहें फैलाये इंतजार कर रही हैं. हिमपात के दृष्टिकोण से स्थानीय लोगों द्वारा इस अवधि को 3 भागों में बांटा गया है. शुरूआती चालीस दिनों की अवधि जो दिसंबर के तीसरे सप्ताह से शुरू होती है ‘चिल्लई कलां’ कहलाती है. यह यहाँ सर्वाधिक हिमपात की अवधि होती है. इसके बाद 20 दिनों की ‘चिल्लई खुर्द’ की अवधि आती है और उसके बाद के 10 दिनों तक ‘चिल्लई बच्चा’ अवधि होती है. ‘कलां’ और ‘खुर्द’ के अर्थ क्रमशः ‘बड़ा’ और ‘छोटा’ होते हैं. इस प्रकार घाटी में हिमपात का यह चक्र पूरा होता है. पारंपरिक काल विभाजन की इस परंपरा पर पर्यावरण के साथ बढ़ रही छेड़-छाड़ का भी असर पड़ रहा है, मगर फिर भी ये घाटियाँ अब भी पर्यटकों की उम्मीद पर खरी तो उतर ही रही हैं.


श्रीनगर, गुलमर्ग, सोनमर्ग, पहलगाम आदि कई जाने-माने पर्यटन स्थलों पर सैलानी प्रकृति के विलक्षण रूप का आनंद उठा रहे हैं. मगर इसके साथ ही जरुरी है कि घाटी के अन्य सुन्दर मगर अनजान से स्थलों को भी पर्यटन के लिहाज से विकसित किया जाये, सड़क और अन्य यात्री सुविधाएं विकसित कर इस राज्य में पर्यटन की अपार संभावनाएं सामने लाई जा सकती हैं. अकस्मात प्रकृति का मिजाज बदलने पर आने वाली परेशानियों से स्थानीय निवासियों और पर्यटकों के त्वरित राहत के लिए सरकारी तंत्र को भी चुस्त-दुरुस्त रहने की जरुरत है. बहरहाल यदि आपने अब तक कश्मीर की सुंदरता को अपनी आँखों से महसूस नहीं किया है तो जल्द ही विचार कीजिये धरती पर बसे इस जन्नत की सैर का.....

Wednesday, January 4, 2012

खजुराहो : गीत गाया पत्थरों ने.....



कई वर्षों से भारत की स्थापत्य कला के उदात्त प्रकटीकरण के इस प्रतीक स्थल के भ्रमण की इच्छा थी जो आख़िरकार 2011 के आखिरी दिन पूरी हो ही गई. 31  दिसंबर और 1 जनवरी की सप्ताहांत छुट्टियों का समुचित उपयोग करते हुए आख़िरकार आनन्-फानन में खजुराहो जाने का कार्यक्रम बन ही गया. 

 चंदेल राजाओं के संरक्षण में मध्यकालीन भारत के इस भाग में कला, शिल्प, साहित्य आदि हर क्षेत्र का समग्र विकास हुआ. लगभग 500  वर्षों तक इस वंश के प्रतापी राजाओं ने अपनी कीर्ति पताका फहराई और उसके सुदीर्घ स्मरण के उद्देश्य से मंदिरों की यह अद्भुत श्रंखला विकसित होती गई. मगर कालांतर में शासक वर्ग की शक्ति क्षीण होते जाने का असर इस विरासत पर भी पड़ा और ये स्मृति पटल से भी विलुप्त होने लगी. मगर इन्हें इनका वाजिब हक़ और सम्मान मिलना अभी शेष था और एक बार फिर यह विस्मृतप्राय विरासत इतिहास की धुल को झाड़ और भी प्रखरता से उभर कर सामने आई. नतीजा आज पूरा विश्व उस युग की भारतीय स्थापत्य कला, संस्कृति, ज्ञान से मंत्रमुग्ध सा है. 

न झटको जुल्फ से पानी.... : स्नान कर आई नायिका और उसके बालों से टपकते पानी को पीता  बत्तख 

इन अवशेषों को इनका सम्मान पुनर्स्थापित करवाने में फ्रेंकलिन जैसे खोजकर्ता, इंजीनियर पी. सी. बर्ट, सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम  और लेखक लेवल ग्रिफिन आदि का उल्लेखनीय योगदान दिया है. वर्तमान में आर्कियोलौजी सर्वे ऑफ इण्डिया की देख-रेख में इस स्थल को काफी सुव्यवस्थित रखा गया है, विशेषकर पश्चिमी परिसर को.

खजुराहो के मंदिर परिसर अमूमन अपनी मैथुन मूर्तियों के लिए ही चर्चा में आते हैं, मगर इनके साथ यहाँ की अन्य कलाकृतियों, स्थापत्य और शिल्प को नजरंदाज करना अनुचित है. मैथुन मूर्तियाँ तो शायद 10  % ही हों यहाँ के अन्य शिल्पों के साथ... और इनके अपने कई प्रतीकात्मक आध्यात्मिक, धार्मिक, तांत्रिक और ऐतिहासिक महत्व भी हैं. मगर यहाँ के अन्य शिल्प भी अतुलनीय हैं.....
मंदिर की बाह्य दीवार पर उत्खनित एक मूर्तिशिल्प जिसका तांत्रिक महत्व भी है 

चंदेल वंश के संस्थापक चंद्र्वर्मन, चंद्रमा के पुत्र माने गए हैं द्वारा एक सिंह को अकेले परास्त करने की मान्यता के कारण इसे ही इस वंश का राजचिह्न की मान्यता प्रदान की गई. 

चंदेल राजचिह्न 
                                                
यहाँ मंदिर मुख्यतः तीन परिसरों में पाए गए हैं-

1 . पूर्वी मंदिर समूह - इनमें ब्रह्मा मंदिर, वामन मंदिर, जवारी मंदिर आदि प्रमुख हैं. 
2 . दक्षिणी मंदिर समूह - दुल्हादेव मंदिर, चतुर्भुज मंदिर आदि.
3 . पश्चिमी मन्दिर समूह (मुख्य परिसर) - चौंसठ योगिनी मंदिर, मतंगेश्वर मन्दिर, वराह मन्दिर, लक्ष्मण   
                                                                 मन्दिर, पार्वती मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर, चित्रगुप्त मन्दिर,   
                                                                 कंदरिया महादेव मन्दिर आदि...

यहाँ भ्रमण के इच्छुक लोगों को यह सुझाव अवश्य दूंगा कि रोज शाम आयोजित होने वाले लाईट एंड साउंड शो में जरुर शामिल हों तथा 'स्लमडॉग गाइड' के बजाये उपलब्ध ऑडियो गाइड्स का उपयोग करें. जो ज्यादा प्रामाणिक और महत्वपूर्ण जानकारी देने में विशेष लाभकारी है. 

धार्मिक पर्यटकों की चिर-परिचित भीड़-भाड़ और व्यवस्थाविहीनता के शिकार अन्य पर्यटन स्थलों (विशेषकर उत्तर भारत के...) से अलग एक सुखद अनुभव एहसास है खजुराहो. कभी अवसर मिले तो अवश्य समय निकालें 'अद्वितीय भारत' की लगभग 1000  वर्ष प्राचीन इस महत्वपूर्ण विरासत के साक्षी बनाने का.....

Thursday, October 20, 2011

जयपुर की शान - राजमंदिर सिनेमा




पिछले दिनों काफी भागम-भाग के बीच रंग और रण की भूमि राजस्थान के जयपुर जाने की अपनी पुरानी इच्छा को साकार करने का मौका मिला. इस संपूर्ण यात्रा पर एक विस्तृत पोस्ट जल्द ही लाने का प्रयास करूँगा, मगर आज चर्चा करूँगा जयपुर की शान और पहचान में से एक ' राजमंदिर सिनेमा ' की. 

यहाँ रिलीज पहली फिल्म थी 'चरस'
भगवान दास रोड पर स्थित 1976 में निर्मित राजमंदिर सिनेमा ' एशिया का गौरव ' भी कहलाता है. आर्किटेक्ट  
W. M. Naamjoshi द्वारा Art Moderne शैली में निर्मित यह सिनेमा हॉल अपनी सुरुचिपूर्ण आंतरिक साज - सज्जा के लिए विश्वप्रसिद्ध है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी.



सिनेमा सहित लगभग हर क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियाँ इस छविगृह में फिल्म देखने का आनंद उठा चुकी हैं. सिनेमा देखने को भी एक अनुभव बना देने वाले इस छविगृह के संबंध में कुछ प्रमुख हस्तियों के विचार, जो वहां सहेजे हुए हैं - 

" It is indeed the Proud of India, and we are Proud of it." - B. R. Chopra
" I wish other exhibitors of India learn from Rajmandir how to exhibit a Film." - Raj Kapoor
"... Undoubtedly the Best Theatre in India." - Yash Chopra 
" What a Wonderful Experience ! "- Amitabh Bacchan 
" दर्शनीय "   - श्री अटल बिहारी वाजपेई 



इसे अपना सौभाग्य ही मानूँगा कि इतने व्यस्त कार्यक्रम में भी यहाँ फिल्म देखने का समय निकाल सका, भले इसके लिए ' रास्कल्स ' से ही निपटना पड़ा, मगर कई बार अच्छे सिनेमा हॉल भी फिल्मों को झेले जाने से बचा ले जाते हैं.


राजमंदिर में फिल्म देखना वाकई अपने-आप में एक अनुभव है, और निश्चित रूप से यहाँ आने पर आपको भी इस अवसर से चूकना नहीं चाहिए.


मैं तो यही कहूँगा कि " जयपुर आये और राजमंदिर में फिल्म न देखे, तो क्या खाक जयपुर आये !!! "

Thursday, September 8, 2011

क्योंकि एक स्वप्न है नैनीताल .....


 


नैनीताल, एक स्वप्निल शहर. प्रकृति की अनमोल विरासत का एक जिवंत दस्तावेज. जाने कब से यहाँ आने के सपने संजो रहा था, मगर किसी न किसी कारण से कार्यक्रम टल ही जा रहा था. और अब जब जाना हुआ भी तो जैसे इम्तहान की घड़ियाँ खत्म होने का नाम ही न ले रही हों. मेरे सारे धैर्य की परीक्षा इसी भ्रमण में ले लेनी हो जैसे. सोमवार की छुट्टियों का उपयोग करने के उद्देश्य से कुछ बैचमेट्स के साथ नैनीताल जाने का कार्यक्रम बना. दोपहर तीन बजे से आरंभ हुआ सफर रात के एक बजे तक मात्र हाइवे तक पहुँच पाने में ही सिमटा रहा. महानगरों की ट्रैफिक व्यवस्था के दबाव की स्थिति में बिखरने का यह एक भयावह उदाहरण था.

                
                                                               सुबह से लेकर शाम तक, शाम से लेकर रात तक...  

खैर रात के नौ की बजाये सुबह के आठ बजे हम हल्द्वानी पहुंचे और थोड़े विश्राम के बाद नैनीताल के लिए रवाना हो गए. थोड़ी ही देर में हमलोग यहाँ की प्रसिद्ध नैनी झील पहुँच गए. पौराणिक मान्यता के अनुसार यह झील सती की बायीं आँख के गिरने से निर्मित हुई है. इसके पार्श्व में ही श्रद्धा व आस्था का केन्द्र माँ नैना देवी का मंदिर भी है. अपनी पसंदीदा लेखिका शिवानी की कई कहानियों में वर्णित यह स्थल, यहाँ के मंदिर और मन्नत के प्रतीक घंटियों तथा चुनरियों को प्रत्यक्ष देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था.  

                                      

मुख्य नैनीताल इसी झील के आस-पास का ही भाग है. जहाँ माल रोड, तिब्बत मार्केट आदि स्थित हैं. मगर यही असली नैनीताल नहीं है. यह तो मात्र एक एड है टूरिस्ट्स के लिए. जो नैनीताल घूमने आते हैं, समझने आते हैं और अपनी यादों में संजोने आते हैं उनके लिए तो असली नैनीताल इस भीड़-भाड़ से परे है. यहाँ आये हों, तो यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता को निहारें, पुरानी इमारतों की विशिष्ट बनावट और साज-सज्जा पर गौर करें, ब्रिटिश और भारतीय पर्वतीय परंपराओं के संजोग से विकसित एक नई संरचना को महसूस करें. और निश्चित रूप से यह आप या तो अकेले कर सकते हैं या चंद ऐसे ही समानमना मित्रों के समूह के साथ.




मेरा दृढ रूप से मानना है कि इन पहाड़ी स्थलों का वास्तविक आनंद टूरिस्ट बनकर सिर्फ़ नौका विहार और मॉल में मार्केटिंग करने से ही नहीं उठाया जा सकता. पहाड़ों के साथ एक आत्मीयता विकसित कर ही हम इनका वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकते हैं. पर्यटकों की भीड़-भाड़ और उसमें खो सी गई स्थानीय आबादी और उसकी विशिष्ट संस्कृति को देख मुझे वाकई महसूस हुआ कि पर्यटन के नाम पर हम इन राज्यों के स्वाभाविक स्वरुप को विकृत तो नहीं कर रहे. अच्छा हो हम इन्हें अपनी सुविधा से मोडिफाईड करने का मोह त्याग कर इन्हें इनके स्वाभाविक रूप में ही स्वीकार करें.

और अगर अगली बार कभी नैनीताल जायें तो इन स्थानों को देखने का भी प्रयास अवश्य करें – 

और चलते -चलते आपको छोड़े जाता हूँ एक खुबसूरत गीत के साथ जिसे नैनीताल में ही फिल्माया गया है - 
संजोग से आज आशा भोंसले जी का जन्मदिन भी है, शुभकामनाएं.


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