Monday, September 14, 2009

ब्लौगर्स देख लो मिट गईं दूरियां ...

(हिंदी दिवस विशेष)

मैं  यहाँ-हूँ यहाँ...जी हाँ अरुणाचल से ब्लौगिंग में वापस. और दूरियां वाकई कम हो गई हैं न सिर्फ मेरे और ब्लौगिंग के बीच, बल्कि हिंदी के ह्रदय प्रदेश से संबद्ध मैं और इस सुदूर उत्तर-पूर्व क्षेत्र के बीच भी. लगभग 1 सप्ताह से गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही हूँ, मगर भाषा को लेकर कोई विशेष समस्या नहीं पाई है. अपनी लचीली शैली में हिंदी यहाँ भी पूरी शान से विद्यमान है. गोहाटी से काफी दूरी तक तो 'विविध भारती' का भी साथ रहा, अलबत्ता यहाँ इससे संपर्क कायम नहीं हो सका है.

ऐसे में क्या यह स्वीकार करने के लिए किसी औपचारिक दिवस की प्रासंगिकता का कोई औचित्य है कि -
"हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा..."

हाँ इतना जरुर कहूँगा कि व्यक्तिगत स्तर पर मैंने पाया है कि बहुतया हिंदी भाषी क्षेत्र अपने - आप में ही एक आत्ममुग्धता में रहते हैं, और अन्य भाषा तथा भाषियों के प्रति सामान्यतः एक उपहास तथा उपेक्षा सा भाव रखते हैं. अक्सर यही प्रवृत्ति विवादों का आधार बनती है और संकीर्ण राजनीति के बाजीगर इसका लाभ उठाकर 'राज' करते हैं.

तो आइये क्यों न हम भी प्रयास करें हिंदी के अलावे कम-से-कम एक क्षेत्रीय भाषा की कम-चलाऊ जानकारी का ही सही. यही प्रयास तो मूल होगा भारत की वास्तविक एकता का. क्योंकि यदि हम देशवासी एक-दुसरे की बोली ही नहीं समझेंगे तो गलतफहमियां और मनभेद तो होंगे ही.

यहाँ के अपने अनुभव आगे भी बांटूंगा और विश्वास करता हूँ कि वे सभी अपने - आप में एक 'धरोहर' ही होंगे.

साथ ही आप सभी ब्लौगर्स से एक रियायत देने का अनुरोध भी करूँगा. वो यह कि इन्टरनेट की सुविधा और उसकी परिस्थितियों के अनुरूप संभव है आगामी पोस्ट्स में कभी रोमन हिंदी का प्रयोग भी करना पड़े. हिंदी की अभिव्यक्ति के लचीलेपन की इस सुविधा का लाभ उठाते हुए यथासंभव आपतक इस सुदूर प्रान्त के अनुभव पहुँचाने का प्रयास करता रहूँगा.

शुभकामनाएं.

Wednesday, September 9, 2009

ये मेरा दिवानापन है, या...

अब इसे ब्लॉग्गिंग का जुनून कह लीजिये, या मन का फितूर. सुबह से ट्रेन का इन्तेजार करता, अब जब ट्रेन के 4 घंटे लेट होने की सूचना पाई तो आस-पास कैफे ढूंढने से खुद को रोक नहीं पाया। इसी बीच देव साहब की फिल्मों की कुछ क्लासिक collection भी मिल गई है, जो आशा है अरुणाचल में काफी साथ देंगीं. तसल्ली की बात यह है की वहां इन्टरनेट की uplabdhata की सूचना मिली है, albatta यह बात digar है की इसका rate 50 ru . / घंटे है. अब वहां पहुँच कर आगे की daastan bayan करने की कोशिश karunga . तब तक के लिए enjoy blouging।

(tatkalik internet suvidha के sucharu रूप से काम न कर pane के लिए हुई asuvidha के लिए खेद है। )

Wednesday, September 2, 2009

ये रातें, ये मौसम....और बस डकैती

हम छात्रों के बीच अक्सर मजाक में यह कहा जाता है कि BHU में एड्मीसन और माईग्रेशन दोनों ही काफी कठिन हैं। ढेरों फॉर्मेलिटीज़ से गुजरते हुए आपके पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम में थोडा बदलाव तो हो ही जाता है। मेरा भी 30 अगस्त का निर्धारित कार्यक्रम 1 सितम्बर तक एक्सटेंड हो गया। इस बीच पूरी शोध बिरादरी और मित्रों से भावुकतापूर्ण मुलाकातों के दौर भी चले। BHU के इन दिनों और माहौल की यादें जो कभी भुला नहीं पाउँगा को दिल में संजोये बस से ही हजारीबाग के लिए चल पड़ा।
रास्ते में दिखलाई देते विश्वनाथ मंदिर (BHU), माँ गंगा के नयनाभिराम दृश्यों को आँखों में भरता सफ़र बढ़ता जा रहा था; तभी इस रोमांटिक, इमोशनल कहानी का एक्शनमय क्लाइमेक्स जो अब तक बाकी था आ गया।
झाड़खंड का काफी क्षेत्र जंगलों और पहाडों से भरा-पूरा है,जो आपराधिक तत्वों के लिए काफी सुविधाजनक पनाहगार का काम देते हैं। गरीबी, बेरोजगारी और पैसे कमाने के शार्टकट में दिग्भ्रमित नौजवान अपराध की ओर भी उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे ही चंद आपराधिक तत्वों का एक समूह हमारी बस में भी कल रात घुस आया। तारीफकरनी होगी उनकी आत्मसंयम और कार्यशैली की! बिना किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचाए, बिना ज्यादा समय गंवाए काफी प्रभावशाली ढंग से रुपये और मोबाइल छीन उन्होंने बस को मुक्त कर दिया। इस क्रम में सड़क पर से गुजरते कुछ ट्रक भी उनके शिकार बने।
आम आदमी से जुड़े इस क्लाइमेक्स में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण तत्त्व की भूमिका की तो कोई गुंजाईश नहीं थी; इसीलिए थोडा दिन निकलने पर अपने सुरक्षित जोन में पुलिस के मिलने पर सवारियों ने निःशब्द प्रतिरोध ही दर्ज कराया। अन्दर से तो वे उन अपराधियों के शुक्रगुजार ही थे कि इस निरीह, असहाय जनता के साथ उन्होंने कोई और बदसलूकी नहीं की (जिससे उन्हें भला रोक भी कौन सकता था !)।
सभी शुभचिंतकों की शुभकामनाओं और दुआओं के साथ मैं भी अभी सानंद अपने घर पर हूँ , जहाँ से कुछ दिनों में अगली यात्रा की ओर रवाना होऊंगा।
मेरे भी बस थोड़े पैसे ही गए हैं और महत्वपूर्ण सामान और कागजात सुरक्षित हैं।
मेरे जीवन के इस पहले अनुभव ने आगे आने वाले सफ़र के लिए थोडी और परिपक्वता भी दी है।
इस परिपक्वता को एक सुझाव के रूप में इन पंक्तिओं में व्यक्त कर रहा हूँ -
साईं इतना दीजिये, कि जब बुरा वक्त आये;
डकैत भी खाली न रहे, पास थोड़े पैसे भी बच जायें।
(इस यात्रा वृत्तान्त के साथ पहली बार नीरज मुसाफिर जी को चुनौती पेश कर रहा हूँ. मगर मेरी यही कामना है कि अन्य किसी भी ब्लौगर को ऐसे यात्रा - संस्मरण लिखने की नौबत न आये। )
शुभकामनाएं।
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