Saturday, November 2, 2019

‘केरवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय…’: छठ पर्व पर विंध्यवासिनी देवी जी की याद


सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर और फिर आशा भोंसले की तरह ही भोजपुरी लोकगीतों में कोई नाम याद करें तो वो विंध्यवासिनी देवी जी और शारदा सिन्हा जी का होगा। आज की भीड़ में शारदा सिन्हा जी भले अपनी अलग पहचान लिए खड़ी दिखती हों, विंध्यवासिनी देवी की याद कम ही की जाती है। मगर छठ जैसे अवसर जो मिट्टी से जुड़े हैं और पहली बारिश में मिट्टी की खुशबू से सांसों में बसे रहते हैं पर उनके स्वर उसी खुशबू का एहसास दिलाते हैं। 

पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी का जन्म 5 मार्च, 1920 को नाना चतुर्भुज सहाय के घर मुजफ्फरपुर में हुआ था। उनके पिता जगत बहादुर प्रसाद थे, जो रोहतर, नेपाल के रहनेवाले थे। परिवार के सभी लोग धार्मिक प्रवृत्ति के थे, जिसका प्रभाव विंध्यवासिनी देवी पर भी पड़ा।  उनका विवाह मात्र 14 वर्ष की उम्र में हो गया था। एक घटना ने उनके जीवन ही नहीं भोजपुरी लोकगीतों के क्षेत्र में भी बड़ा परिवर्तन ला दिया। कभी किसी आयोजन में एक अन्य राज्य के व्यक्ति ने यह कह दिया कि बिहार के लोग सिर्फ खाना जानते है गाना नहीं। इस घटना ने विंध्यवासिनी देवी को अंदर तक झकझोर दिया जिसके बाद उन्होंने ठान लिया कि वो गाना गाएंगीं। उनके पति सहवेश्वर चंद्र वर्मा उनके प्रथम संगीत के गुरु बने। श्री क्षितेश चंद्र वर्मा से भी उन्होंने संगीत की विद्या ग्रहण की। 
विंध्यवासिनी देवी ने मैथिली, भोजपुरी, मगही सहित कई क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी गायन कला प्रदर्शित की और विश्व स्तर पर बिहार की हर भाषा को उन्होंने एक नई पहचान दिलायी। उन्होंने शादी-विवाह ,छठ गीतों के अलावा कई तरह के गीतों को गाया जो काफी प्रसिद्ध हुए। विंध्यवासिनी देवी ने ऑल इंडिया रेडियो, पटना में लोक संगीत के निर्माता के रूप में भी कार्य किया और इस क्षेत्र के उत्थान के लिए उन्होंने विंध्य कला मंदिर नामक संगीत संस्था की स्थापना की, जो भातखण्डे यूनिवर्सिटी लखनऊ से अंगीकृत है।

लोकगीतों के प्रति उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि भी प्रदान की। संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा अहिल्याबाई सम्मान आदि से भी उन्हें सम्मानित किया गई।

उन्होंने लोक संगीत रूपक और लोक नाट्य की रचना ही नहीं की, उनका निर्देशन भी किया। 1962-63 में पहली मगही फिल्म 'भइया' में संगीत निर्देशक चित्रगुप्त के निर्देशन में उन्होंने स्वर दिया। मैथिली फिल्म कन्यादान, छठ मइया, विमाता में डोमकच झिंझिया की लोक प्रस्तुति से काफी ख्याति पाई।


'गरजे-बरसे रे बदरवा', 'हरि मधुबनवा छाया रे...', 'हमसे राजा बिदेसी जन बोल...', 'हम साड़ी ना पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा द...' जैसे कई गीत उनकी पहचान के रूप में आज भी कई लोकगीत प्रेमियों की स्मृति में ताजा हैं।  उन्होंने लोकसंगीत को जिंदगी की आखिरी बेला तक रचाये-बसाये रखा।

18 अप्रैल 2006 को पटना के कंकड़बाग में स्थित उनके आवास पर विंध्यवासिनी देवी का 86 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 

आज जब भोजपुरी लोकसंगीत अपसंस्कृति और अश्लीलता के विभिन्न आरोपों से लगातार घिरता जा रहा है, ऐसे ध्रुवतारों की रोशनी अभी भी राह दिखा सकती है...

(स्रोत इंटरनेट पर उपलब्धविभिन्न सामग्री)

Tuesday, September 3, 2019

गर्दिश में तारे: नाटक समीक्षा


                                   
     
सैफ हैदर हसन जो इससे पहले अमृता प्रीतम-साहिर पर आधारित 'एक मुलाक़ात' नाटक का निर्माण कर चुके हैं- लिखित और निर्देशित तथा आरिफ़ ज़कारिया-सोनाली कुलकर्णी अभिनीत ‘गर्दिश में तारे' नाटक यूँ तो गुरुदत्त और गीता दत्त की जिंदगी से प्रेरित कहा गया है, परंतु यह कहानी किसी की भी हो सकती है; शायद इसीलिए पात्रों के नाम 'देव' और 'भावना' रख दिये गए हैं। गुरुदत्त और वहीदा के बारे में कई बातें कहीं जाती रही हैं। नाटक से उम्मीद थी कि कुछ इसपर और स्पष्ट होगा। गुरुदत्त और गीता दत्त के आपसी संबंध के बारे में कुछ जाने को मिलेगा या शायद कुछ खास गीता दत्त के बारे में ही। नाटक उस दौर को उभारने में काफी हद तक सफल होता है, बैकग्राउंड संगीत, सेट आदि के माध्यम से, चिट्ठियों के माध्यम से उस दौर के गौसीप की चर्चा कर, राज कपूर के साथ सत्यजित रे की 'पाथेर पांचाली' देख हतप्रभ रह जाने का जिक्र कर या दिलीप कुमार के पैसों की बात हो जाने पर भी गुरुदत्त की फिल्म की शूटिंग को न आने का उल्लेख कर... मगर जिस उत्सुकता को लेकर दर्शक इसे देखने गए हैं उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता।

                   

गुरुदत्त Hyper Sensitive और Extra Introvert व्यक्तित्व हैं यह तो लोग जानते ही हैं, पर उनकी मानसिक व्यथा के कारणों की तह तक नहीं जाता नाटक। मात्र सरसरी निगाह ही दौड़ाता है- एक दृश्य में वहीदा की उपस्थिति की तरह जिसमें उसके अन्य निर्देशकों की फिल्मों में भी काम करने की इच्छा पर बात हो रही है। भावना के कैरियर के प्रति लगाव, बच्चों पर ध्यान देने का देव का आग्रह के साथ उसके व्यवहार में भी प्रेम की तलाश इस तरह दिखाई गई है कि शुरुआती दृश्य में देव की आत्महत्या की जाँच करने आए पुलिस वाले से ही उसे फ़्लर्ट करते दिखाया जाता है और एक जगह देव के मित्र लेखक से प्रेम का भी।

                         


घरेलू परेशानियाँ, फिल्मों की असफलता, तनाव के साथ अत्यधिक संवेदनशीलता ही देव के लिए प्राणघातक हो गई! ज्यादा संवेदनशीलता भी नुकसानदायक होती है। थोड़ा इंतजार करते तो वक्त बदलता ही, पिछली कई फिल्मों की तरह अगली कई फिल्में भी सफल होतीं, नई जिम्मेदारियाँ आतीं... वक्त बदल जाता... पर इन दोनों वक्त के दरम्यान किसी भी रूप में एक झूठा-सच्चा सहारा भी चाहिए होता है जो उन्हें न मिल सका। काश ऐसा हो पाया होता!
वर्ना वहीदा की व्यवहार कुशल टिप्पणी तो है ही कि-

‘गुरु दत्त को कोई नहीं बचा सकता था, ऊपरवाले ने उन्हें सबकुछ दिया था पर संतुष्टि नहीं दी थी। कुछ लोग कभी भी संतुष्ट नहीं रह सकते, जो चीज उन्हें जिंदगी नहीं दे पाती उसकी तलाश उन्हें मौत से होती है। उनमें बचने की चाह नहीं थी। मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक जिन्दगी में सबकुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं है।



गर्दिश के दिन तो आते-जाते ही रहते हैं, पर इनमें ऐसे सितारे खो न जाएँ यही कामना रहती है...

Thursday, August 1, 2019

जन्मशती पर पुण्य स्मृति: स्व. मोती लाल बीए


आज भोजपुरी भाषा, भोजपुरी फिल्में, भोजपुरी गीत अपने संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। जिन चेहरों और आवाजों को इसका नायक समझ लिया गया है व्यवसाय की अंधी दौड़ में उन्होंने इस मीठी भाषा से जुड़ी भावनाओं का दोहन ही किया है। ये लोग अपने उन महान पुरखों को याद भले न करें या शायद जानते भी न हों, परंतु इसके इतिहास को उठाकर देखें तो ऐसे नाम भी मिलेंगे जिन्होंने इसकी विशेषताओं को राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। ऐसे ही अग्रपुरुषों में एक महत्वपूर्ण नाम है मोती लाल बीए जी का। देवरिया जिले के बरहज तहसील क्षेत्र के ग्राम बरेजी में पंडित राधाकृष्ण उपाध्याय के यहां एक अगस्त 1919 को मोतीलाल उपाध्याय का जन्म हुआ। 1934 में बरहज के किंग जार्ज कालेज से हाई स्कूल, गोरखपुर के नाथ चन्द्रवात इंटर कालेज से इंटर की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने 1939 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और इसके पस्ग्चत पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गये। इस दौरान उन्होंने विभिन्न हिन्दी समाचार पत्रों अग्रगामी’, आज, आर्यावर्त, संसार आदि पत्रों में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य किया।

साहित्य से जुड़ाव :

पत्रकारिता में तो वे स्नातक के बाद आए मगर कविता में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। अपनी मनपसंद कविताओं को वे ज़बानी याद कर लेते थे। फिर उन्होंने खुद कविताएं लिखनी भी शुरू कर दीं। कालेज के दिनों में अंग्रेजी प्रवक्ता मदन मोहन वर्मा प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा जी के अनुज थे। उनकी प्रेरणा से महादेवी वर्मा की काव्य रचनाओं को देखकर मोतीजी भी कविता और साहित्य से और गंभीरता से जुड़े। 16 साल की उम्र में पहली बार उनकी कविता दैनिक आज में प्रकाशित हुई। जिसके बोल थे "बिखरा दो ना अनमोल- अरि सखि घूंघट के पट खोल"। यूँ तो एमए की डिग्री उन्होंने आजादी के पूर्व ही प्राप्त कर ली थी, मगर बीए करने तक वे कवि सम्मेलनों में एक अच्छे कवि के रूप में अपनी छवि बना चुके थे। अब उन्होंने अपने नाम के आगे बीए लगाना शुरू कर दिया और मोती बीए के रूप में प्रसिद्ध हो गए। शायद तभी उन्होंने अपने परिचय में लिखा था- कहने को एम़ ए़, बी़ टी़, साहित्य रत्न सदनाम, लेकिन पहली ही डिग्री पर दुनिया में बदनाम

भोजपुरी के शेक्सपियर

साहित्य सृजन में अपनी उल्लेखनीय भूमिका के लिए उन्हें भोजपुरी के शेक्सपियरके रूप में भी याद किया जाता है। उन्होंने शेक्सपियर के सानेट्स (sonnets) का हिंदी में सानेट्स की शैली में ही अनुवाद किया। कालीदास के मेघदूत और अब्राहम लिंकन की जीवनी का भोजपुरी में अनुवाद किया। हिंदी और भोजपुरी की कई पुस्तकों के अलावा उर्दू में शायरी के तीन संग्रह रश्के गुहर’, ‘दर्दे गुहरऔर तिनका-तिनका शबनम-शबनम की रचना की।

स्वाधीनता संग्राम में योगदान

वह दौर जंगे आज़ादी का था। लोग जिस रूप में भी संभव हो सकता था इस लड़ाई में अपना योगदान दे रहे थे। मोती जी भी इस लड़ाई में पीछे न रहे। वो भोजपुरी भाषा में क्रांतिकारी गीत लिख लोगों को सुनाया करते थे। उसी दौर का उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ-

'भोजपुरियन के हे भइया का समझेला
खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा दिहे सा
तोहरी चरखा पढ़वले में का धईल बा
तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा दिये सा'

धीरे-धीरे मोती जी की सक्रियता कलम के सहारे क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी। सन् 1939 से 1943 तक "अग्रगामी संसार" तथा "आर्यावर्त" जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में कार्य के दौरान राष्ट्रीय विचारों एवं उससे जुड़े लेखन के चलते गोरखपुर तथा बनारस में जेल भी जाना पड़ा। 1943 में वे दो महीने की सज़ा काट कर जेल से रिहा किये गए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज वाराणसी में दाखिला ले लिया।

सिनेमा से जुड़ाव  

जनवरी 1944 में वाराणसी में हुए एक कवि सम्मेलन में पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था के निर्देशक रवि दवे ने उनकी काव्य प्रस्तुति सुनी। उनका गीत "रूप भार से लदी तू चली" उन्हें बहुत पसंद आया और उन्होंने मोती जी को फिल्मों में गीत लिखने के लिये निमंत्रण दिया। मोती जी तुरंत तो इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं कर पाए लेकिन 1945 में पुनः गिरफ्तारी के बाद रिहा होने पर रोजगार की तलाश में वो लाहौर पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था में जा पहुँचे। उन्होंने संस्था के मालिक दलसुख पंचोली से मुलाक़ात की और 300 रूपए मासिक वेतन पर गीतकार के रूप में नियुक्त हो गए।

उनकी पहली फ़िल्म थी "कैसे कहूं"। इसमें मोती जी ने पांच गीत लिखे। इसके बाद किशोर साहू निर्देशित और दिलीप कुमार अभिनीत फ़िल्म 'नदिया के पार'(1948) में सात गीत मोती बीए ने लिखे। इस फ़िल्म के गीतों ने उन्हें सारे देश में चर्चित कर दिया। इसका एक गीत 'मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार" काफी प्रसिद्ध हुआ। इस फिल्म के माध्यम से पहली बार भोजपुरी हिंदी फ़िल्मों में प्रमुखता से शामिल हुई थी। 'कठवा के नइया बनइहे रे मलहवा' बालीवुड का पहला भोजपुरी गीत है।

इसके बाद उनकी कलम से कई यादगार भोजपुरी गीत निकले। उनकी प्रमुख फिल्मों में सुभद्रा (1946), ‘भक्त ध्रुव (1947), ‘सुरेखा हरण (1947), ‘सिंदूर (1947), ‘साजन (1947), ‘रामबान (1948), राम विवाह (1949), और  ममता (1952) आदि रहीं।

मगर एक साहित्यधर्मी व्यक्ति फिल्मी परिवेश में संतुष्ट महसूस नहीं कर पा रहा था। इस कारण वो वापस लौट आए और देवरिया के श्रीकृष्ण इंटरमीडियेट कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता के रूप में पढ़ाने लगे।

कुछ सालों बाद जब चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन, सुजीत कुमार और कुछ अन्य कलाकारों ने भोजपुरी फ़िल्मों के निर्माण की गति को तेज़ किया तो उन्होंने मोती बीए को फिर याद किया।

इसके बाद उन्होंने कई भोजपूरी फ़िल्मों जैसे ठकुराइन (1984), गजब भइले रामा (1984), चंपा चमेली (1985) आदि में गीत लिखे। 1984 में प्रदर्शित गजब भइले रामा में उन्होंने अभिनय भी किया। यह अंतिम फ़िल्म थी, जिससे मोती जी किसी रूप में जुड़े।

मोती बीए जी जीवन के अंतिम क्षण तक हिन्दी और भोजपुरी को समृद्ध करने में सक्रिय रहे। उन्होंने प्रचलित विधा हाइकु को भोजपुरी अंदाज भी दिया। इसे उन्होंने छिंउकी नाम दिया। 90 वर्ष की अवस्था में मोती बीए जी का 18 जनवरी 2009 का स्वर्गवास हो गया।

उनकी कुछ छिंउकी और कविता की कुछ पंक्तियों के साथ उनकी जन्मशती पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं-
  1. भीत भहराए
छान्‍ही चुए
लइका सुताईं कहाँ !

  1. जाँते में झींकि
लिलारे पसेना
आजु रोटी मिली

  1. पानी छितराए
अरार टूटे
मन डूबे-डूबे

उनकी एक रचना जिसमें एक दु:खी हृदय वाले व्यक्ति की वेदना है-

हमरे मन में दुका भइल बाटे
चोर कवनो लुका गइल बाटे
कुछ चोरइबो करी त का पाई
दर्द से दिल भरल पुरल बाटे

आँखि के लोरि गिर रहल ढर ढर
फूल कवनो कहीं झरल बाटे

सुधा ढरकि गइल त का बिगड़ल
हमके पीए के जब गरल बाटे
दर्द दिल के मिटे के जब नइखे
चोर झुठहू लगल - बझल बाटे

(स्रोत: अखबारों और विकिपीडिया की सामग्री)

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