Wednesday, June 29, 2011

मेरा गाँव – मेरा देश




गर्मी की छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं. शहरों में बसा मध्यवर्ग किसी-न-किसी बहाने अपने गाँव का एक चक्कर लगा चुका है, जो नहीं लगा सके हैं वो - विशेषकर महिलाएं सावन में नैहर जाने के बहाने ही सही गाँव हो आने के लिए आतुर ही हैं. जो किसी कारणवश अभी छुट गए हैं, उनके लिए चंद महीनों में ही पूजा का दौर शुरू होने वाला है. कोई पूछे कि गाँवों में ऐसा क्या है – तो झट जवाब होगा, पेड़ों पर आम पक आये होंगे, खेतों में धान तैयार हो गई होगी आदि-आदि. ये चीजें ऐसी नहीं जो शहर में मयस्सर न हों, मगर इनके पीछे मुख्य तत्व वो भावनाएं हैं जो आर्थिक पहलु नहीं देखतीं. कहीं-न-कहीं गाँव की मिट्टी की कसक है जो आम हिन्दुस्तानी को कसोटती हैं – खींचती हैं. मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व बोकारो स्टील सिटी जैसे औद्योगिक शहर में जब एक व्यक्ति ने अपने मकान के पास स्थित मैदान में धान रोपवाई थी तो वह स्थानीय जनता के आकर्षण का एक केन्द्र बन गई थी. J

मगर गाँवों की भावना / संवेदना में छुपी तस्वीर यथार्थ में भी दिखाई देती है ! अफ़सोस है कि शहरों की चकाचौंध से विचलित होते गाँव अपनी स्वाभाविकता खो रहे हैं. मौलिक गाँवों से अलग वो एक कस्बे की शक्ल लेते जा रहे हैं. पढ़े-लिखे युवाओं के पलायन ने गाँवों को विद्या और शक्ति से भी विहीन कर दिया है. उसपर से सरकारी योजनाओं के मकडजाल ने ग्रामीण जनता को भी अकर्मण्य कर दिया है. शिक्षा, स्वास्थय, रोजगार, विकास किसी भी मसले पर स्वयंसेवा की जगह मुफ्त की सरकारी बैसाखी की बाट जोहती फिर रही है ग्रामीण आबादी. कुछ समय पूर्व बी. एच. यू. में अपनी एक सीनियर के साथ वाटर सैम्पल लेने सोनभद्र (उप्र) गया था, जहाँ ग्रामीणों से जल प्रदूषण के उनके स्वास्थय पर प्रभाव के संबंध में भी जानकारी लेनी थी. लगभग सभी ग्रामीण हमसे किसी सरकारी योजना के अंतर्गत मुफ्त दवा वितरण की उम्मीद में अपने कष्टों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाने को ही ज्यादा उत्सुक दिखे.

गाँव हजारों वर्ष पुरानी हमारी सभ्यता के क्रमिक विकास के प्रतीक चिह्न हैं. पश्चिमी प्रभाव से महानगरीय संस्कृति का अतिक्रमण आज विकास का मॉडल माना जा रहा है, मगर गाँव हमारे स्वाभाविक विकास का आधार हैं, इसीलिए देश की मिट्टी से जुड़े मनीषियों ने भारत माता को ‘ग्रामवासिनी’ माना, गांधीजी ने ‘ग्रामस्वराज’ की अवधारणा रखी. वो गाँवों को स्वावलंबी देखना चाहते थे, अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर और इसी आधार पर दूसरे ग्रामों से स्थापित संबंध. इस प्रक्रिया के आधार पर ही एक मजबूत भारत की नींव रखी जाती.

अब भी समय है कि अपने आधार को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किये जायें अन्यथा खोखली, दीमक लगी बुनियाद पर तथाकथित समृद्धि और प्रगति की मेट्रोपोलिटन ईमारत 
कभी भी ध्वस्त हो जायेगी. 

चलते-चलते प्रेमचन्द के ‘गोदान’ पर आधारित इस क्लासिक फिल्म से मिट्टी की खुशबू लिए यह गीत - जिसे फिल्माया गया है महमूद पर, गायक हैं रफ़ी साहब और संगीत दिया है - प्रख्यात संगीतज्ञ पं. रविशंकर ने.  ( जो किसी कारणवश यहाँ डाउनलोड न हो सका).
यदि किसी कारणवश इस लिंक का वीडियो पूर्णतः न खुले तो इस लिंक को ट्राई कर लीजियेगा. 


Sunday, June 26, 2011

संडे, देव साहब और 'यही तो हैं वो'.....


आज रविवारीय मूड में यादों के गलियारों से कहीं से आ भटके एक गीत को आपसे साझा करने का दिल किया. 
1958 में प्रदर्शित हुई देव आनंद - वहीदा रहमान अभिनीत  रफ़ी - हेमंत दा के मधुर गीतों और सचिन देव बर्मन साहब के सुमधुर संगीत से सजी राज खोसला निर्देशित फिल्म 'सोलवां साल'  आज भी याद की जाती है. यहाँ यह भी उल्लेख कर दूँ कि इसे हॉलीवुड की ' इट हैपेंड वन नाईट' (1934) से भी प्रभावित माना जाता है, जिससे बौलीवुड की 'चोरी-चोरी' (1956) और 'दिल है कि मानता नहीं' (1991) भी प्रेरित मानी जाती हैं. 

देव आनंद-वहीदा की जोड़ी ने इंडस्ट्री को कई यादगार फिल्में दी हैं, जिनमें से यह भी एक है. तो आइये सुनें यह गीत जिसमें देवसाहब अपनी 'वो' का तार्रुफ करा रहे हैं.



'है अपना दिल तो आवारा' तो आप सभी ने सुना होगा, मगर क्या उसका यह सैड प्रारूप भी सुना है आपने ! 




Sunday, June 19, 2011

'टू स्टेट्स' – When North Met South

एक विवाह संस्मरण 

एक-दूजे के लिए

शादियों का मौसम चल रहा है और एक-एक कर मेरे भी कुंआरे मित्रों की संख्या घटती जा रही है. जिंदगी के इस अनिवार्यप्राय हादसे के हालिया शिकार हुए हैं मेरे एक अजीज मित्र – आशीष सिंह जिनसे मेरा पहला परिचय बी. एच. यू. में ही हुआ. हमारे बैच से वि. वि. को शायद कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं थीं, इसलिए हमारे पहुँचते ही स्नातकोत्तर कक्षाओं में सेमेस्टर सिस्टम लागू कर दिया गया, इस एकेडेमिक आक्रमण से जूझने में हमारे बैच ने पुरे भारतीय अंदाज में ‘अनेकता में एकता’ का परिचय दिया, और शायद यह भी एक कारण रहा अलग-अलग रुझान के लोगों को भी एक-दूसरे से जोड़ने का.

दोस्तों के मामले में मैं काफी चूजी हूँ. दोस्ती का अगर कुछ क्रिटेरिया रहता हो तो पता नहीं हम इसे फुलफिल करते हैं या नहीं मगर दो बिलकुल विपरीत प्रकृति के व्यक्तियों में यदि ऐसा कुछ रिश्ता बना है तो वाकई दोस्ती भी एक पहेली ही है जिसे सुलझाना आसान नहीं. एक तरफ मैं अंतर्मुखी, 'अकेला-अपनी धुन में मगन' रहने वाला प्राणी, तो दूसरी ओर वो – जो शायद खाना ना मिले तो कोई फर्क नहीं; मगर आस-पास दोस्तों की भीड़ ना हो तो शायद जिसका दम ही घुट जाये.  

खैर आशीष सिंह, जिसे हम सभी ‘नवाब’ के नाम से पुकारते हैं (एक तो लखनऊ से होने और दूसरे उनकी कुछ नवाबी नफासत की वजह से भी) की विवाह गाथा भी कम दिलचस्प नहीं है. ‘टू स्टेट्स’ की कहानी की जिवंत उदाहरण इस जोड़ी ने न सिर्फ अपने प्रेम को परवान चढ़ाने में लंबा समय लिया, बल्कि अपने-अपने परिवारों में इस रिश्ते की सहमति बनाने की समानांतर प्रक्रिया भी जारी रखी. लखनऊ के आशीष और तमिलनाडु की कविता की प्रथम मुलाकात नौर्थ और साऊथ को जोड़ने वाले हैदराबाद के नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में ही होना मुनासिब थी. इनकी रोचक लव स्टोरी आप यहाँ भी विस्तार से पढ़ सकते हैं.
लकड़ी की काठी, काठी पे ........

आज आशीष एक बहुराष्ट्रीय कंपनी सिस्मिक माइक्रो टेक्नोलॉजी इंक में अकाउंट मैनेजर हैं और भाभी कविता ओ. एन. जी. सी. में जिओफिजिसिस्त (Geophysicist) हैं.

Team NGRI
7 जून को इनका विवाह दिल्ली से संपन्न हुआ और जैसी कि अपेक्षा थी यह सिर्फ आशीष की शादी में ही संभव हो सकता था कि अलग-अलग कोनों में बिखरे हुए मित्र फिर एक बार एकत्रित हो सकें.
मित्रों के साथ:  कोई बंगाल से-कोई गुजरात से.....


विवाह स्थल की साज-सज्जा काफी आकर्षक थी और खान-पान की तो पूछिए ही मत - लोग कन्फ्यूज थे कि उत्तर भारतीय व्यंजनों का लुत्फ़ लें या द. भारतीय व्यंजनों की ओर जायें. विवाह में उत्तर और दक्षिण की परंपराओं को एकसाथ संपन्न होते देखना भी एक अपूर्व अनुभव था.
इस रस्म का नाम तो पता नहीं चला, मगर नवाब साहब को शादी से पहले ही नाक रगड़ने का प्रशिक्षण तो मिल ही गया.

अपने प्रोफेशन की विवशताओं से आबद्ध मेरे लिए यह एक सुयोग ही था कि अपने कुछ अजीजों की शादी में शरीक होने का अवसर मिल गया, वर्ना “ कल हम कहाँ, तुम कहाँ ! ”

खैर, नवाब साहब से अबतक तो शिकायत थी कि उनकी साहित्य में कोई दिलचस्पी नहीं मगर जब अब उनकी जिंदगी में अगले सात जन्मों तक ‘कविता’ आ ही गई है तो आशा है अब इनमें भी कवित्व के कुछ लक्षण प्रकट होंगे और दोनों मिलकर अब कुछ नए ‘छंद’ की भी ‘सृष्टि’ करेंगे.
My Imagination : Mr. & Mrs. Singh - Few Years Later :-)


नव दंपत्ति को सफल और सुखद वैवाहिक जीवन की हार्दिक शुभकामनाएं. 

Saturday, June 4, 2011

एक विवाह संस्मरण


आँखों में झलकते भविष्य के सपने 
 छात्र जीवन का एक अविस्मरणीय अरसा बनारस में बिताये होने के दौरान से ही उससे गहरी आत्मीयता महसूस करता हूँ. क्यों पता नहीं. मगर ऐसी ही आत्मीयता कुछ ऐसे व्यक्तियों से भी हो जाती है, जिसके पीछे कोई तर्क कार्य नहीं करता, बस एक संबंध सा जुड जाता है. ऐसे ही चंद रिश्ते हैं जिन्हें भी मैं अपनी धरोहर ही मानता हूँ. श्री शिवरंजन भारती, जो 'जियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया' में जियोलोजिस्ट हैं – जिन्हें भारतीय रिलेशन विधा के अंतर्गत तो मैं भैया ही कहता हूँ, मगर यह मात्र मेरे सीनियर हैं या मित्र या मार्गदर्शक या ... आधिकारिक रूप से तय नहीं हो पाया है. इन्ही के जीवन की एक ‘अभूतपूर्व’ घटना पर गाजीपुर जाने का मौका मिला, जाहिर है वहाँ तक पहुंचकर बनारस न जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, मगर उसकी चर्चा बाद में; पहले चर्चा उनके जीवन की अभूतपूर्व घटना, अर्थात उनके विवाह की. डेढ़ माह पूर्व से रिजर्वेशन और ऑफिस से छुट्टी की कष्टसाध्य प्रक्रिया समयपूर्व सुनिश्चित करवा लेने के बाद भी विवाह तक पहुंचना इतना आसान नहीं रह पाया. ट्रेन को छोड़ प्लेन से और वहाँ से बी.एच. यु. के ही उनके मित्रों के एक और ग्रुप को ज्वाइन कर उनके साथ हमलोग पुरानी यादों को ताजा करते बनारस से गाजीपुर की ओर चले. इस मार्ग पर एक बात गौरतलब थी कि चाय की दुकानों से ज्यादा ‘देसी और मसालेदार पेय’ की दुकानें ज्यादा दिखती रहीं. एक ढाबे पर चाय मिली भी तो वो भी ......
                                              
खैर बारात हमसे पहले पहुँच चुकी थी और जल्द ही दुल्हे राजा भी तैयार हो गए और थोड़ी देर में बरात पुरे गाजे – बाजे और ऐश्वर्या – प्रियंका को मात देती नृत्यांगनाओं के साथ वधु पक्ष के द्वार की ओर चल पड़ी, जहाँ स्वागत का काफी उम्दा इंतजाम किया गया था. वधुपक्ष के परिजनों का आपसी सहयोग स्पष्ट दिख रहा था, जो आजकल शहरों में प्रोफेशनल कैटरिंग वालों के अरेंजमेंट के बीच देखने में नहीं ही आता. जयमाला के दौरान आगंतुकों को अक्सर दूल्हा-दुल्हन की छवि ठीक से देख न पाने की शिकायत रहती है, शायद इसी के परिमार्जन स्वरुप एक ऊँचे रिवोल्विंग स्टेज पर जयमाला की सुव्यवस्था की गई थी. मुझे इस आयोजन का सबसे अच्छा भाग शोर मचाते स्टीरियो की जगह स्थानीय लोकगीत गायकों की सहभागिता लगी, जिन्होंने इस आयोजन में वाकई चार चाँद लगा दिए.  

लोकगीत कलाकार
इसके बाद सुबह तक विवाह की रस्म अदायगी चलती रही जिसे महिलाओं द्वारा गाई जा रही गालियों और लोकगीतों ने एक विशेष स्पर्श दे रखा था. इस बीच उनकी भावी सालियों द्वारा काफी देर तक जूता चोरी के लिए कोई तत्परता न देख हमें ही उन्हें इस मांगलिक कार्य हेतु प्रेरित करना पड़ा और यह रस्म भी समंगल संपन्न हो गई और उधर आधिकारिक रूप से हमारे परिवार में एक नए सदस्य यानि श्रीमती स्निग्धा भारती का आगमन भी सुनिश्चित हो गया.

नव्य वर-वधू को उनके सुखमय वैवाहिक जीवन की शुभकामनाएं इस आशा के साथ भी कि विवाह के बाद नए रिश्तों के साथ पुराने रिश्ते भी बरक़रार रहेंगे. :-)

विवाह कार्यक्रम से जुड़े कुछ अन्य ‘कैनन मूवमेंट्स’ - 



मेरा यार बना है दूल्हा .....
देर न हो जाये कहीं...../ काली घोड़ी द्वार खड़ी .....

एक-दूजे के लिए

माई इमेजिनेशन  : भारती दंपत्ति - 3 साल बाद  ( 3 Years Later )
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