Sunday, December 19, 2021

भारत में माइल स्टोन्स की पुरखी धरोहर: कोस मीनार

दूरी की नाप जोख सभ्यता के आदिकाल से ही मनुष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण रही है। समय के साथ विकास और आवश्यकताओं के मद्देनजर इसके उपयोग और माध्यमों में भी बदलाव आये।
शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित करवाई गई ग्रांट ट्रंक रोड जिसे भारत का पहला राष्ट्रीय राजमार्ग माना जाता है उस प्राचीन मौर्ययुगीन मार्ग का पुनर्निर्माण मानी जाती है जो तक्षशिला से पाटलिपुत्र के मध्य उपयोग किया जाता था। यूनानी यात्री मैगस्थनीज़ के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य की सेना इस राजमार्ग की देखभाल करती थी। उस दौर में यह मार्ग उत्तरापथ कहलाता था जो बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का भी प्रमुख पथ बना।
आज देखें तो चार मुख्य साम्राज्यों मौर्य साम्राज्य, अफ़ग़ान शेर शाह सूरी, मुग़ल साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य और आज़ादी के बाद आज भी यह देश की एक मुख्य सड़क है।
विभिन्न साम्राज्यों के दौर में इस मार्ग पर नियत दूरी पर तालाब और कुएं बनवाए गए, छायादार के लिए पेड़ लगवाए गए और यात्रियों के विश्राम के लिए सराय आदि बनाये गए। आज भी कई नए शहर, हाईवे आदि आधुनिक विकास के चिह्न इस राजमार्ग के इर्दगिर्द ही उभर रहे हैं।
इस प्रमुख मार्ग पर प्राचीन काल में दो स्थलों/गांवों के बीच की दूरी के निरूपण, सूचना-डाक आदि की सुनियोजित संयोजन के लिए एक अनूठी व्यवस्था अस्तित्व में आई कोस मीनार के रूप में।
यह कोस मीनार प्रत्येक हर कोस पर बनाई जाती थी, जिनसे स्थानों की दूरी प्रदर्शित होती थी। अधिकतर मीनारें 1556-1707 के मध्य बनवाई गईं। समय के साथ कई मीनारें अपना अस्तित्व खो बैठीं मगर उनमें से कुछ आज भी अपने गौरवशाली अतीत की विरासत सहेजे खड़ी हैं।
देश में सबसे ज्यादा कोस मीनारें हरियाणा में (लगभग 50) सुरक्षित हैं जिनमें से कई को पुरातत्व विभाग का संरक्षण भी मिला है। बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल के शासन काल में उन के मुख्य सचिव श्री एस के मिश्र जिनकी पर्यटन ओर पुरातात्विक में विशेष रूचि थी के प्रयासों से इस क्षेत्र में कई कार्य हुए जिनमें कोस मिनारो के संरक्षण के लिए हरियाणा मे विशेष अभियान भी शामिल था। इन मीनारों के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते पाकिस्तान में भी इन कोस मीनारो के संरक्षण के प्रयास आरंभ हुए हैं।
देश में सबसे पहले शेर शाह सूरी ने डाक सेवा आरंभ की थी। उस समय हरकारों की नियुक्ति होती थी जो चिट्ठी लेकर तीन मील दौड़ते थे। वो दौड़ते हुए एक चकरी लिए रहते थे जिसमे घंटी होती थी और दौड़ते हुए घूमती थी। सब लोग घंटी सुनकर रास्ता छोड़ देते थे। तीन मील पर दूसरा हरकारा तैयार होता था जो चिट्ठी मिलते ही फिर तीन मील दौड़ता था। इस तरह संदेश हरकारों अथवा घुड़सवारों के माध्यम से पंहुचाये जाते थे।
ये मीनारें अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी और मुग़ल बादशाहों अकबर, जहांगीर और शाहजहां की शासन व्यवस्था की गवाह रही हैं। यह इस देश के इतिहास और संचार क्षेत्र के विकास की धरोहर हैं। इनके बारे में जानकारी पाना, इन्हें सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है।
फरीदाबाद-आगरा के मध्य ऐसे ही एक कोस मीनार पर विज्ञापन रंगा पाया तो एक के आसपास इंसानों ने ही पशुओं से बदतर गंदगी फैला रखी थी। पशुओं को भी इस बात का एहसास होता है कि अपने आसपास की किस जगह का कैसा उपयोग करना है। खुद को स्वघोषित समझदार समझने वाले कई इंसान उनके स्तर से भी कहीं नीचे हैं।
प्रशासन, पुरातत्व विभाग और इतिहास-संस्कृति आदि के प्रति जागरूक जनों को भी ऐसी विरासत के प्रति संवेदनशील होना चाहिए...
(स्रोत- इंटरनेट पर उपलब्ध विविध सामग्रियों से संकलित)

Sunday, October 3, 2021

64 साल की सुरीली धरोहर 'विविध भारती'- तुम जियो हजारों साल...



हरदिल अज़ीज़ रेडियो प्रसारण सेवा विविध भारती, जिसे मैं प्यार से 'विभा' कहता हूँ की वर्षगांठ है आज, जिसकी शुरुआत 3 अक्टूबर 1957 को हुई थी। प्रारम्भ में इसका प्रसारण मात्र दो केन्द्रों, बम्बई तथा मद्रास से होता था जो बाद में अपनी बढ़ती लोकप्रियता के कारण आकाशवाणी के और भी केंद्रों से प्रसारित होने लगा। 'विविध' शब्द दरअसल अंग्रेज़ी के 'miscellaneous' शब्द का हिन्दी अनुवाद है, जो पं॰ नरेन्द्र शर्मा ने इस नई सेवा को दिया था। 


पचास के दशक के उत्‍तरार्द्ध में आकाशवाणी के प्राईमरी-चैनल देश के सभी प्रमुख शहरों में सूचना और मनोरंजन की ज़रूरतें पूरी कर रहे थे। किन्‍हीं कारणों से तब आकाशवाणी से फिल्‍मी–गीतों के प्रसारण पर रोक लगा दी गयी थी। फिल्म-संगीत का यह वो सुनहरा दौर था जब फिल्‍म जगत के तमाम कालजयी संगीतकार एक से बढ़कर एक मधुर गीत तैयार कर रहे थे। उन दिनों श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की विदेश सेवा, रेडियो सीलोन के नाम से जाना जाता है, हिंदी फ़िल्मी गीत प्रसारित करती थी और अपने प्रायोजित कार्यक्रमों के ज़रिये लोकप्रिय थी। ऐसे समय में आकाशवाणी के तत्‍कालीन महानिदेशक गिरिजाकुमार माथुर ने पंडित नरेंद्र शर्मा, गोपालदास, केशव पंडित और अन्‍य सहयोगियों के साथ एक अखिल भारतीय मनोरंजन सेवा की परिकल्‍पना की। इसे नाम दिया गया विविध भारती सेवा- आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम। यहां पंचरंगी का तात्पर्य इस सेवा में पांचों ललित कलाओं का समावेश होने से था। 


तमाम तैयारियों के साथ 3 अक्‍तूबर, 1957 को विविध भारती सेवा मुंबई में शुरू की गयी। विविध भारती पर प्रसारित पहला गीत पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा था और इसे संगीतकार अनिल विश्‍वास ने संगीतबद्ध किया था। इसे प्रसार गीत कहा गया और इसके बोल थे 'नाच मयूरा नाच'। इसे मशहूर गायक मन्‍ना डे ने अपनी मधुर आवाज दी थी। अखिल भारतीय मनोरंजन सेवा विविध भारती की पहली उद्घोषणा शील कुमार ने की थी। आगे चलकर कई उद्घोषक इसके माध्यम से जन-जन तक पहुंचे, जिनमें अमीन सयानी और उनकी 'गीतमाला' का उल्लेखनीय स्थान रहा।

विविध भारती के मुंबई केंद्र पर सुविख्यात उद्घोषक युनूस खान जी के साथ

जयमाला और हवामहल विविध भारती के शुरूआती कार्यक्रम रहे हैं। ये कार्यक्रम आज पचास सालों बाद भी उतनी ही लोकप्रियता के साथ चल रहे हैं।

बदलते वक्‍त के साथ विविध भारती भी स्वंय को बदलती आगे बढ़ती रही। एक जमाने में विविध भारती के कार्यक्रमों के टेप विज्ञापन प्रसारण सेवा के केंद्रों पर भेजे जाते थे, और वहां से उनका प्रसारण होता था। फिर उपग्रह के जरिए फीड देने की परंपरा का आरंभ हुआ। आज किसी भी ताज़ा घटनाक्रम या सूचना को विविध भारती के कार्यक्रमों में तुरंत शामिल कर लिया जाता है।

विविध भारती डी टी एच यानी डायरेक्‍ट टू होम सेवा के ज़रिए भी चौबीसों घंटे उपलब्‍ध रहने लगी। शॉर्टवेव, मीडियम वेव और एफ एम पर भी अब यह उपलब्‍ध है। 

विविध भारती के प्रसारण पूरे भारत के अलावा पाकिस्‍तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्‍लादेश सहित दक्षिण पूर्वी एशिया के कई देशों में सुने जा रहे हैं। लगभग सौ से ज्यादा स्‍थानीय एफ एम चैनल विविध भारती सेवा के कार्यक्रमों को अपनी दिन के प्रसारणों का हिस्‍सा बनाते हैं इसलिए बहुत छोटे छोटे कस्‍बों और गांवों में भी विविध भारती ने न सिर्फ अपनी गहरी पैठ बनाई है बल्कि प्रतिदिन नए श्रोताओं को खुद से जोड़ती आगे बढ़ रही है।

3 अक्टूबर, 2021 से आरंभ हुए विविध भारती के जीवंत प्रसारण में रेडियो नाटक 'यात्रा 2.0' की प्रस्तुति

आज 3 अक्टूबर, 2021 को विविध भारती ने अपने 64 वें स्थापना दिवस से कुछ नए प्रयोग करते कुछ अंशों में सजीव प्रसारण भी आरंभ किया है। इसे News On Air एप पर सुना-देखा जा सकता है। इसी कड़ी में रेडियो नाटिका 'यात्रा 2.0' का प्रसारण किया गया। मंचीय नाटक और रेडियो नाटक में अंतर तो होता है पर किस प्रकार का यह देखना इसे और भी दिलचस्प बना गया। 


वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रोताओं के दिलों पर राज करती आ रही विविध भारती के प्रति अनुराग मुझे उत्तराधिकार में मिला और धीरे-धीरे यह जिंदगी का हिस्सा बन गई। मेरी जिंदगी के पथरीले मोड़ों पर कभी-कभी इसका साथ छूटा भी, पर इसने भी समय के साथ तकनीकी तौर पर खुद को अपडेट किया और आज एप के रूप में भी साथी बन साथ है...

'विभा' बसपन की साथी है, एक सुरीली धरोहर है। दुःख-सुख की दिन, दोपहर, रात इसके साथ बीती है। बीच में कुछ अलगाव रहा पर ख़ुदा न करे फिर वैसी घड़ी आये। इसके साथ होते पूरे अकेले होने का अहसास नहीं होता। इसकी जीवन में एक ख़ास जगह है। 

तुम जियो हज़ारों साल और यूँ ही सदायुवा बनी रहो...

(स्रोत: इंटरनेट से उपलब्ध जानकारियां)

Wednesday, September 15, 2021

बिसरा दिये गए महान क्रांतिकारी चम्पक रमन पिल्लई, जो भारत की अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री रहे

 




चम्पक रमन पिल्लई का नाम उन महान क्रांतिकारियों में शामिल है जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर देश की आजादी के लिए प्राण गंवा दिए। उनका जन्म भारत में हुआ था पर उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर भाग जर्मनी में बिताया। उन्होंने विदेश में रहते हुए भारत की आज़ादी की लड़ाई को जारी रखा और यहां अंग्रेजी हुकुमत के उन्मूलन का प्रयास किया। आज वो हमारी स्मृतियों से बिसरा दिये गए क्रांतिकारियों में आते हैं परंतु यह हमारी दुर्बलता है कि हम अपनी इन धरोहरों के प्रति भी अनभिज्ञ हैं। 


चम्पक रमन पिल्लई जी का जन्म 15 सितम्बर 1891 को त्रावनकोर राज्य के तिरुवनंतपुरम जिले में एक सामान्य माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चिन्नास्वामी पिल्लई और माता का नाम नागम्मल था। उनके पिता तमिल थे पर त्रावनकोर राज्य में पुलिस कांस्टेबल की नौकरी के कारण तिरुवनंतपुरम में ही बस गए थे। उनकी प्रारंभिक और हाई स्कूल की शिक्षा थैकौड़ (तिरुवनंतपुरम) के मॉडल स्कूल में हुई थी। चम्पक जब स्कूल में थे तब उनका परिचय एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड से हुआ, जो अक्सर वनस्पतिओं के नमूनों के लिए तिरुवनंतपुरम आते रहते थे। ऐसे ही एक दौरे पर उन्होंने चम्पक और उसके चचेरे भाई पद्मनाभा पिल्लई को साथ आने का निमंत्रण दिया और वे दोनों उनके साथ हो लिए। पद्मनाभा पिल्लई तो कोलम्बो से ही वापस आ गये पर चम्पक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप पहुँच गए। वाल्टर ने उनका दाखिला ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में करा दिया जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उर्तीण की।


स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद चम्पक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एक तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ की स्थापना की। इसका मुख्यालय ज्यूरिख में रखा गया। लगभग इसी समय जर्मनी के बर्लिन शहर में कुछ प्रवासी भारतीयों ने मिलकर ‘इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी’ नामक एक संस्था बनायी थी। इस दल के सदस्य थे वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, ए. रमन पिल्लई, तारक नाथ दास, मौलवी बरकतुल्लाह, चंद्रकांत चक्रवर्ती, एम.प्रभाकर, बिरेन्द्र सरकार और हेरम्बा लाल गुप्ता। अक्टूबर 1914 में चम्पक बर्लिन चले गए और बर्लिन कमेटी में सम्मिलित हो गए और इसका विलय ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ के साथ कर दिया। इस कमेटी का मकसद था यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी हुई सभी क्रांतिकारी गतिविधियों पर निगरानी रखना। लाला हरदयाल को भी इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए राजी कर लिया गया। जल्द ही इसकी शाखाएं अम्स्टरडैम, स्टॉकहोम, वाशिंगटन, यूरोप और अमेरिका के दूसरे शहरों में भी स्थापित हो गयीं।



इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी और ग़दर पार्टी तथाकथित ‘हिन्दू-जर्मन साजिश’ में शामिल थी। जर्मनी ने कमेटी ककी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को हर तरह की मदद प्रदान की। चम्पक ने ए. रमन पिल्लई के साथ मिलकर कमेटी में काम किया। बाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पिल्लई से मिले। ऐसा माना जाता है कि ‘जय हिन्द’ नारा पिल्लई के दिमाग की ही उपज थी।


प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद पिल्लई जर्मनी में ही रहे। बर्लिन की एक फैक्ट्री में उन्होंने एक तकनीशियन की नौकरी कर ली थी। जब नेता जी विएना गए तब पिल्लई ने उनसे मिलकर अपने योजना के बारे में उन्हें बताया।


राजा महेंद्र प्रताप और मोहम्मद बरकतुल्लाह ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत की एक  अस्थायी सरकार की स्थापना 1 दिसम्बर 1915 को की थी। महेंद्र प्रताप इसके राष्ट्रपति थे और बरकतुल्लाह  प्रधानमंत्री। पिल्लई को इस सरकार में विदेश मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था। दुर्भाग्यवश प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के हार के साथ अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को अफगानिस्तान से बाहर निकाल दिया।


सन 1931 में चम्पक रमन पिल्लई ने मणिपुर की लक्ष्मीबाई से विवाह किया। उन दोनों की मुलाकात बर्लिन में हुई थी। दुर्भाग्यवश विवाह के उपरान्त चम्पक बीमार हो गए और इलाज के लिए इटली चले गए। ऐसा माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। बीमारी से वे उबर नहीं पाए और 28 मई 1934 को बर्लिन में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई उनकी अस्थियों को बाद में भारत लेकर आयीं जिन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ कन्याकुमारी में प्रवाहित कर दिया गया।


आज स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे नागरिक ऐसे महान बलिदानियों के ऋणी हैं। 🙏


मुख्य स्रोत: it's hindi


Tuesday, September 14, 2021

अमर क्रांतिकारी 'दुर्गा भाभी' जी के जन्मदिन पर

महान महिला क्रांतिकारी 'दुर्गा भाभी' जी का जन्मदिन है आज। क्रांतिकारियों के मध्य उनके वजूद का अनुमान इसी से लग सकता है कि वो आज भी 'दुर्गा भाभी' के रूप में ही याद की जाती हैं। 

7 अक्टूबर, 1907 को शहजादपुर, इलाहाबाद में जन्मीं दुर्गावती देवी का बचपन बिन मां के साए में गुजरा। उन्होंने केवल तीसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी। जब वे बारह वर्ष की हुईं तब उनका विवाह भगवती चरण वोहरा से कर दिया गया जो खुद भी एक समर्पित क्रांतिकारी थे। यही कारण था कि क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का घर क्रांतिकारियों के लिए आश्रयस्थल बन गया था। उनके घर जो भी स्वतंत्रता सेनानी आते वह उनका आदर-सत्कार करतीं। इस वजह से सभी उन्हें दुर्गा भाभी बुलाते थे।

जो भी क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ कोई योजना बनाता, तो ठिकाना दुर्गा देवी का घर ही होता था। दुर्गा देवी क्रांतिकारियों के लिए चंदा इकट्ठा करतीं और पर्चे बांटती थीं। 

उनकी भूमिका मात्र गृहस्थ रूप में सेवा तक ही सीमित न रही। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा देने वाले गवर्नर हेली से बदला लेने के लिए दुर्गा देवी ने गवर्नर पर 9 अक्तूबर, 1930 को गोली चलाई। इस गोली से हेली बच गया और उसका सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। इस घटना के बाद दुर्गा को गिरफ्तार कर लिया और तीन साल की सजा सुनाई गई। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी, जिसके बाद उन्हें और उनके साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्होंने पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण कानपुर और लाहौर से लिया। वे राजस्थान से पिस्तौल लाकर क्रांतिकारियों को देती थीं। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए खुद को जिस पिस्तौल से गोली मारी थी वह भी दुर्गा भाभी ने लाकर दी थी।

देश के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में यह प्रसंग अमर हो गया है जब भगत सिंह और सुखदेव ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सांडर्स को गोली मार कर आए तो दुर्गा देवी के घर रुके। उन्हें कोलकाता पहुंचाने के क्रम में पुलिस से बचाने के लिए दुर्गा देवी ने भगत सिंह का हुलिया बदलवाया और खुद को उनकी पत्नी बता कर उन्हें कोलकाता ले गईं।

28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर दुर्गा देवी के पति भगवती चरण वोहरा अपने साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण कर रहे थे जिस दौरान उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद भी दुर्गा देवी सक्रिय रहीं। दुर्गा भाभी को 1937 में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष नियुक्त की गईं। इस पद पर आकर उन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

दुर्गा देवी 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं। इसके बाद 1939 में मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनऊ में एक मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में सिटी मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है।

15 अक्तूबर, 1999 को गाजियाबाद में रहते हुए बानबे साल की उम्र में दुर्गा देवी का निधन हो गया।

देश की आज़ादी में उनके योगदान एवं स्मृतियों को नमन...

Friday, September 10, 2021

क़ौम पर जिंदगी लुटाने वाले आज़ाद हिंद फौज के गुमनाम शहीद

 



हमारे देश की मिट्टी कई ऐसे लोगों की लहू की भी कर्जदार है जो अज्ञात रह गए या भुला दिये गए। आज़ाद हिंद फौज के एक-एक सैनिक की कहानी ऐसे ही त्याग और बलिदान से भरी हुई है। इसके कई सेनानियों में एक थे अब्दुल क़ादर जिनकी आज शहादत की तारीख़ है। 


9 सितंबर, 1943 की रात को, मद्रास जेल में एक युवक ने फांसी की सजा का इंतजार करते हुए, अपने पिता को अपना अंतिम पत्र, त्रिवेंद्रम जो उस समय त्रावणकोर था, के पास एक गाँव में लिखा था-


"प्रिय पिता, ईश्वर ने मुझे एक शांत मन देकर आशीर्वाद दिया है। मेरी और आपकी इस वर्तमान अवस्था में, हमें न द्वेष करना चाहिए और न ही परेशान होना चाहिए। यह ईश्वर की इच्छा के आगे झुकते हुए खुशी-खुशी जीवन बलिदान करने का क्षण है...


...हालांकि हर जीव की तरह मृत्यु मनुष्य के भी प्रारब्ध में है, जीवन के लिए एक लक्ष्य और इसे एक अर्थ समर्पित करने के लिए हम इस पाशविक अवस्था से ऊपर उठें।..." 

अब्दुल उन चार कैदियों में से एक थे -जिनमें से तीन अपने जीवन के दूसरे दशक की शुरुआत में थे तो एक उम्र के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में था। इन्हें अगली सुबह, शुक्रवार, 10 सितंबर, 1943 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। वे उन 20 लोगों के एक समूह के सदस्य थे जिन्होंने पिनांग जो उस समय मलाया था, से यात्रा करते हुए औपनिवेशिक भारत में भूमिगत कार्य करने के लिए प्रवेश किया था। 

फौजा सिंह, अब्दुल क़ादर और सत्येंद्र बर्धन


यह कहानी 1942 की शुरुआत में दक्षिण पूर्व एशिया से शुरू होती है जब जापानियों ने ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच औपनिवेशिक शक्तियों से इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। कई भारतीय युवा, जो पहले काम की तलाश में इस क्षेत्र में आए थे, भारतीय स्वतंत्रता लीग, जो भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली दक्षिण पूर्व एशिया की एक राजनीतिक संगठन थी की ओर आकर्षित हुए। (INA जिसका नेतृत्व आरंभ में कैप्टन मोहन सिंह ने किया था, 1943 में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आने से पहले, लीग की सशस्त्र शाखा थी।)

लीग ने युवकों की भर्ती करने और उन्हें समूहों में भारत भेजने का निर्णय लिया था। लीग के इंडियन स्वराज इंस्टीट्यूट (जो अब पिनांग संग्रहालय में स्थित है) में एक महीने के लिए 50 लोगों के पहले समूह को जापान द्वारा आयोजित प्रशिक्षण के साथ पिनांग में प्रशिक्षित किया गया। इसके अंतर्गत इन्हें अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के बाद की परिस्थितियों में उभरे भारतीय आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्हें चुपके से भारत में प्रवेश करना था। 

सितंबर और अक्टूबर 1942 के मध्य, पिनांग में 50 में से 20 तीन झुंडों में भारत आए, दो पनडुब्बियों में 10 और अन्य 10 स्थल मार्ग से। पांच लोगों का एक समूह मालाबार तट पर तनूर के पास एक रबर की नाव पर सवार होकर आया; पांच का दूसरा समूह गुजरात में काठियावाड़ तट पर द्वारका के पास उतरा; और 10 के तीसरे जत्थे ने भारत-बर्मा सीमा पार की।

प्रवेश के तुरंत बाद उन सभी का पता चल गया और वो, गिरफ्तार कर मद्रास जेल में बंद कर दिये गये। 20 में से एक सरकारी गवाह बन गया और 1943 की शुरुआत में जेल के अंदर एक विशेष अदालत ने उन पर मुकदमा चलाया। मुकदमे के अंत में, पांच लोगों को दोषी पाया गया और  "राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ने" के अपराध में मौत की सजा सुनाई गई। जिन पांचों को दोषी ठहराया गया, वे दूसरों की तुलना में अधिक दोषी नहीं थे। लेकिन न्यायाधीश, ईई मैक ने गौर किया कि 20 लोगों का यह समूह भारत के सभी क्षेत्रों और संप्रदायों से आया था, जैसा कि उन्होंने उनका वर्णन किया, आठ 'हिंदू', दो 'मुसलमान' और एक 'सिख'।

हम मात्र अनुमान लगा सकते हैं कि न्यायाधीश ने मृत्युदंड देने वाले पांच लोगों एक निश्चित पैटर्न में क्यों चुना! दो हिंदू (त्रिपुरा से सत्येंद्र चंद्र बर्धन, और केरल से आनंदन), एक मुस्लिम (वक्कम, त्रावणकोर से अब्दुल खादर), एक ईसाई (बोनिफेस परेरा, त्रावणकोर) और एक सिख (फौजा सिंह, मेहसाणा, पंजाब से)।

इनमें अब्दुल क़ादर ही वह 'मुस्लिम' शख़्स थे, जिन्होंने अपने पिता को मार्मिक अंतिम पत्र लिखा था।

इन लोगों  ने गिरफ्तार होने से पहले कुछ घंटों में वह किया जो किया जा सकता था। उन्होंने तनूर के कुछ युवकों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, और जल्द ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया।

अपने साथी और दोस्त बोनिफेस परेरा को अपने अंतिम पत्र में (जिन्हें भी मौत की सजा दी गई थी, लेकिन किसी  तकनीकी कारण से मृत्युदंड से छूट मिल गई थी और 5 साल क़ैद की सजा मिली), क़ादर ने लिखा: “मैं उस सितारे को दोष नहीं दे सकता जिसने अवसर और समय को हमारे हाथों से पहले ही खिसका दिया था। हम अपनी मृत्यु और आपके कष्टों के योग्य कुछ उल्लेखनीय कर सकते थे… लेकिन इससे पहले कि हम पहला कदम उठाने के बारे में सोच पाते, हम हार कर नीचे गिर गए…”

फुटबॉल को काफी पसंद करने वाले वीर खादर आशावादी थे। उन्होंने परेरा को लिखा: "... लेकिन कोई बात नहीं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारतीय राष्ट्रवादी टीम और ब्रिटिश साम्राज्यवादी टीम के बीच होने वाले फाइनल मैच में गोल पहली टीम ही करेगी। आप भारत के एक स्वतंत्र पुत्र बनें और एक स्वतंत्र माँ की बाहों से आलिंगन प्राप्त करें! ”

शायद 9 सितंबर, 1943 की मध्यरात्रि को खादर के अंतिम लिखित शब्द ऐसे थे जो उनके परिवार को सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे। इस प्रकार 26 वर्ष के युवक ने अपने पिता को अपना पत्र समाप्त किया:

“घड़ी आधी रात के बारह बजने वाली है। मेरी मृत्यु के दिन के शुरुआती क्षण बंद हो रहे हैं ... मेरे पास आपको देने के लिए कोई सांत्वना नहीं है। हम स्वर्ग में मिलेंगे। मेरे लिए शोक न करें... मेरी मौत के चश्मदीद गवाहों से, एक दिन आप जानेंगे कि मैंने कितनी शांति और बहादुरी से मौत का सामना किया। तब आपको गर्व और प्रसन्नता होगी।

घड़ी की दस्तक

मृत्यु का इंतजार


आपका प्रिय पुत्र

अब्दुल क़ादर 


अब्दुल क़ादर को उनके परिवार या वक्कम ने नहीं भुलाया है। दशकों से, समाज ने अपने इस बहादुर बेटे की मृत्यु को स्मारकों, उनकी पुण्यतिथि पर कार्यक्रमों और शैक्षणिक पहलों के साथ संजोए रखा है। 

ऐसे ही एक कार्यक्रम में एक दिल छू लेने वाला अवसर सामने आया जब 2018 में तिरुवनंतपुरम में Kerala History Congress में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रपौत्र प्रोफेसर सुगत बोस और अब्दुल क़ादर के भतीजे फ़मी अब्दुल रहीम आमने-सामने थे। 


हमें भी अपने ऐसे पूर्वजों के सर्वोच्च त्याग और बलिदान पर गर्व करना चाहिए। ऐसे अनगिनत सेनानियों की वीरगाथाएं आज भी अपने वास्तविक हक़ की प्रतीक्षा में हैं। ऐसी एक कहानी ढूंढ़ना भी आसान नहीं है। हमें उन्हें जानना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहिए, ताकि हम जानें कि आजादी हमें किस उद्देश्य से किस कीमत पर मिली है और उसे बचाये और उन लक्ष्यों को पाने के लिए हमें किन प्रयासों की जरूरत है। 


ऐसे सभी शहीदों के बलिदान को शत-शत नमन...


(स्रोत: Scroll.in तथा इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियां)

Friday, July 9, 2021

गुरुदत्त-संजीव कुमार: दो जिंदगानी, इक सी कहानी, किस्मत है...

 



9 जुलाई गुरूदत्त और संजीव कुमार दोनों की ही जन्मतिथि है। दोनों ही अद्वितीय प्रतिभा के धनी कलाकार और दोनों ही लगभग समान मनोदशा से गुजरते असमय मृत्यु के आगोश में ही आखिरकार सुकून पा सके। 

किस्मत है...


वो मर गए, वो जिंदा हैं, खुश हैं, जिंदगी के साथ आगे बढ़ गए, जिंदगी के फ़लसफ़े पर ज्ञान देते हैं... किस्मत है...


हाँ, किस्मत ही है जो सीधे तो नहीं पर अप्रत्यक्ष रूप से दोनों को जोड़ती भी है। के आसिफ़ साहब ने 'Love And God' के लिए गुरुदत्त का चयन किया। उनकी मृत्यु के बाद संजीव कुमार के साथ यह फ़िल्म बननी शुरू हुई। 



इस फ़िल्म की भी अपनी ही किस्मत थी। फ़िल्म निर्माण के मध्य निर्माता-निर्देशक के आसिफ खुद ही दुनिया छोड़कर चले गए, 80 के दशक में उनकी पत्नी अख्तर आशिफ ने अपने पति के अधूरे ख्वाब को पूरा करने का फैसला किया। काफी कोशिशों और करीब 20 सालों से ज्यादा वक्त के बाद आखिरकार 1986 में ‘लव एंड गॉड’ प्रदर्शित हुई। यह फ़िल्म नौशाद और रफी की भी आखिरी फिल्म बनी, फिल्म की हिरोइन निम्मी की भी ये आखिरी फिल्म रही और अंततः इस फिल्म के हीरो संजीव कुमार भी इस फिल्म को नहीं देख पाए। रिलीज से पहले ही संजीव कुमार भी इस दुनिया में नहीं रहे।


किस्मत है...

Monday, June 21, 2021

हर वर्ग भेद की झलक 'रेलवे प्लेटफॉर्म' पर



6 जून को प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त की जन्मतिथि थी। फ़िल्म इंडस्ट्री के ये उन चंद नामों में है जिनके जीवन की कहानी भी पूरी फ़िल्मी यानी रोचक और प्रेरक है। मात्र 5 वर्ष की अल्पायु में पिता का साया सर से उठ गया, 18 की उम्र में बंटवारे के बाद बड़ी कठिनाईयों से पाकिस्तान से भारत पहुंचे, पढ़ाई पूरी की, रेडियो प्रस्तोता बने, उसी दौरान निर्देशक रमेश सैगल के संपर्क में आये और उनके साथ पहली फ़िल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' मिली। फिल्मों में उतार-चढ़ाव देखे, नायक, खलनायक, चरित्र अभिनेता होते राजनीति में पहुंचे, नर्गिस से प्रेम, विवाह, उनकी कैंसर से मृत्यु... और इन सबके बाद बेटे संजय दत्त को लेकर परेशानियां... एक फ़िल्म तो सिर्फ़ उनके ऊपर बननी चाहिए...

बहरहाल, उनकी स्मृति में उनकी पहली फिल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' देखी। 1955 में भी हमारा हिंदी सिनेमा कहानी, स्क्रिप्ट, प्रस्तुति आदि के मामले में कितना समृद्ध था! गीत-संगीत, अभिनय आदि तो थे ही... 


यह फ़िल्म भी किसी मायने में कम नहीं। एक ट्रेन अगले किसी स्टेशन पर बाढ़ से पटरी डूबे होने के कारण एक अंजान छोटे से स्टेशन पर रुक जाती है। ट्रेन जिसमें कि एक अमीर वर्ग है जिसमें से किसी को अगले दिन क्रिकेट मैच देखना है तो किसी के दोस्त के कुत्ते की मैरेज है। अब जब ट्रेन रुक ही गई है तो इनके लिए पिकनिक का ही स्कोप है। पानी नहीं है तो बियर पीने का भी...

वहीं एक व्यापारी है जो इस आपदा में अवसर की संभावना देखते हुए एक छोटी राशन की दुकान और उससे लगा कुंआ भाड़े पर ले लेता है।

उसकी मान्यता है कि-


                                                                  
(सुण कर इस पापी को तानो/ बदल न लीजो अपणो ठिकाणो /
म्हारो थारो प्रेम पुराणो/ हम हैं थैले तुम हो खज़ानो /
भरते रहियो दास की झोली देते रहियो दान/ तुम्हारी जय जय हो भगवाण)








"बल बेचें बलवान जगत में

घर बेचें घरदार

अमन की रक्षक कौमें बेचें

ज़हरीले हथियार

हाँ तो फिर मैंने पानी बेचा

तो कैसी हाहाकार

फिर मैंने पानी बेचा

तो क्यों है इतनी हाहाकार

अंधेर नगरी चौपट राजा..."

एक पंडित जी हैं जो यहां भी धार्मिक क्रियाकलापों की संभावना निकाल दक्षिणा जमा करने की गुंजाइश भी निकाल लेते हैं।

इसी क्रम में कवि प्रदीप की प्रसिद्ध रचना 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान...' की साहिरमय पैरोडी 'देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान...' भी सामने आती है।

"उन्हीं की पूजा प्रभू को प्यारी

जिनके घर लक्ष्मी की सवारी

जिनका धन्धा चोर बज़ारी

हमको दें भूख और बेकारी

इनको दे वरदान

कितना बदल गया भगवान"

अमीरों और श्रमिकों के बीच एक मध्यवर्गीय नायक भी है पढ़ा-लिखा, बेरोजगार- 'त्रिशंकु'

यह भी गौरतलब है कि उस क्षेत्र का नाम है 'अंधेर नगरी'

"राजा जी ने कुछ हाथी और

कुछ घोड़े हैं पाले

इन्हें न कोई फ़िक्र न चिंता

ये हैं महलों वाले

इनके राज में पड़ गए हमको

अपनी जान के लाले

दोनों हाथों लूट रहे हैं

काले धंधों वाले

जिस मोल भाजी उस मोल खाजा हो       

अंधेर नगरी चौपट राजा

अंधेर नगरी चौपट राजा..."

फ़िल्म में सूत्रधार के रूप में एक कवि महोदय भी हैं, ये सलाह और टिप्पणी तो दे सकते हैं लेकिन दोनों हाथ न होने की वजह से और कुछ कर नहीं सकते। उनका फ़लसफ़ा है कि 2 और 2 सिर्फ चार ही नहीं 22 भी होते हैं।


(नैना, राजकुमारी और विमला: "विधाता ने तो तुम तीनों को एक जैसा बनाया है, अमीर-गरीब तो इंसान ने बनाया है।"- कवि)

फ़िल्म अंत आते-आते बॉलीवुड की सुखांत की परंपरा के अंतर्गत ही अपनी पटरी पर लौट आती है लेकिन तब तक उसे अपने सामर्थ्य में जो संदेश देना था दे चुकी होती है।

Wednesday, June 16, 2021

मल्टीनेशनल्स पर इशारों में वोकल- क्रिस्टियानो रोनाल्डो

 



यूरोपीय चैंपियनशिप में सबसे ज्यादा गोल करने का रिकॉर्ड बनाने वाले क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने एक सांकेतिक इशारे मात्र से कोका कोला को लगभग 4 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा दिया।

यूरो कप में सोमवार को पुर्तगाल और हंगरी के मैच से पूर्व संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करने के लिए रोनाल्डो आए। उनके सामने कोका-कोला की दो बोतलें रखी हुईं थीं। सवाल-जवाब का दौर शुरू होता इससे पहले ही रोनाल्डो ने कोका-कोला की दोनों बोतलों को हटाकर दूसरी ओर रख दिया। यही नहीं, उन्होंने मेज पर रखी पानी की बोतल को उठाकर दिखाया। उनके इस इशारे का मतलब था कि सॉफ्ट ड्रिंक की जगह पानी का इस्तेमाल करो। यहाँ यह भी गौरतलब है कि कोका- कोला यूरो कप के प्रायोजकों में भी शामिल है।

एक बड़े सितारे के एक छोटे से इशारे का असर यह हुआ कि यह शेयर बाजार में कंपनी के लिए 1.6% की भारी गिरावट का कारण बन गया। आर्थिक दृष्टि से, कोका-कोला के शेयर्स की कीमत 242 अरब डॉलर से घटकर 238 अरब डॉलर हो गई। यानी कंपनी को 4 अरब डॉलर (करीब 29 हजार 333 करोड़ रुपए) का घाटा हुआ।

रोनाल्डो ने एक बार कहा था, ‘मैं अपने बेटे को लेकर बहुत सख्त हूं। कभी-कभी वह कोक और फैंटा पीता है। वह चिप्स खाता है। वह जानता है कि मुझे यह पसंद नहीं है।’

यह प्रकरण रोनाल्डो या किसी भी देश की आंतरिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि कारण से प्रभावित हो सकता है। कल को कोई दूसरा तर्क भी आ जायेगा।

पर इस कोरोना काल में हमने देखा है कि बहुप्रचारित और मल्टीनेशनल खान-पान की चीजें हमारे कितने काम आई हैं और इन्होंने हमारे शरीर पर क्या असर डाला है, चाहे इसके प्रचारक तथाकथित देवी-देवता या 'भगवान' ही रहे हों...

गर्मी के दिन हैं। गले को ठंडा करने की जरूरत महसूस होती ही है। मगर वास्तव में ठंडा मतलब क्या होना चाहिए? यहां तो हम 'लोकल पर वोकल' हो सकते हैं। हमारे फलों के जूस, सत्तू और बेल के शर्बत जैसे विकल्प पौष्टिक भी होंगे और स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहयोग देने वाले भी। सिर्फ व्हाट्सएप फॉरवर्ड ही नहीं, ऐसी छोटी-छोटी पहलें भी हमें एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में प्रदर्शित कर सकती हैं...

Sunday, June 6, 2021

आग: बात "100 साल पहले की जब मैं दस बरस का था..."

 



शीर्षक का डायलॉग मेरा नहीं भई अपने ही RK बैनर तले पहली ही फ़िल्म से निर्देशक के रूप में पारी शुरू करने वाले राज कपूर साहब का है। 2 जून को उनकी पुण्यतिथि पर 'आग' देखी। दर्शकों की कुल आयु के समकक्ष पुरानी यह फ़िल्म भविष्य में शो मैन बनने वाले नौजवान के आरंभिक सफ़र के आगाज़ को भी दर्शाती है।

 


आज भी कोई आम युवा अपनी प्रेरणा या कल्पना को किसी रचना के माध्यम से सामने लाना चाहता है तो कविता, कहानी आदि का सहारा लेता है। वो राज कपूर थे तो भले फ़िल्म ही बना दी, मगर उसमें उनके बचपन की किसी स्मृति, किसी चाहत का कोई अंश जरूर रहा होगा। और उनके जैसे रोमांटिक व्यक्ति के लिए यह अस्वाभाविक भी नहीं।

 


बचपन में बिछड़ चुकी एक दोस्त जिसके साथ एक नाटक बनाने का इरादा था, को उसके निक नेम के साथ युवावस्था में भी ढूंढ़ता एक नौजवान उनसे कहाँ अलग है जो आज भी किसी नाम को सोशल मीडिया में तलाशते रहते हैं। पिता की मर्जी के विरुद्ध सुरक्षित नौकरी का विकल्प छोड़ अपनी मर्जी से थियेटर चुनने के लिए घर छोड़ने की सोच 1948 में! यह उस राजकपूर का स्वर्णिम दौर था जो किसी दबाव में नहीं आया था।  

 अपनी पहली ही फ़िल्म में ख़ुद को आग में झुलसा कुरूप दिखाना भी सहज नहीं रहा होगा।

फ़्लैश बैक में चलती कहानियां मुझे बेहद पसंद हैं। इसमें पारंगत होने के दावे कईयों को लेकर किये जाते हैं लेकिन अपनी पहली ही फ़िल्म में एक युवा फ़िल्म मेकर का यह अंदाज चुनना अपनी कहानी कहने के प्रति पूर्ण आश्वस्ति ही दर्शाता है।



यह मात्र एक फ़िल्म नहीं एक युवा मन की अपनी भावना भरी कथा ही है जिसे अभिव्यक्त करने के लिए उसने रुपहले पर्दे के विकल्प को चुना है। इसे प्रस्तुत करने में उसका साथ छोटे भाई शशि कपूर और रिश्तेदार प्रेमनाथ ने दिया; तो यहीं से दोस्त के रूप में नर्गिस का भी साथ जुड़ा।


शोर-शराबे से दूर सरल बोल और सहज संगीत भी इस फ़िल्म की खासियत है जिसकी कमियों को दूर करते राजकपूर ने आगे चल अपने नौरत्न ही गढ़ लिए। यह भी समझा जा है कि देश विभाजन के उस उथल पुथल के दौर में फ़िल्म निर्माण को लेकर कितनी तकनीकी दिक्कतें भी सहनी पड़ी होंगीं!



अवकाश में पुराने ख़तों को सहेजने सा अनुभव है ऐसी फिल्मों से गुजरना...

 

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