Friday, December 30, 2011

2011 - मेरे लिए



वर्ष 2011  समाप्त होने को ही है. यूँ तो है ये एक आंकड़ा ही, मगर कुछ छोटी-बड़ी घटनाओं को गूंथता ये कालखंड यादों का एक संकलन छोड़ ही जाता है, और जिसका पुनरावलोकन तो एक परंपरा है ही. आखिर इन्ही अनुभवों पर पिछला कदम रखकर ही तो रखेंगे नए वर्ष में अगला कदम. 

पिछले दिनों टूर आदि की व्यस्तताओं में उलझा ब्लौगिंग से अपेक्षया दूर ही रहा. आज फिर एक संछिप्त टूर पर निकल रहा हूँ, जो संभवतः रोचक ही रहेगा; विस्तृत विवरण तो दूंगा ही. 

नेटवर्क ज़ोन से लगभग अज्ञातवास सदृश्य अरुणाचल प्रवास से दिसंबर, 2010  तो बाहर ले ही आया था, 2011  में केंद्र के निकट रहने का भरपूर लाभ भी उठाया. 

वर्ष के शुरुआत में ही पुस्तक मेला से साल भर का कोटा तो जमा कर ही लिया था, जिसमें संमय के साथ इजाफा ही होता रहा. कुछ अच्छे उपन्यास, विज्ञान गल्प संग्रह, कहानी संग्रह आदि पढ़े - जिनमें आर. के. नारायण की 'महात्मा का इंतजार', डोमीनिक लोपियर की 'आधी रात की आजादी', हिमांशु जोशी की 'तुम्हारे लिए' इत्यादि महत्वपूर्ण रहीं. 



पारंपरिक लेखन की दृष्टि से 'विज्ञान प्रगति' और 'राजभाषा पत्रिका' में रचनायें छपीं, मगर इसे पूर्णतः संतोषजनक नहीं मान सकता. इसमें कुछ भूमिका फेसबुक और ब्लौगिंग की भी रही. अज्ञातवास के बाद से नेटवर्क की प्यास थी ही इतनी बड़ी ..... 

हां, मेरे ब्लॉग से कुछ आर्टिकल्स 'हिंदुस्तान' आदि समाचारपत्रों में जरुर प्रकाशित हुए.

इस वर्ष को एक और मायने में याद रखूँगा अपने भ्रमण के लिए. शौकिया और औफिसियली दोनों मायनों में जमकर घुमने का मौका मिला. नैनीताल, मसूरी, हरिद्वार, हृषिकेश, आगरा, जयपुर, अमृतसर, चंडीगढ़ के अलावे उत्तराखंड और हिमाचल के कई सुदूरवर्ती स्थलों में भी जाने का मौका मिलता रहा. साल के अंत-अंत में अपनी विशेष रूचि के एस्ट्रोनौमिकल महत्व के एक स्थल से ' विंटर सोल्स्ताईस ' के नज़ारे का भी लुत्फ़ लिया. कुछ और स्थानीय मगर ऐतिहासिक महत्व के स्थलों का भी भ्रमण किया. 



दिल्ली में कुछ नए ठिकाने भी बने जिनमें मंडी हाउस, इन्डियन हैबिटैट सेंटर और  इंदिरा गाँधी कला केंद्र आदि प्रमुख हैं जहाँ कला और संस्कृति जगत के कई स्वरूपों से साक्षात्कार भी हुए.....



नई जगह, नए माहौल में कुछ नए लोगों से दोस्ती हुई और कुछ नए लोगों से 'दोस्ती' के प्रयास फलीभूत नहीं भी हो पाए... खैर " जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए..." . फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से जहाँ पुराने परिचितों से टूटा संपर्क बहाल हुआ वहीँ रचनाकर्म से जुड़े कुछ नए और यादगार संपर्क भी कायम हुए. जैसे चंडीदत्त शुक्ल, मनोज कुमार जी आदि. 

अपनी एक और विशेष रूचि फिल्मों में इस साल 'बोल' और टैगोर की 150  वीं जयंती के उपलक्ष्य में देखी 'काबुलीवाला' को उल्लेखनीय  मानूंगा. बौलीवुड ने अमूमन निराश ही किया. वैसे जोया अख्तर जैसे कुछ नए फिल्मकारों ने उम्मीदें बरक़रार रखी हैं.....

जहाँ इस वर्ष ने कई महत्वपूर्ण यादें दीं, वहीँ कुछ अति दुखद प्रसंग भी आये. कला एवं रचना जगत की महत्वपूर्ण  हस्तियाँ हमसे छीन  ले गया 2011 ... (आशा है अगले वर्ष इसे कम्पेंसेट करने की भी कोशिश करेगा उनके विपरीत लोगों को अपने साथ ले जाकर.....). इनमें जो सबसे महत्वपूर्ण हैं वो हैं देव आनंद और जगजीत सिंह का हमारे बीच से चले जाना... इन दोनों से मैं काफी भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था. देवसाहब पर विस्तृत पोस्ट जल्द ही.....

कहने को अभी भी काफी कुछ है, मगर ' क्या भूलूं क्या याद करूँ...'

आनेवाले वर्ष में अपने लेखन पर कुछ और ध्यान देने पर जोर दूंगा. आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.....

Monday, December 12, 2011

शतायु राजधानी दिल्ली.....


"दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का,
ये तो तीरथ है सारे जहान का..."

जी हाँ, यही गुनगुनाते हुए देश की नई राजधानी के रूप में दिल्ली आज आपनी पुनर्प्रतिस्थापना के सौ वर्ष पूरे कर रही है. 

दिल्ली कई बार बसी और उजड़ी. दिल्ली शहर के नामकरण को लेकर भी कई मत हैं. एक मत के अनुसार  'दिल्ली' शब्द फ़ारसी के 'देहलीज़' से आया क्योंकि दिल्ली गंगा के तराई इलाकों के लिए एक ‘देहलीज़’ था. एक अन्य मान्यता के अनुसार दिल्ली का नाम तोमर राजा ढिल्लू के नाम पर दिल्ली पड़ा. एक राय ये भी है कि एक अभिशाप को झूठा सिद्ध करने के लिए राजा ढिल्लू ने इस शहर की नींव में गड़ी एक कील को खुदवाने की कोशिश की. इस घटना के बाद उनके राजपाट का तो अंत हो गया लेकिन एक कहावत मशहूर हो गई - "किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन"

पांडवों के द्वारा बसाये गए इन्द्रप्रस्थ के अलावे गौरी, गजनी, खिलजी, तुगलक और मुगलों आदि ने भी समय-समय पर इस शहर पर शासन किया और यहाँ कई अलग-अलग शहरों को बसाया. लाल कोट, महरौली, सीरी, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीन पनाह और शाहजहानाबाद आज भी अपनी विरासत के साथ दिल्ली के अतीत की कहानियां सुनते हैं. 

ब्रिटिश राज ने प्रशासनिक कारणों से कलकत्ता में अपनी गतिविधियों को केन्द्रित किया और वो नई राजधानी के रूप में स्थापित होता गया. मगर उन्नीसवीं शताब्दी की शरुआत के साथ-साथ कलकत्ता अंग्रेजों को अपने लिए अनुकूल नहीं लगने लगा. स्वराज के लिए बढ़ते संघर्षों के केंद्र के रूप में उभरते बंगाल की अपेक्षा दिल्ली के आस-पास बसे समर्थक राज्य अंग्रेजों को अपने लिए ज्यादा अनुकूल लगे. यही कारण था कि 12  दिसंबर, 1911  को दिल्ली दरबार के आयो जन के दौरान किंग जॉर्ज पंचम ने अपनी प्रसिद्द घोषणा की कि - " हमें भारत की जनता को यह बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि सरकार और उसके मंत्रियों की सलाह पर देश को बेहतर ढंग से प्रशासित करने के लिए ब्रितानी सरकार भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली हस्तांतरित करती है. "



दिल्ली की आधारशीला पर उन्होंने अपनी ये भावनाएं स्पष्ट करवाईं थीं कि - "  मेरी तमन्ना है कि जब नई राजधानी बनाई जाये, तब इस शहर की खूबसूरती और प्राचीन छवि को ध्यान में रखा जाये; ताकि यहाँ नई इमारतें इस शहर में खड़ी होने लायक लग सकें."

उनकी यह भावनाएं निश्चित रूप से ब्रिटिश वास्तुविद्दों द्वारा कायम रखी गईं जो उनके द्वारा निर्मित 'वायसराय हाउस' (राष्ट्रपति भवन) 'नेशनल वार मेमोरियल' (इण्डिया गेट) आदि के रूप में हमारे सामने हैं.

मगर क्या आज की दिल्ली अपने नागरिक संसाधनों और वास्तु संकल्पना के लिहाजों से अपनी प्राचीन परंपरा के अनुरूप विकसित हो पा रही है, इस अवसर पर इस ओर भी विचार करने की जरुरत है.

बहरहाल बधाई हो ' नई दिल्ली '...


Thursday, November 24, 2011

नैनीताल, मैं और ‘ तुम्हारे लिए’



नैनीताल – उन चंद जगहों में से एक जिनसे मुझे बेइंतिहा प्यार है. जबतक इसे देखा नहीं था, तब तक शिवानी की कहानियों से झलकता नैनीताल, जब इससे जुड़े कुछ लोगों से मिला तो उनके चेहरों से झांकता नैनीताल और जब खुद इससे रूबरू होने का मौका मिला तो प्रकृति का सलोना ख़्वाब नैनीताल. और इस ख्वाब की गिरफ्त में अकेले मेरे ही होने की तो खुशफहमी हो सकती भी नहीं थी, क्योंकि जो कोई भी इसे दिल की नजर से देख ले वो इसके इश्क में तो डूब ही जाये (वैसे इसके कुछ अपवाद भी हुए हैं...) मगर जिनपर भी इस छोटे से पहाड़ी शहर का इश्क सवार हुआ है, खूब हुआ है. इसके इश्क की गिरफ्त में मशहूर हुए एक और शख्सियत के बारे में हाल ही में जानने को मिला, उनके एक चर्चित शाहकार ‘ तुम्हारे लिए ‘ के माध्यम से.


हिंदी साहित्य के अग्रणी कथाकार और कई राष्ट्रीय- अन्तराष्ट्रीय पुराश्कारों से सम्मानित श्री हिमांशु जोशी को एक बड़ा पाठक वर्ग प्रसिद्द उपन्यास ‘ तुम्हारे लिए ‘ के लेखक के रूप में जानता है.  नैनीताल की पृष्ठभूमि में विराग और मेहा जैसे पात्रों के माध्यम से किशोर वय के सुकोमल प्रेम और जीवन के कटु यथार्थ को भी कुशलता से उभारने वाली यह रचना हिंदी के बहुचर्चित उपन्यासों में से एक है, जिसके कई संस्करण निकले. विभिन्न भारतीय भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ और ब्रिटेन की एक कंपनी द्वारा ऑडियो कैसेट तैयार किये जाने पर वो भी श्रोताओं द्वारा हाथों-हाथ लिए गए. दूरदर्शन से इसका धारावाहिक रूप में प्रसारण भी हुआ. (किन्ही को नाम याद हो तो बताने का कष्ट करें. क्या वो ‘पलाश के फूल’ था ?)

उपन्यास की हृदयग्राहिता की एक वजह इस पृष्ठभूमि से लेखक का खुद का जुडा होना भी है. हल्द्वानी से नैनीताल प्रवास और इस दौरान उनके अनुभवों ने बड़े करीने से उपन्यास की कथावस्तु में अपनी जगह बना ली है. ‘ साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘ में धारावाहिक के रूप में प्रकाशन से लेकर उपन्यास के रूप में प्रकाशन के बाद से विविध संस्करणों के माध्यम से इसने अपना एक अलग ही पाठक वर्ग बना लिया है. पाठकों पर इसके सम्मोहन का कुछ ऐसा असर पड़ा कि इसे पढ़ने के बाद कई लोग नैनताल आये और इसमें वर्णित स्थलों को ढूँढ – ढूँढ कर देखने गए, कईयों ने इसे अपनी ही कहानी माना तो कईयों ने इसकी प्रतियाँ अपने मित्रों में बंटवाईं; तो एक पाठक ने लेखक के ही शब्दों में इसे दो सौ पचास बार पढ़ डाला. मुझे खुद इसके सम्मोहन ने ऐसा जकड़ा कि रात बारह बजे शुरू कर सुबह चार बजे खत्म करने के बाद ही रुक पाया, जबकि नौ बजे ऑफिस भी पहुंचना होता है.
इस उपन्यास में कुछ तो है ऐसा जो आपको नैनीताल से और कहीं-न-कहीं खुद से भी जुड़ने का मौका देता है. खुद ही आजमा कर देख लें ...

चलते-चलते लेखक के ही शब्दों में – “ ... आज भी कभी नैनीताल जाता हूँ तो उन भीड़ – भरी सड़कों पर मेरी आँखें अनायास कुछ खोजने – सी क्यों लगती हैं ? रात के अकेले में, उन वीरान सड़कों पर भटकना अच्छा क्यों लगता है ?...

Thursday, November 10, 2011

प्रकाश पर्व पर विशेष



बचपन का एक महत्वपूर्ण  हिस्सा बोकारो में बिताने का अवसर मिला.जहाँ हमलोग रहते थे वह एक सिखबहुल क्षेत्र था. इसलिए बचपन से ही सिख मान्यताओं और परिवेश से परिचित तथा प्रभावित रहा. तब गुरु नानक जयंती जैसे पर्वों पर गुरूद्वारे जाने का एक अलग ही अनुभव मिलता रहा मुझे. 84  के दंगों की बालमन पर जो स्मृतियाँ हैं उनपर मणिरत्नम साहब एक और फिल्म बना सकते हैं. तब शायद मैंने सोचा भी नहीं था कि कभी सिख समुदाय के सबसे महत्वपूर्ण धर्मस्थल ' स्वर्णमंदिर' जाने का भी अवसर मिलेगा. 


पिछला रविवार मेरा लिए एक ऐसा ही महत्वपूर्ण अवसर रहा जब मुझे इस महत्वपूर्ण तीर्थस्थल पर जाने का अविस्मरनीय मौका मिला. 

आज बनारस की देव दीपावली का भी अद्भुत  ही रंग रहेगा.



साथ ही झाड़खंड  के हजारीबाग में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्रसिद्ध ' नरसिंह स्थान '  का मेला भी लोगों के आकर्षण का केंद्र रहेगा. 


आप सभी को इन पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं.  

Friday, November 4, 2011

अस्तित्व को जूझती हक़सर हवेली


देश की राजधानी दिल्ली, जो कई बार बसी और कई बार उजड़ी. मगर इस बसने-उजड़ने के क्रम के बीच कुछ ऐसे चिह्न भी छोड़ गई जो आज भी इसके इतिहास के कई हिस्सों की परतें खोल कर सामने रख देते हैं, बशर्ते कोई उन्हें तस्दीक से देखना-समझना चाहे. पिछले दिनों पुरानी दिल्ली के एक भीड़-भाड़ वाले हिस्से में आयोजित एक हेरिटेज वाक  का हिस्सा बनने का मौका मिला. दिल्ली की  पुरानी हवेलियों से रु-ब-रु करवाते इस वाक के बारे में विस्तार से फिर कभी; मगर आज जिक्र इस वाक के अंत में समक्ष आई उस ईमारत का जिसने कभी इस देश के इतिहास को निर्धारित करने वालों की जिंदगी का काफी करीबी से साक्षात्कार किया था.



मैं बात कर रहा हूँ पुरानी दिल्ली के सीताराम बाजार में स्थित ' हक़सर हवेली' की. 1850  से 1900  ई. के बीच कश्मीरी ब्राह्मणों के कई परिवार अलाहाबाद, आगरा और पुरानी दिल्ली  आकर बस गए; जिनमें  कमला नेहरु के माता-पिता श्रीमती राजपति कॉल और श्री जवाहर मल कौल  भी थे. इन्होने पुरानी दिल्ली के गली कश्मीरिया और सीता राम बाजार के पास के इस भाग में यह हवेली बनवाई जहाँ कमला नेहरु जी का जन्म हुआ और उनका बचपन बीता. इसी हवेली में 8  फरवरी, 1916  को पं. जवाहरलाल नेहरु की बारात आई थी. 



सांस्कृतिक और राजनीतिक सरगोशियों का प्रमुख केंद्र रही यह हवेली 1960  में बेच दी गई. तब से विभिन्न व्यक्तिगत और व्यावसायिक गतिविधियों के सँचालन से गुजरती हुई यह हवेली अपने वास्तविक स्वरुप को  पूर्णतः खो बैठी है, और अब बस इसके खंडहर ही इसके गौरवशाली इतिहास की दास्ताँ बयां कर रहे हैं.

1983  में इंदिरा जी भी अपनी माँ  के जन्मस्थल पर आई थीं और काफी देर पुरानी यादों को भावुकता से टटोलती रहीं. इसे विरासत स्थल जैसे स्तर देने के भी प्रयास हुए मगर स्थानीय सहभागिता न होने के कारण योजनायें परवान न चढ़ पाईं.

अपने इतिहास और विरासत के प्रति आम भारतीयों की उपेक्षा काफी दुखद है. जब तक वो खुद अपने आस-पास बिखरे इतिहास के चिह्नों को सहेजने का प्रयास नहीं करेंगे हम अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को ध्वंश होते देखते रहेंगे.

Tuesday, November 1, 2011

एक मुलाकात : चंडीदत्त शुक्ल जी के साथ.....


गत शुक्रवार को एक छोटे से एक्सीडेंट से गुजरने के बाद अगले दिन शनिवार की छुट्टी होते हुए भी कमरे में ही पुरे आराम की दुह्साध्य परिस्थिति के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर ही रहा था कि फेसबुक से गुजरते हुए चंडीदत्त शुक्ल जी के स्टेटस पर नजर पड़ गई जो अपनी एक दिवसीय यात्रा पर दिल्ली पधारने वाले थे. चंडीदत्त शुक्ल जी से ऑनलाइन तो मेरा संपर्क कई सालों से रहा जब वो नोएडा में 'दैनिक जागरण' से जुड़े हुए थे. अरुणाचल जाने के बाद मेरा संपर्क इंटरनेट से टूट गया और इन जैसे कई अन्य व्यक्तियों से भी. नेटवर्क जोन में वापसी के बाद इनसे पुनः संपर्क हुआ तो पता चला अब ये जयपुर में हैं और मेरी कुछ पसंदीदा पत्रिकाओं में से एक 'अहा ! ज़िन्दगी' से जुड़ गए हैं. 

पिछले दिनों अपनी अचानक हुई जयपुर यात्रा में मुझे याद भी न रहा कि ये भी यहीं हैं, वर्ना अपनी साईट विजीट में इनके दर्शन को भी ऐड जरुर कर लेता. अब इनके दिल्ली आने के अवसर को मैं छोड़ना नहीं चाहता था, और यह शनिवार को मेरे बाहर निकलने की एकमात्र प्रेरणा थी. 

कला-विज्ञान-संस्कृति से जुड़े लोगों से मिलने या संपर्क का अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता, यह मेरी कुछ कमजोरियों में से एक है. मेरी इस 'प्रवृत्ति' का शिकार कई लोग हो चुके हैं जिनमें ब्लॉग जगत के ही श्री अरविन्द मिश्र, यूनुस खान आदि भी शामिल हैं. इससे पहले केंद्रीय सचिवालय मेट्रो पर ही एक अन्य ब्लौगर नीरज जाट से भी मुलाकात हो चुकी थी, जिसके सन्दर्भ में यहाँ  भी देखा जा सकता है. यही मेट्रो स्टेशन इस दिन फिर हमारी मुलाकात का गवाह बनाने जा रहा था, जहाँ हमारा मिलना नियत हुआ था. 


चंडीदत्त जी एक कमाल के लेखक, कवि और साथ ही ब्लौगर भी हैं. उनका लिखना पाठकों पर जादू सा असर करता है और उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता है. इसका एक उदाहरण मैं उनके फेसबुक पेज से ही दे रहा हूँ, जिसमें उन्होंने इस सामान्य सी मुलाकात को अपने खुबसूरत शब्दों में पिरोकर एक यादगार शक्ल दे दी है - 

कुछ अलसाई सुबहें इस कदर हावी होती हैं कि गुजिश्ता दिन भागते हुए बीतता है और कसम से, ऐसी दोपहरियों के बाद की शामें अक्सर तनहाई की आग से लबरेज़ करते हुए जिस्म को सिहरन से भर देती हैं। 
कुछ ऐसा ही तो मंज़र था उस रात, जब चांद ने सरसराती हवा का आंचल थामकर सांझ को ढलने का इशारा किया और नीले आसमान के दिल के ऐन बीच जा बैठा। ठिठुरती रात ने ओस से कहा-- तुम इतनी सर्द क्यों हो आज...और वो जैसे लजाकर घास के सीने में और गहरे तक दुबक गई। क़दमों के नीचे पत्ते चरमरा रहे थे। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति के घर के ठीक बगल सड़क पर खंबों के माथे के ऊपर जगमगाती स्ट्रीटलाइट के नीचे कोई था, जो मेरे इंतज़ार में था और इसी फ़िक्र में मैं भी तो था...ऐन उसी वक्त, इंसानी कारीगरी का बेमिसाल नमूना- दिल्ली मेट्रो के एक शुरुआती डिब्बे में सवार मैं भी बार-बार अपनी घड़ी देखता हुआ वक्त को जैसे रोक लेने की कोशिश में जुटा था...
हर दो-तीन मिनट बाद पीछे छूट जाते प्लेटफॉर्म को अपनी रफ्तार से मुंह चिढ़ाते और जैसे साथ ही फिर मिलने का दिलासा देती मेट्रो जैसे ही मंज़िल तक पहुंची, एस्केलेटर पर मेरे क़दम जम गए और जैसे ही खुद चलती सीढ़ियां रुकीं, बेताब निगाहों ने बाहर झांककर यकीन करना चाहा-- है तो सही, वो शख्स, जिससे मिलना आज मुमकिन हुआ है। नज़रें चेहरा नहीं तलाश पाईं पर फोन के पार एक आवाज़ मौजूद थी--हां जी...आता हूं। रात के सवा नौ बजे, राह को लांघ, वो मेरे सामने था। ये ज़िक्र है--झारखंड के रहने वाले, बनारस में पढ़े, अरुणाचल में नौकरी कर चुके और फिलहाल, फरीदाबाद में सेवारत अभिषेक मिश्र का। ब्लॉगर, पत्रकार, लेखक, संगीतप्रेमी... ये तमगे दरअसल छोटे और नाकाफ़ी हैं अभिषेक का बयान करने के लिए। यकीनन...वो सबसे पहले और सबसे ज्यादा एक स्वीट इंसान हैं। एक दिन पहले ही एक एक्सीडेंट से जूझने और रा-वन देखने की हिम्मत रखने वाले अभिषेक उस रात भी महज मुझसे मिलने फरीदाबाद से चले आए थे। ये बस मोहब्बत थी। बिना किसी काम, बगैर किसी प्रोफेशनल रुचि की। रात ढलती रही, वक्त अब खुद पुरज़ोर सिफारिश कर रहा था कि मुझे गुजरना है पर कुछ तो था, जो गुज़र नहीं पाया। हम दोनों एक कृत्रिम झील के किनारे बैठे, बिना किसी कृत्रिमता के दुनिया-जहान की बातें करते रहे। बहुत देर तक भी नहीं...बमुश्किल, 45-50 मिनट। फिर विदा हुए, फिर मिलने की कोशिश के वादे के साथ..."

इन पंक्तियों से चंडीदत्त जी के शब्द कौशल की संपूर्ण तो नहीं मगर एक छोटी सी झलक जरुर मिल गई होगी. उनके जैसे व्यक्तित्व के साथ बिताये वो चंद लम्हे मेरे भी स्मृति पटल पर संगृहीत रहेंगे और आशा करता हूँ कि वो पत्रकारिता में और भी ऊँचाइयाँ हासिल करते हुए हमें भी गौरवान्वित करते रहेंगे. 
चलते-चलते उन्ही की लिखी कुछ पंक्तियाँ -   

तुम रहना स्त्री, बचा रहे जीवन

हे सुनो न स्त्री
तुम, हां बस तुम ही तो हो
जीने का ज़रिया,
गुनगुनाने की वज़ह.
बहती हो कैसे?
साझा करो हमसे सजनी…
होंठ पर गीत बनकर,
ढलकर आंख में आंसू,
छलकती हो दंतपंक्तियों पर उजास भरी हंसी-सी!
उफ़…
तुम इतनी अगाध, असीम, अछोर
बस…एक गुलाबी भोर!
चांद को छलनी से जब झांकती हो तुम,
देखा है कभी ठीक उसी दौरान उसे?
कितना शरमाया रहता है, मुग्ध, बस आंखें मींचे
हां, कभी-कभी पलक उठाकर…
इश्श! वो देखो, मुए ने झांक लिया तुम्हारा गुलाबी चेहरा…
वसंतलता, जलता है वो मुझसे,
तुमसे,
हम दोनों की गुदगुदाती दोस्ती से…
स्त्री…
तुम न होतीं,
तो सच कहो…
होते क्या ये सब पर्व, त्योहार, हंसी-खुशी के मौके?
उत्सव के ज्वार…
मौसम सब के सब, और ये बहारें?
कहां से लाते हम यूं किसी पर, इस कदर मर-मिटने का जज़्बा?
बेढंगे जीवन के बीच, कभी हम यूं दीवाने हो पाते क्या?
कहो न सखी…
जब कभी औचक तुम्हें कमर से थामकर ढुलक गया हूं संपूर्ण,
तुमने कभी-कहीं नहीं धिक्कारा…
सीने से लगाकर माथा मेरा झुककर चूम ही तो लिया…
स्त्री, सच कहता हूं.
तुम हो, तो जीवन के होने का मतलब है…
है एक भरोसा…
कोई सन्नाटा छीन नहीं सकेगा हमारे प्रेम की तुमुल ध्वनि का मधुर कोलाहल
हमारे चुंबनों की मिठास संसार की सारी कड़वाहटों को यूं ही अमृत-रस में तब्दील करती रहेगी.
तुम रहना स्त्री,
हममें बची रहेगी जीवन की अभिलाषा…
उफ़… तुम्हारे न होने पर हो जाते हैं कैसे शब्दकोश बेमानी
आ जाओ, तुम ठीक अभी…
आज खुलकर, पागलों की तरह, लोटपोट होकर हंसने का मन है

Saturday, October 29, 2011

रा-वन : नहीं रख पायेगी किंग खान को नं. वन


काफी प्रचार और ताम-झाम के बीच शाहरुख की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित ' रा-वन ' आख़िरकार दर्शकों के सामने आ ही गई, मगर दर्शकों द्वारा इसके समक्ष अगर कोई फिल्म रखी जा सकती है तो वो सिर्फ़ ऐसी ही अति प्रचारित ' द्रोणा ' ही हो सकती है...

यह सुखद है कि अब डूबते को तिनके का सहारा के कॉन्सेप्ट में हमारे यहाँ साईंस फिक्शन को भी जगह मिल रही है मगर चमत्कारों और अवतारों पर आश्रित हमारे देश में साईंस फिक्शन भी किसी 'सुपर हीरो' के आविर्भाव तक ही सिमट कर रह जा रहे हैं, या यों कहें कि बाल कहानियों की तपस्या और वरदानों की जगह विज्ञान का कोई सिद्धांत ले ले रहा है, और विज्ञान की भूमिका वहीं तक सीमित रह जा रही है. इसके अलावे एक तथ्य जो इस फिल्म ने और प्रतिस्थापित किया है वो यह कि यहाँ के परिवेश में आप खालिस साईंस फिक्शन नहीं बना सकते, उसमें आपको ठेठ हिन्दुस्तानी इमोशंस, रिश्ते, संवेदनाएं डालनी ही होंगीं और हाँ बौलीवुड की पहचान गानों से भी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता. इन मायनों में 'रा-वन' वाकई एक ट्रेंड सेटर बन सकती है जिसका दावा शाहरुख कर रहे हैं.



फिल्म की कहानी एक ऐसे पिता शेखर सुब्रमण्यम की है जो अपने बेटे प्रतीक की नजर में बहुत ही साधारण और डरपोक किस्म का इंसान है, वो उसमें एक सुपर हीरो की तलाश करना चाहता है. उसे  स्ट्रोंग विलेन ज्यादा पसंद हैं जो किसी रुल से बंधे नहीं होते. बुराई पर हमेशा अच्छाई की ही जीत होती है यह समझाते हुए भी    शेखर उसकी खुशी के लिए एक ऐसा वीडियो गेम तैयार करते हैं जिसमें विलेन (रा-वन) हीरो (जी-वन) से ज्यादा पावरफुल होता है. नतीजा रा-वन जो किसी से हार नहीं सकता, जिसे अपनी जीत हर कीमत पर चाहिए -आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में आ जाता है और प्रतीक की जान का दुश्मन बन जाता है. उसकी जान बचाने में शेखर  मारा जाता है, मगर अब उसकी जगह लेने के लिए विडियो गेम का ही दूसरा पात्र जी-वन आ जाता है. और सुपर हीरो जो दुनिया को बचाने की जिम्मेवारी के साथ आगे आते हैं, की तुलना में जी-वन सिर्फ प्रतीक और उसकी माँ सोनिया के इर्द-गिर्द ही अपना सुरक्षा कवच बनाये रखता है और अंत में बुराई का नाश तो होता ही है, रा-वन के सिक्वल की उम्मीद भी बचा ली जाती है. 

हर कलासिक फिल्म में शायद ट्रेन दृश्य अपरिहार्य हैं, रा-वन में भी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल की पृष्ठभूमि में एक ट्रेन दुर्घटना संबंधी दृश्य का वाकई खुबसूरत फिल्मांकन किया गया है.

रजनीकांत की ' चिट्टी ' छवि को शायद बस अपना वरदहस्त देने के लिए इस्तेमाल किया गया है. प्रियंका और संजय दत्त की उपस्थिति भी दर्शकों को कोई विशेष उत्साहित नहीं करती. फिल्म में दृश्यता की कुछ और गुंजाईश बनाये रखने के लिए करीना का अच्छा इस्तेमाल किया गया है. शायद करीना भी एक वजह थी कि फिल्म से पहले एक छोटे एक्सीडेंट से गुजरता हुआ भी मैं इसी सोच के साथ आगे बढ़ा कि " हे बैल, वहीँ खड़ा रह - मैं ही आता हूँ..."

कुछ दृश्य रजनीकांत की 'रोबोट' से प्रेरित भी लगते हैं मगर शायद वो हमारे यहाँ के बाल्यावस्था से गुजरती विज्ञान फंतासी फिल्मों की सीमित संभावनाओं का भी नतीजा है.

जो भी हो विज्ञान की पृष्ठभूमि पर बन रही फिल्मों के प्रयासों को स्वीकार किया जाना चाहिए. हाँ इन फिल्मकारों की भी जिम्मेवारी बनती है कि वो इसके स्तर को आगे बढाएं, न कि अपनी घिसी-पिटी प्रेम कहानियों के लिए मात्र एक नए पृष्ठभूमि की तरह इस्तेमाल करें. वैसे इतना तो स्पष्ट है कि आने वाला समय कुछ अंतराल पर रह-रह कर आने वाले सुपर हीरोज का ही रहेगा और एक वो समय भी आएगा जब ' राज कॉमिक्स' की तरह हमारी फिल्में भी ' कृष-जी वन और शाकाल का कहर' जैसे शीर्षकों के साथ आयेंगीं. यह मेरा फिक्शन है. :-)

चलते-चलते फिल्म में दर्शकों को बैठाये रखने वाले चंद महत्वपूर्ण आकर्षणों में एक - छम्मकछल्लो


Tuesday, October 25, 2011

जगजीत सिंह : एक संगीतमय श्रद्धांजलि


गत 10  अक्तूबर को हमने उस शख्सियत को खो दिया जो जाने कब और कैसे चुप - चाप हमारी साँसों में शामिल हो दिल में कहीं उतर गया था. जगजीत सिंह का जाना मैं अपनी व्यक्तिगत क्षति मानता हूँ. अपने आप का ही साथ सबसे ज्यादा पसन्द करने वाले मेरे जैसे लोगों के पास हर मूड में कभी कोई होता था तो वो निश्चित रूप से जगजीत सिंह ही थे. खुश हुआ तो जगजीत, उदास हुआ तो जगजीत, जीत गया तो जगजीत, हार गया तो जगजीत, भीड़ में रहूँ तो जगजीत, तन्हाई में रहूँ तो जगजीत..... उनकी उपस्थिति को अपने से अलग मानना छोड़ ही दिया था मैंने. ऐसे में उनका जाना मेरे लिए कितना बड़ा मानसिक सदमा था मैं ही समझ सकता हूँ. 

मैं बड़ा ही साधारण आदमी हूँ. भारी-भरकम सिद्धांतों से मैं दूर ही भागता हूँ.  बच्चन जी की मधुशाला से ही मैंने जीवन दर्शन समझ लिया, गांधीजी के गीता पर लिखी टीका से आगे जाने की हिम्मत नहीं हुई और गज़ल जैसी ऊँचे दर्जे की चीज में भी बस जगजीत स्कूल का ही छात्र बने रहने से ज्यादा की आवश्यकता मुझे कभी महसूस नहीं हुई. और यही चीज जगजीत सिंह को बाकी सभी नामी-गिरामी ग़ज़ल गायकों से अलग करेगी कि उन्होंने हाई-प्रोफाइल महफ़िलों और शास्त्रीय दायरों से ग़ज़ल को मुक्त कर आम-से-आम आदमी तक सुलभ करा दिया.खुद भी मेरी कोशिश होती है कि विज्ञान आदि किसी विषय पर लिखी पोस्ट या आर्टिकल को इस प्रकार से लिख सकूँ कि आम-से-आम आदमी को भी सहजता से समझ आ सके. इसी प्रवृत्ति की समानता ने भी शायद मुझे जगजीत सिंह से बांधे रखा था. उनकी चुनी हरेक नज्म, हरेक लफ्ज़ में आम आदमी ने अपने ख्यालों की अभिव्यक्ति पाई; विशेषकर युवाओं ने 'एंग्री यंग मैन' के अलावे भी अंतःकरण में कहीं उभरने वाली भावुक भावनाओं की अभिव्यक्ति में जगजीत सिंह को अपने काफी करीब पाया और शायद जगजीत इस धरती पर उन चंद कारणों में रहे जिसने दो अलग-अलग पीढ़ियों को एक साथ जोड़ा. अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहाँ कि पिता अपने कमरे में जगजीत सिंह की ग़ज़ल  सुन रहे होंगे और दुसरे कमरे में उनके सुपुत्र भी जगजीत सिंह के साथ ही अपने ख्याल साझा कर रहे होंगे. यह तो मात्र मेरे जैसे एक अदना से प्रशंसक की भावनाएं हैं, उन्होंने तो न जाने कितने विज्ञ और सुधि श्रोताओं को अपना मुरीद बना लिया था. ऐसे ही एक प्रशंसक समूह का प्रयास था विगत 24  अक्तूबर को ' अनफोरगेटेबल जगजीत - अ म्यूजिकल ट्रिब्यूट ' ; जिसे सांस्कृतिक संस्था ' परिधि आर्ट ग्रुप ' ने आयोजित किया था. कार्यक्रम के आयोजन में अपूर्वा बजाज, पंकज नारायण और निर्मल वैद जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.



कार्यक्रम में जगजीत सिंह के छोटे भाई श्री करतार सिंह सहित कई परिजनों के अलावे सांसद श्री राजीव शुक्ल भी उपस्थित थे. 
करतार सिंह जी सहित उपस्थित परिजन व अतिथिगण

न्यूज 24  चैनल के मयंक जी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए गुलजार साहब की एक बहुत ही माकूल पंक्ति का उल्लेख किया -
" आज की रात - इस वक़्त के चूल्हे में, एक दोस्त का उपला और गया....." 

श्री आलोक श्रीवास्तव 

जगजीत सिंह जी के लिए कई नज्म लिखने वाले और वर्तमान में टीवी टुडे नेटवर्क के असोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर श्री आलोक श्रीवास्तव जी ने भी जगजीत सिंह से जुडी अपनी कई यादें साझा कीं. 

" मंजिले क्या हैं ! रास्ता क्या है !!
हौसला हो तो फासला क्या है !!!.....
जब भी चाहेगा छीन लेगा उसको, 
सब उसी का है, आपका क्या है !!! "

इस कार्यक्रम को अपनी सुरमय श्रद्धांजलि दी विख्यात ग़ज़ल गायक श्री जितेन्द्र सिंह जाम्ब्वाल और श्री विनोद सहगल ने.


श्री जितेन्द्र सिंह जाम्ब्वाल 












श्री विनोद सहगल 


















जितेन्द्र सिंह द्वारा ' बात निकलेगी ' से जो बात शुरू हुई वो ' चिट्ठी न कोई सन्देश ', ' तुम इतना जो ' से गुजरते हुए विनोद जी के 'ग़ालिब' और 'होठों से छु लो तुम...' जैसे कई स्मृति चिह्नों से गुजरती हुई श्रोताओं को जगजीत सिंह से जुडी यादों के कहीं और करीब लेता गया.

 
अक्ष्दीप 

इस बीच जगजीत सिंह जी के रिश्ते में पौत्र अक्ष्दीप ने भी अपनी संगीतमय श्रद्धांजलि प्रस्तुत की - 

" जिसने  पैरों  के  निशाँ भी नहीं छोड़े पीछे, 
उस मुसाफिर का पता भी नहीं पुछा करते;.....
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते..."  

हमें भी यही उम्मीद है कि जगजीत सिंह के साथ बना हमारा यह रिश्ता समय के साथ और मजबूत ही बनेगा छुटेगा नहीं.....
परिजनों व् दर्शकों के साथ बैठे सांसद श्री राजीव शुक्ल 
प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच कर भी जगजीत आम आदमी की अपनी छवि से कभी अलग नजर नहीं आये. समय के साथ उनकी जिंदगी में आने वाले झंझावातों को जिस दृढ़ता और सौम्यता से उन्होंने स्वीकारा उसने भी उन्हें आम आदमी के और करीब ला दिया. उनका व्यक्तित्व अपने प्रशंसकों के लिए वाकई एक स्वाभाविक आदर्श था. अंतिम समय तक वे संगीत के गिरते स्तर और गीतकारों - संगीतकारों को उनके वाजिब अधिकारों के लिए मुखर आवाज उठाते रहे. उनके प्रशंसक अच्छे संगीत और सच्चे कलाकारों को सम्मान दें तो यह भी जगजीत सिंह जी को एक सार्थक श्रद्धांजलि होगी.

मगर हाँ, इतना जरुर कहना चाहूँगा कि कार्यक्रम से पहले से ही जो सवाल मन में उभर रहा था वो अब भी अनुत्तरित ही है कि भावनाएं तो अब भी उभरती रहेंगीं मगर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए जो आवाज हमने अपने दिल में उतारी थी वो अब कहाँ मिलेगी !!!!!

Thursday, October 20, 2011

जयपुर की शान - राजमंदिर सिनेमा




पिछले दिनों काफी भागम-भाग के बीच रंग और रण की भूमि राजस्थान के जयपुर जाने की अपनी पुरानी इच्छा को साकार करने का मौका मिला. इस संपूर्ण यात्रा पर एक विस्तृत पोस्ट जल्द ही लाने का प्रयास करूँगा, मगर आज चर्चा करूँगा जयपुर की शान और पहचान में से एक ' राजमंदिर सिनेमा ' की. 

यहाँ रिलीज पहली फिल्म थी 'चरस'
भगवान दास रोड पर स्थित 1976 में निर्मित राजमंदिर सिनेमा ' एशिया का गौरव ' भी कहलाता है. आर्किटेक्ट  
W. M. Naamjoshi द्वारा Art Moderne शैली में निर्मित यह सिनेमा हॉल अपनी सुरुचिपूर्ण आंतरिक साज - सज्जा के लिए विश्वप्रसिद्ध है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी.



सिनेमा सहित लगभग हर क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियाँ इस छविगृह में फिल्म देखने का आनंद उठा चुकी हैं. सिनेमा देखने को भी एक अनुभव बना देने वाले इस छविगृह के संबंध में कुछ प्रमुख हस्तियों के विचार, जो वहां सहेजे हुए हैं - 

" It is indeed the Proud of India, and we are Proud of it." - B. R. Chopra
" I wish other exhibitors of India learn from Rajmandir how to exhibit a Film." - Raj Kapoor
"... Undoubtedly the Best Theatre in India." - Yash Chopra 
" What a Wonderful Experience ! "- Amitabh Bacchan 
" दर्शनीय "   - श्री अटल बिहारी वाजपेई 



इसे अपना सौभाग्य ही मानूँगा कि इतने व्यस्त कार्यक्रम में भी यहाँ फिल्म देखने का समय निकाल सका, भले इसके लिए ' रास्कल्स ' से ही निपटना पड़ा, मगर कई बार अच्छे सिनेमा हॉल भी फिल्मों को झेले जाने से बचा ले जाते हैं.


राजमंदिर में फिल्म देखना वाकई अपने-आप में एक अनुभव है, और निश्चित रूप से यहाँ आने पर आपको भी इस अवसर से चूकना नहीं चाहिए.


मैं तो यही कहूँगा कि " जयपुर आये और राजमंदिर में फिल्म न देखे, तो क्या खाक जयपुर आये !!! "

Tuesday, October 18, 2011

सीमान्त प्रान्तों के विकास में जल संसाधनों की भूमिका

देश के सीमान्त प्रदेश अपनी प्राकृतिक समृद्धि से ओत-प्रोत हैं, मगर विकास के मानकों से काफी पीछे भी. यही कारण है कि अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रसित इन प्रान्तों में उपनने वाले आक्रोश को उग्र अभिव्यक्ति दिए जाने के प्रयास भी किये जाते रहे हैं. स्वावलंबी बनने के लिए सिर्फ पर्यटन और पर्यटकों की कृपा दृष्टि पर आश्रित व्यवस्था से मैं सहमत नहीं. उन्हें अपने उपलब्ध संसाधनों का समुचित विकास कर देश की अर्थव्यवस्था में भी अपना योगदान सुनिश्चित करना होगा, तभी वे सही मायने में इस देश के महत्वपूर्ण अंग कहे जा सकेंगे.
'राजभाषा ज्योति' में प्रकाशित लेख 

नौर्थ - ईस्ट हों या जम्मू कश्मीर ये प्रदेश जल संसाधनों से समृद्ध हैं, और यही इनकी ताकत भी हैं. ये सभी प्रदेश खनन आदि की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माने नहीं जा सकते. साथ  ही जल उर्जा अन्य विकल्पों की तुलना में अपेक्षया प्रदुषण रहित भी है. ऐसे में निश्चित रूप से इस विकल्प का उपयुक्त विकास किया जाना चाहिए.  

जिस प्रकार कोई ईमारत अपने मजबूत पायों पर ही सुदृढ़ हो सकती है, उसी प्रकार किसी देश की समृद्धि, सुरक्षा, आदि अपने चारों कोनों की सुदृढ़ता पर ही निर्भर कर सकती है. 

इन्ही विचारों को मैंने उक्त लेख में रखने का प्रयास किया है जो एन. एच. पी. सी. की हिंदी पत्रिका 'राजभाषा ज्योति' में प्रकाशित हुई है. 

आशा है आपकी भी प्रतिक्रिया तथा सुझाव प्राप्त होंगे.

Monday, October 10, 2011

जगजीत सिंह : कहाँ तुम चले गए.....


जगजीत सिंह एक ऐसा नाम, जो पिछले कई वर्षों से संगीत की स्वरलहरियों से गुजरता हमारे दिलों में उतरता रहा, आज उसी संगीत में घुल अमर हो गया है. निःशब्द हूँ, शब्द खो गए हैं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए. और ऐसा हो भी क्यों न शब्दों का जादूगर ही जो चला गया; जो मौसिकी के एक घने साये के समान ही तो था !!!!!

मेरे ही नहीं न जाने कितनी पीढ़ियों और धर्म-उम्र की सीमा से परे प्रशंसकों को न सिर्फ उन्होंने अपनी करिश्माई आवाज से मोहित किया है बल्कि हम सभी ने जाने-अनजाने उन्हें अपने सुख-दुःख, खुशियों और गमों में शामिल भी किया है. कितनी रातें जागते हुए गुजारी हैं हमने आपके साथ और कितने दिनों को आपके सहारे काटा है. आज अपने सभी चाहने वालों को अकेला छोड़ एक अनंत यात्रा पर न जाने कौन से देश की ओर  निकल लिए. जानता हूँ की सृष्टि के इस चक्र से कोई नहीं बच सकता, मगर कुछ लोगों को यह हक़ नहीं मिलना चाहिए - कभी नहीं मिलना चाहिए कि बस मुंह मोड़ा और चल दिए...

कहते हैं जाने वाले को रोकर विदा नहीं करते, मगर कुछ रिश्ते ऐसे बन जाते हैं जो दिमाग से निर्धारित नहीं होते.....

आपने भी जिंदगी में कम गम झेले हों ऐसा नहीं था, मगर संगीत का सहारा आपके पास था अपने गम को छुपाने के लिए, जिसके साथ मुस्कुराते हुए आपने अपना गम तो छुपा लिया मगर हमारे पास तो यह विकल्प भी नहीं है. खैर अब हैं तो बस आपकी ग़ज़लों की विरासत .... और अब वही शायद साथ-साथ रहे हमारे...

आप जहाँ भी रहें, सुकून से रहे, और ईश्वर चित्रा जी को इस दुःख से उबरने की शक्ति दे यही प्रार्थना है.....

अपनी घुड़सवारी के शौक के समान ही खुबसूरत शब्दों पर सवार हो दिल में उतर जाने वाली आवाज के साथ जग को  जीतने वाले जगजीत सिंह  कभी भुलाये नहीं जा सकेंगे.....

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे, मेरी जवानी;
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, 
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी.....



Friday, October 7, 2011

अमूल : वाकई 'द टेस्ट ऑफ इण्डिया'


यह पोस्ट अमूल के किसी भारी-भरकम अध्याय पर आधारित नहीं है बल्कि यह मात्र एक प्रयास है उन डेलिशियस यादों को दोहराने का जो अमूल ने हमसे बांटे हैं अपने अटरली बटरली  एड्स के जरिये.

अमूल के विज्ञापन हमेशा से ही काफी रोचक और सामायिक घटनाक्रम पर तीक्ष्ण नजर रखने वाले रहे हैं. एक दौर था जब बनारस में आँखें जाने-पहचाने मोड़ से गुजरते हुए उस होर्डिंग्स को ढूंढती रहती थीं जिसपर इसके नए एड लगाये जाते थे. तब काफी अफ़सोस हुआ था जब किसी कारणवश उस होर्डिंग को हटा दिया गया था.



अमूल के एड्स हमेशा से ही जनमानस की भावनाओं की अभिव्यक्ति के काफी करीब रहे हैं, चाहे कोई राजनीतिक मुद्दा हो या सामाजिक या मनोरंजक.


हाल में ही 'एप्पल'  के सह संस्थापक स्टीव जौब्स  और नवाब पटौदी को अपने अनूठे अंदाज में श्रद्धांजलि दे अमूल ने अपनी गहरी संवेदनशीलता का भी परिचय दिया है.





अमूल विज्ञापनों के थिंक टैंक के सन्दर्भ में यदि आपके पास भी कोई जानकारी हो तो हमसे भी साझा करें.

अमूल परिवार को उसके सफल और लंबे सफर की शुभकामनाएं.



चलते-चलते यह अमूल - मंथन :

" मेरो गाम कंथा पारे..."

Sunday, October 2, 2011

गांधीजी के विचारों की कालजयिता



कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कभी वेदांत लौट कर आया तो वह अमेरिका में आएगा. ऐसा इसलिए कि भौतिक समृद्धि सहित सभ्यता के हर चरण के चरम पर पहुँच जाने के बाद ही उसके ह्रदय में परम लक्ष्य और शांति की लालसा जागेगी और वह इसे स्वीकृत कर सकेगा. मगर निःसंदेह आज अमेरिका ही नहीं समस्त विश्व एक आतंरिक बेचैनी, अधूरेपन से गुजर रहा है और शांति की एक शीतल छाँव का आकांक्षी है. मगर आध्यात्म के सिद्धांतों को आत्मसात करने के लिए शायद अभी पूर्णतः परिपक्व नहीं हुआ है, और तभी ऐसे में उभरता है एक ऐसा नाम जो इन सिद्धांतों की एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति है - ' महात्मा गांधी '. 

एक आम आदमी किस तरह स्वयं में आत्मिक और आंतरिक विकास सुनिश्चित कर सकता है इसका एक ऐसा व्यावहारिक उदाहरण हैं गाँधी जिन्हें कोई भी अनुकरण कर सकता है. इसीलिए आज समस्त विश्व में ही गाँधी के विचारों को समझने, आत्मसात करने या व्यवहार में उतारने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं. यहाँ तक कि ' मरा-मरा' कहने वाले भी 'राम-राम' कहने को बाध्य हो गए हैं, मगर बाल्मीकि बनने के लिए उनमें सच्चा आत्मिक आग्रह भी होना आवश्यक है. 

आप गाँधी विरोधी भी हों मगर उनसे अछूते नहीं रह सकते. पिछले चंद महिनों में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक लगभग हरेक स्वरूपों में ही गाँधी जी की बनाई लकीर पर चलने की कोशिश करते दिखना इस उपमहाद्वीप में गांधीजी की अपार जनस्वीकार्यता को ही दर्शाता है. 

गांधीजी अपनी स्वीकार्यता, सार्वभौमिकता के लिए किसी सरकारी कर्मकांड या किसी के समर्थन अथवा   आह्वान के मोहताज नहीं हैं. उनके विचारों को नए परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर हम उनपर उपकार नहीं करने वाले, बल्कि उन विचारों तक हमारी निर्बाध उपलब्धता सुनिश्चित कर उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को उपकृत किया है. अब यह तो आधुनिक विचारकों (!) के टेस्ट पर निर्भर करता है कि अब वो उनमें कड़वी दवा ढूंढें या चटपटे मसाले.

आज गांधीजी के विचारों को धरती पर उतारने वाले कई युवा और संगठन निःस्वार्थ भाव से गाँवों में जाकर उनके आदर्श ग्राम के स्वप्न को धरती पर उतरने के प्रयास कर रहे हैं. गांधीजी की आत्मा और उनका आशीर्वाद उन निःस्वार्थ कर्मयोगियों के बीच ही विद्यमान है. मैं बार - बार यह कहता रहा हूँ कि अहिंसा के पुजारी एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी लोग उसे सकारात्मक / नकारात्मक किसी भी पक्ष में भूलते नहीं और उनके समकालीन या पूर्व अथवा बाद में बने कट्टरपंथी संगठनों से अपेक्षित संख्या में जुड़ते नहीं तो कहीं-न-कहीं उस दुबले-पतले, इकहरे आदमी  में कुछ तो बात रही ही होगी. शायद तभी आज कहीं दुनिया की बड़ी कंपनिया उन्हें सबसे बेहतर सीईओ के रूप में देखती है तो सर्वशक्तिमान देश के मुखिया उनके सानिध्य की आकांक्षा रखते हैं. 

आज चाहे-अनचाहे कई संगठन अपने -आपको गांधिमार्गी  प्रदर्शित करने का मुखौटा  लिए  घूम रहे हैं, मगर विश्वास है कि हिंदुस्तान की संवेदनशील और विवेकी जनता उन मुखौटों के पीछे छुपी सच्चाई को पहचानने में पुनः अपनी सक्षमता का परिचय देगी.

आज के इस पावन अवसर पर गांधीजी के विचारों के मूर्त रूप आदरणीय लाल बहादुर शास्त्री जी को भी नमन.

Thursday, September 29, 2011

रंगमंच पर उतरे 'मुखौटे'



मुखौटों की दुनिया मे रहता है आदमी,
मुखौटों पर मुखौटे लगता है आदमी;
बार बार बदलकर देखता है मुखौटा,
फिर नया मुखौटा लगाता है आदमी..... - (डा. ए. कीर्तिवर्द्धन अग्रवाल) 

जी हाँ अपने चेहरे पर असंख्य नकली चेहरे लगाये, दुनिया के सबसे सभ्य प्रजाति होने का दावा करने वाला मनुष्य अभी भी कितना अमानुषिक और पाशविक है यह सच इन मुखौटों के पीछे ही छुपा है. मगर क्या वाकई उसके कृत्य उसे पाशविक कहे जाने के काबिल भी छोड़ते हैं ? क्या कभी पशु ने पशु के साथ छल-कपट किया है ? क्या उनमें कभी विश्व युद्ध हुआ है ? नाना प्रकारों से अपने साथी को रिझाने वाले इन जीवों को क्या कभी किसी ने कुंठा या आवेश में बलात्कार करते देखा है ??? ये सारे  कुकृत्य मनुष्य ही करता है और अपने झूठे उसूलों, आदर्शों के मुखौटे तले अपनी मूल विकृतियों को छुपाने की असफल चेष्टा करता है. 

मुखौटों का यह खेल इंसान अपने- आप के साथ तो खेलता ही है, स्त्री बनाम पुरुष (या Vice  - Versa भी), व्यक्ति बनाम समाज, राजनीति बनाम आम आदमी ही नहीं दो राष्ट्रों के मध्य भी यह क्षद्म दांव-पेंच चलते रहते हैं. मुखौटों के इस प्रपंच और इन्सान में नैतिकता की नपुंसकता और बढ़ते लालच ने इस ब्रह्माण्ड को भी टुकड़ों में बाँट दिया है. एक और शोषक हैं और दूसरी तरफ शोषित. शोषक और शोषितों के मध्य की यह खाई बढती ही जा रही है. हाँ कभी-कभी एक पक्ष अपनी तात्कालिक दावों से बाजी जीतता हुआ लगता तो है, मगर अंततः वह खुद को उन्ही मुखौटों के शिकंजे में घिरा पता है, जिससे उबरने की उसने पहल शुरू की थी. 

कुछ ऐसे ही विचारोत्तेजक मुद्दों को स्पर्श करता हुआ सक्षम थियेटर समूह के नाट्य समारोह की अंतिम प्रस्तुति ' मुखौटे '; जिसके लेखक थे हमीदुल्ला और निर्देशन किया था सुनील रावत जी ने. 
पत्नी के सामने आदर्श का मुखौटा 

एक पति जो अपनी नपुंसकता को छुपाने के लिए अपनी पत्नी पर दबाव डालता है पौराणिक नियोग प्रथा के मुखौटे के नाम पर, तो एक पत्नी जो अपने पूर्व प्रेमी से संबंधों को आधुनिकता का परिचायक मानती है इस वैचारिक मुखौटे के साथ कि हर स्त्री अपने आप में पूर्ण सक्षम है, और उसने अब नारी शरीर की नियति में मरना नहीं जीना सीख लिया है. उसके अनुभवों के अनुसार कमजोर पात्र की इस गन्दगी में कोई जगह नहीं.

पारंपरिकता से स्वतंत्रता और आधुनिकता  का मुखौटा 
और वहीँ समाज के शोषित, वंचित वर्गों के प्रतिनिधि वन्य प्राणियों का भी एक समूह है जो सत्ता से अपने लिए अधिकार और सम्मान की मांग करता है. मगर सत्ता जो शेर की तरह ताकतवर है और लोमड़ी की तरह चालाक, जो सच्चे और ताकतवर को देखने की आदि नहीं उन ' वन्य प्रतिनिधियों' को भी अपने शब्दजाल, सम्मान, बौद्धिकता के भ्रमजाल में उलझा एक ऐसे नशे में मदहोश कर देती है कि वो अपने लक्ष्य से ही भटक जाते हैं. (क्या सत्ता सदियों से समस्त विश्व में भी ऐसा ही खेल नहीं खेलती आ रही ! )

शोषितों की मांग उठाने से पूर्व बौद्धिकता का वैश्विक मुखौटा 
सत्ता के पास भटकाने के लिए वैचारिक और बौद्धिक क्रांति की कवायदें हैं, अन्तराष्ट्रीय संकट हैं, आर्थिक संकट हैं, घरेलु उलझनें हैं और तब तक उत्पीड़ितों के लिए सिर्फ आश्वासन और परिवर्तन का इंतज़ार. मुखौटों के इस खेल में असली मुद्दे, असली चेहरे खो ही जाते हैं, इन मुखौटों के उतरने, सच्चाई सामने आने और असली क्रांति लाने के लिए रह जाता है तो बस इंतज़ार.

इंतजार - जब तक कि समानता और सम्मान धरती पर उतरे...
जीवन और समाज की कडवी सच्चाइयों को सामने लाने में काफी सक्षम रहा है यह नाटक. और इसमें इसके कलाकारों और निर्देशक सहित पूरे टीम की उल्लेखनीय भूमिका रही है. नाटक के प्रमुख कलाकारों में अनामिका वशिष्ठ, विनीता नायक, विक्रमादित्य, आर्यन चौधरी, नवीन आदि की प्रमुख भूमिका रही. कई ज्वलंत सवालों से जुड़े नाटकों की प्रस्तुति के साथ सक्षम थियेटर समूह का यह आयोजन अभी तो समाप्त हो गया है, मगर आशा है जल्द ही लौटेगा कुछ नई प्रस्तुतियों के साथ. इस समूह और इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हार्दिक शुभकामनाएं. 

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