Monday, November 11, 2013

मिथिलांचल का भाई-बहन के प्रेम से जुड़ा लोकपर्व सामा-चकेवा

मिथिलांचल की मिट्टी अपनी कला और संस्कृति की सोंधी खुशबू के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के कई पारंपरिक पर्वों में एक नाम सामा-चकेवा भी है। भाई-बहन के प्रेम के प्रकटीकरण से जुड़े पर्वों की शृंखला में एक यह भी है। कार्तिक माह की सप्तमी तिथि से पूर्णिमा तक आयोजित होने वाला 9 दिवसीय यह पर्व प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक भी है। व्रत के अंतिम दिन बहनें अपने भाई को चावल, दही और गुड खिलाती हैं और बदले में भाई उन्हे उपहार देते हैं। कहते हैं हिमालय से आने वाले प्रवासी पक्षियों के आगमन के उत्सव के रूप में भी इस पर्व की मान्यता है। इसीलिए महिलाएँ इस पर्व पर मिट्टी से पक्षियों  की आकृति बनाती हैं और उन्हे सजाती हैं। पर्व के अंतिम दिन इन प्रतिमाओं को जलाशयों में प्रवाहित कर दिया जाता है, इस कामना के साथ के ये पक्षी अगले जाड़ों में प्रसन्नता और सौभाग्य लिए फिर लौटें। समाज को प्रकृति से जोड़ने का अनोखा अंदाज है ये ! एक और मायने में यह इस क्षेत्र की पारंपरिक कला के संरक्षण का माध्यम भी है। पौराणिक मान्यता के अनुसार एक कथा कृष्ण के पुत्र साम्ब और पुत्री सामा से भी जुड़ी है। किसी की चुगली की वजह से कृष्ण अपनी पुत्री और उसके पति से नाराज हो गए और उन्हे चकवी और चकवा पक्षी बनने का शाप दे दिया, जिनकी नियति दिन में तो साथ रहना है मगर रात में अलग हो जाना है। बाद में साम्ब के प्रयास से उनकी नाराज़गी दूर होती है। इसीलिए इस पर्व में महिलाओं द्वारा ‘चुगला’ का प्रतीकात्मक दहन भी किया जाता है। इस प्रकार यह पर्व एक आम सामाजिक बुराई जो कई गलतफहमियों - खासकर नजदीकी संबंधों में - के विरुद्ध एक संदेश भी देती है। बाजार के प्रभाव में अब खुद मूर्तियाँ बनाने की जगह रेडीमेड मूर्तिया खरीदने का चलन भी बढ़ता जा रहा है। यह ये भी स्पष्ट दिखाता है कि प्रतीकात्मक मान्यताएँ किस प्रकार व्यक्तिवादी स्वरूप लेने लगती हैं। पक्षियों की मूर्ति की जगह अभी सामा की मूर्ति और कल किसी देवी-देवता का चेहरा सामने रख कर्मकांड का आरंभ !!! जागरूकता और चेतना से ही ऐसे पर्वों के पारंपरिक स्वरूप बचाए जा सकते हैं, और इसके लिए सार्थक कोशिश की जानी भी चाहिए। प्रकृति, संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों को समर्पित इस सुंदर पर्व की शुभकामनाएँ...

Tuesday, November 5, 2013

लाल क़िले से लाल ग्रह तक:


पिछले वर्ष जब लाल क़िले से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मिशन मार्स की घोषणा की थी तो यह उम्मीद  काफी कम लोगों को ही महसूस हुई होगी कि इतने कम समय में ही हमारे यान द्वारा इस यात्रा के लिए काउंटडाउन शुरू हो जाएगा। लालफ़ीताशाही और कार्यों की धीमी रफ्तार की जैसी छवि हमारी बन गई है, उसमें ऐसा स्वाभाविक भी था। कई लोग इसे चुनावी शोशा कह सकते हैं, कई लोगों की नजर में यह संसाधनों का अपव्यय है। ऐसी आलोचनाओं के स्वर अन्य विकसित देशों में भी उठते रहे हैं। मगर सौभाग्य से सारे विश्व के ही अंतरिक्षविज्ञानी इस ऊहापोह और विचार मंथन से परे रहे हैं। इसरो देश के उन चंद संस्थानों में से है जो तमाम आलोचना और सराहनाओं से परे अपने लक्ष्य पर एक कर्मयोगी की तरह केंद्रित है। इसके कई अभियान अतिशय सफल हुये हैं तो कुछ सीधे शब्दों में पानी में समा गए हैं। मगर इसके प्रयासों पर से हमारा भरोसा डिगा नहीं कभी। और शायद इसी ने इसे आगे और बेहतर करने की प्रेरणा भी दी।
औद्द्योगिक क्रांति में हम पहले ही पिछड़ चुके थे। सूचना क्रांति में तमाम अनुभवी और दूरदर्शी लोगों की मान्यताओं को नकार हमारे तत्कालीन अपरिपक्व नेतृत्व ने समय रहते सार्थक पहल की जिसके नतीजे आईटी के क्षेत्र में थोड़ी साख के रूप में हमारे सामने है। भविष्य के अंतरिक्ष युग में भी समय रहते हमारी भागीदारी जरूरी है। चंद्रमा से जुड़े अभियानों में भी हम पीछे रहे, इस कारण मिशन चंद्रयान से हमारी जिम्मेवारी बड़ी थी। क्योंकि अबतक हुई खोजों और मिली जानकारी से आगे कुछ ढूँढ पाने की चुनौती थी। पानी की संभावना से जुड़ी खोज ने हमारे अभियान को नए मायने दिये। ऐसे अभियानों की यही जिम्मेवारी होती है। मिशन मार्स से भी यही जिम्मेवारी जुड़ी है। 60 के दशक से ही मंगल को लेकर अभियान चलते रहे हैं। कुछ असफलताओं के बाद अमेरिका, रूस और कुछ यूरोपीय अभियानों को खासी सफलता मिली है। हमारे सामने चुनौती इस मायने में भी बड़ी है कि एशिया से जापान और चीन के मंगल अभियानों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है। यह मात्र एशिया से कोई अंतरिक्ष होड़ नहीं है। अंतरिक्ष की विपुल संभावनाओं के मद्देनजर यह भागीदारी समय की आवश्यकता है। हमारे अंटार्कटिका अभियानों की तरह ही। यदि यहाँ मीथेन की उपस्थिति से जुड़े कुछ पुख्ता प्रमाण मिले तो यह वहाँ जीवन की संभावना को लेकर बड़ी उपलब्धि होगी। धरती की बढ़ती माँग के मद्देनजर अंतरिक्ष में खनन, कृषि और आगे के अभियानों के लिए स्टेशन बनाए जाने की संभावनाओं के मद्देनजर भी ये अभियान आवश्यक हैं। 
यहाँ मेरी यह बात शायद किसी को ठेस पहुँचा सकती है, मगर मैंने पाया है कि कई उत्तर भारतीय वैज्ञानिकों को यह मलाल है कि अरबों रुपये पानी में डुबो देने पर भी इसरो पर सरकार इतनी मेहरबान क्यों है ! मेरे ख्याल से इसके लिए उन्हे अपनी मानसिकता, सोच और कार्यशैली पर भी विचार करने की जरूरत है।

बहरहाल, इस मंगल अभियान के लिए अपने वैज्ञानिकों और इस अभियान से जुड़े हर व्यक्ति को इसकी सफलता के लिए मंगलकामना.....  

Monday, November 4, 2013

पुनरप्रतिष्ठा की बाट जोहती विरासत- नारानाग मंदिर समूह, कश्मीर

नारानाग मंदिर के भग्नावशेष
 
कश्मीर की एक समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा रही है। भौगोलिक-ऐतिहासिक कारणों से यहाँ सभ्यता की विभिन्नता  स्पष्ट दिखती है। यहाँ पाये जाने वाले प्राचीनतम आर्य परंपरा के कई अवशेष आज भी इसके भव्य अतीत की झलक उपस्थित करवाते हैं। इन्ही में से एक है कश्मीर घाटी स्थित नारानाग के प्राचीन मंदिर समूह के अवशेष। श्रीनगर-सोनमर्ग  मार्ग से गुजरते पर्यटकों को शायद ही यह एहसास होगा कि अंजाने में वो मार्ग में पड़ने वाली एक प्राचीन विरासत से अनभिज्ञ गुजरते जा रहे हैं। इसी मार्ग पर श्रीनगर से लगभग 50 किमी दूरी पर स्थित गांदरबल जिले में कंगन के क्षेत्र के अंतर्गत आता है गाँव - नारानाग। वाँगथ नदी के किनारे बसा यह गाँव अपनी प्राकृतिक सुंदरता से तो समृद्ध है ही, इसकी अपनी ही एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत भी है। यह गाँव प्रसिद्ध धार्मिक यात्रा जो हरमुख (या हरिमुख !) पर्वत तक संपन्न होती है का भी प्रारंभ स्थल है। यह पीर पंजाल श्रेणी के कई ट्रेकिंग स्थलों के भी कई प्रमुख बिंदुओं जैसे गदसर झील, विशंसर झील, कृष्णसर झील आदि का प्रारंभिक पड़ाव भी है । ट्रेकरों के लिए यहाँ ग्रामीण कई जरूरी सुविधाएँ भी उपलब्ध करवाते हैं।
खंडहर बताते हैं कि ईमारत बुलंद थी कि उक्ति को चरितार्थ करता यह मंदिर समूह इसी गाँव में स्थित है। आर्कियोलौजी विभाग के अनुसार इस गाँव का प्राचीन नाम सोदरतीर्थ था, जो तत्कालीन तीर्थयात्रा स्थलों में एक प्रमुख नाम था।  यहाँ स्थित मंदिर समूह दो भागों में बंटा है। दोनों भाग भगवान शिव की प्रतिमा को समर्पित माने गए हैं। किन्तु एक में भगवान शिव और दूसरे में भगवान भैरव की प्रतिमा की बात भी कही जाती है। प्रथम भाग में तो किसी कारणवश हाल ही में द्वार लगा बंद किया गया है, मगर दूसरे भाग में मुख्य मंदिर जो प्रतिमाविहीन है के बाईं ओर पाषाण पर तराशकर ही बनाया हुआ एक शिवलिंग अभी भी विद्यमान है।
 
शिवलिंग के निकट मेरा पुत्र शिवांश
शेष मंदिर समूह ध्वस्त हैं, किन्तु आस-पास बिखरे अवशेष ही इसके भव्य और गौरवमय अतीत की कहानी बता देते हैं। मंदिर के सामने पाषाण निर्मित ही जलसंचय पात्र है जो संभवतः धार्मिक प्रयोजन में प्रयुक्त होता रहा हो। मंदिर पर चढ़ाए जल की निकासी के लिए नालियों की बनावट भी स्पष्ट दिखती है। मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक प्राचीन कुंड भी निर्मित है। पाषाणों से बनाई इसकी चारदीवारी पर कभी कई कलाकृतियों से भी सुसज्जित रही होगी, जिसकी थोड़ी झलक आज भी मिलती है। पहाड़ों के अंदर स्थित जल को इस कुंड तक लाने और अवशिष्ट जल को समीपवर्ती नदी तक ले जाने के लिए नालियों जैसी व्यवस्था उस प्राचीन इंजीनियरिंग की बस एक छोटी सी झलक मात्र है। विशाल ग्रेनाइट पत्थरों को बिना सिमेंटिंग अवयव के जोड़ ऐसी संरचनाएँ स्थापित करना पर्यटकों को आज भी अचंभित करता है। समझा जाता है कि इस मंदिर समूह का निर्माण 7-8 वीं शताब्दी में राजा ललितदित्य के राजकाल में किया गया। कलांतर में विदेशी आक्रमण और शासकों में से कई की घृणा और उपेक्षा का शिकार इस समृद्ध विरासत को भी बनना पड़ा। फिलहाल उपेक्षित  सी इस विरासत को अतिक्रमण से बचाने के लिए सरकार द्वारा इसकी घेरेबंदी के कुछ तात्कालिक प्रयास किए गए हैं और लगभग 2 दशकों से पटरी से उतरे पर्यटन को इन स्थलों के माध्यम से दुरुस्त किए जाने की योजना की भी चर्चा है।

प्राचीन कुंड जिसमें पानी के आगमन और निकास की तकनीक अप्रतीम है
हाल में भी कई जगह सांस्कृतिक विरासतों को घृणा का शिकार बनते देखा गया है। यह समझा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत किसी एक मज़हब के नहीं होते। वो हमारा वैश्विक साझा इतिहास हैं और हमारे भविष्य के एक आधार भी। उनका संरक्षण और सम्मान हमारे लिए अपरिहार्य होना चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि इन स्थलों को विरासत सूची में शामिल करवा इन्हे इनका वाजिब सम्मान सुनिश्चित करवाने की ओर गंभीर प्रयास करे।
 
 

Saturday, October 12, 2013

पहचान की बाट जोहती कश्मीर की एक प्राचीन विरासत...


धरती का स्वर्ग कश्मीर जो अक्सर नकारात्मक कारणों से ही चर्चा में रहता रहा है, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी भारत के प्राचीन इतिहास के कई पन्नों को अब भी सहेजे हुए है. भले ये पन्ने अब पीले से पड़ चुके होंय उनमें से कुछ बुरी तरह फटे-चीते भी हों – पारखियों की नजर उनमें अपने अतीत के कुछ संस्मरण ढूंढ ही लेंगीं. ऐसी ही पारखी नजरों की बाट जोह रहे हैं कश्मीर घाटी के गांदरबल जिला स्थित मानसबल (कुछ मान्यताओं के अनुसार मानसरोवर का अपभ्रंश) झील के निकट स्थित एक प्राचीन मंदिर के अवशेष. मानसबल विकास प्राधिकरण के द्वारा इस क्षेत्र के पुनरूद्धार कार्यक्रम के दौरान जमीन में धंसे इस मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए. 


प्राचीन कश्मीर की पारंपरिक आर्य शैली में बने इस मंदिर की कालावधि 8-9 वीं शताब्दी मानी जा रही है. इसके पिरामिडाकार शिखर इसे एक अलग ही स्वरुप देते हैं (जो फिलहाल तो स्थानीय बच्चों के इनपर चढ नीचे पानी में कूदने के लिए ही प्रयोग आ रहे हैं...). जलकुंड के मध्य स्थित यह मंदिर कभी अपने वास्तुशिल्प में भी विशिष्ट स्थान रखता होगा. आतंरिक जलश्रोतों की ससंभावित उपस्थिति के कारण बढते जलस्तर के कारण भी इसके पुनरुद्धार में प्राधिकरण को कठिनाइयाँ आती रही हैं. क्षेत्रीय अख़बारों के अनुसार कुछ स्थानीय लोगों ने यहाँ हर शुक्रवार को एक सांप के दिखने की बात भी कही है, जिसकी तस्वीर नहीं ली जा सकी.
मान्यताओं से परे यह एक ऐसा स्थल तो है ही जो इतिहास से वर्तमान में अपने वाजिब स्थान और पहचान का अधिकारी है और इसे इसकी वास्तविक पहचान मिलनी ही चाहिए.....

Monday, June 3, 2013

किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी .....

(बढते महिला अपराधों पर)


रांची जैसे छोटे शहरों से लेकर मुंबई जैसे महानगरों तक महिला अपराधों के बढते सिलसिले चिंताजनक रूप लेते जा रहे हैं. निश्चित रूप से इनमें से अधिकांश के पीछे एकतरफा प्यार जैसे ही मामले हैं. मगर ये कैसा प्यार है जो प्रतिक्रिया में इंसान को इतना हिंसक बना देता है कि उसे अपने प्यार ही नहीं बल्कि अपने भविष्य की भी फ़िक्र नहीं रह जाती. वर्तमान भारतीय मानस को प्रभावित करने में साहित्य और सिनेमा दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है. हमारे साहित्य में भी असफल प्रेमियों ने स्त्री को ही हर दोष की खान माना. बेवफा, स्वार्थी जाने कितने तमगे उन्हें थमाने में पुरुषों की निराशा की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. ‘प्यासा’ के चोट खाए विजय से देवदास द्वारा मानिनी पारो की सुंदरता पर दाग लगा जाने की मानसिकता के पीछे पुरुषत्व को ठेस लगने की मानसिकता भी रही. बाद में डर, अंजाम जैसी फिल्मों ने प्यार पर जबरन अधिकार ज़माने की सोच को वैधता सी ही दे दी. विश्व सिनेमा में भी ऐसे ही बदलाव आ रहे थे. और बेशक इन चीजों के महिमामंडन ने कुंठित युवाओं में खुद को नकारे जाने पर इन्तक़ाम को लेकर उनमें एक शहीदाना एहसास भी भर दिया.

मगर क्या प्रेम मात्र ऐसी सतही भावना है, जो अस्वीकृति की दशा में अपने प्रेम के लिए इतना हिंसक स्वरुप अख्तियार कर ले ! अगर पुरुष को अपने प्रेम की अभिव्यक्ती का अधिकार है तो स्त्रियों को भी उसे स्वीकृत या अस्वीकृत करने का उतना ही अधिकार है. सही या गलत निर्णय की पहचान तो वक्त ही कराएगा. प्रेम में वर्चस्व ज़माने की भावना के पीछे Anthropological और जैविकीय करण भी हैं. जानवरों में तो इन प्रवृत्तियों के कारण समझे जा सकते हैं, मगर सभ्यता की राह पर लगातार आगे बढते जा रहे मनुष्यों में इस प्रवृत्ति का उग्र होना निराशाजनक है, जिसका शमन होना ही चाहिए.

मैं तो प्रेम में निराश पुरुषों से यही कहना कहूँगा कि वो अपने जीवन को ‘प्यासा’ के विजय की तरह निराशा में डुबोने या ‘डर’ के राहुल की तरह प्रतिशोध में बर्बाद कर हीरो जैसी फीलिंग महसूस करने के बजाये खुद को इतना सफल बनाएँ कि अगले को महसूस हो कि उसने क्या खो दिया है, जो कल उसका भी हो सकता था.....

यूँ तो बात पुरुषों के प्रतिशोध की हो रही है, वैसे ध्यान रखें कि कहा तो यह भी जाता है कि बदला लेने और प्रेम करने में नारी पुरुष से अधिक निर्दयी होती है (नीत्शे).

वैसे हमारी सरकार जो बात-बात पर कानून बना देने में ही विश्वास करती है, एसिड की बिक्री और उसके प्रयोग पर भी नियंत्रण के लिए कारगर कदम उठाये. पडोसी बंगलादेश ने जब ऐसा कर पाने में उल्लेखनीय सफलता पा ली है तो हम भी ऐसा कर ही सकते हैं..... 

Tuesday, May 21, 2013

कश्मीर : रुसी पोपलर वृक्ष का कहर...



हिमपात खत्म होने के बाद बदलते मौसम में कश्मीर की वादियाँ जहाँ अपनी खूबसूरती की नई परतें उतार रही थीं, वहीँ एक नई प्राकृतिक समस्या भी उभर रही है. मगर ये समस्या आयातीत ही ज्यादा प्रतीत हो रही है. रुसी पोपलर के नाम से जाने वाले एक वृक्ष से रुई की तरह उड़ते पराग से स्थानीय निवासियों में एलर्जी की समस्या खतरनाक रूप से बढ़ रही है.


 जल्दी बढ़ने की खासियत को देखते हुए 80 के दशक में सामाजिक वानिकी योजना के तहत यहाँ ‘रुसी चिनार’ भी कहलाये जाने वाले इन वृक्षों का रोपण करवाया गया था, मगर आज इस मौसम में ये सांस तथा स्वास्थ्य संबंधी कई बिमारियों की वजह बनते जा रहे हैं. वैसे ही जैसे आज देश के दूसरे हिस्सों से यूकेलिप्टस, गाजर घास जैसी प्रजातियों के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं. फिलहाल तो श्रीनगर जिला प्रशासन द्वारा इन पेड़ों के लगाये जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. पहले से मौजूद पेड़ों को हटाने के लिए विशेषज्ञों से रिपोर्ट भी मांगी गई है.

अक्सर पाया जाता है कि इस तरह के आयातीत समाधान हमारी समस्याओं को बढ़ाने वाले ही साबित हुए हैं. ऐसे में क्या उचित नहीं कि ऐसे किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले उचित शोध और कृषि वैज्ञानिकों से पर्याप्त चर्चा व सहमति कायम करने के प्रयास कर लिए जायें ! ताकि हमारे देश का पर्यावरण सुरक्षित रह सके.....


Wednesday, January 30, 2013

गांधीजी की स्मृति में.....




श्री असगर वजाहत जी हिंदी के एक प्रसिद्ध रचनाकार हैं. उनके द्वारा लिखित एक बहुचर्चित नाटक ‘जित लाहौर नइं वेख्या...’ देखने का सुअवसर मुझे दिल्ली में रहते मिला था. उन्ही दिनों उनका एक और नाटक ‘गोडसे@गाँधी.कॉम’ भी एक पत्रिका में पढा. वर्तमान परिदृश्य में इस नाटक की चर्चा आवश्यक समझते हुए इसे  साझा कर रहा हूँ.

नाटक में गाँधी और गोडसे के विषय को ही नहीं, बल्कि गाँधी विचार व उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को भी स्पर्श करने का प्रयास किया गया है. नाटक की पृष्ठभूमि में गोडसे द्वारा गांधीजी पर गोली चलाये जाने की घटना ही है. नाटक के अनुसार गांधीजी इस हमले में जीवित बच जाते हैं और अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद गोडसे से मिल उसे क्षमा कर देते हैं. वो विस्मित है और इसे उनका कोई नया नाटक समझ रहा है, मगर उसकी अपेक्षाओं के विपरीत उसे 5 साल की ही सजा मिलती है.

दूसरी ओर गांधीजी नेहरु आदि नेताओं को समझते हैं कि कांग्रेस जो एक खुला मंच थी जिसमें हर विचार के लोग शामिल हुए को एक पार्टी का रूप देना उचित नहीं, अतः अब इसे भंग कर गाँवों में जा देशसेवा करनी चाहिए. मगर उनका यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है. कांग्रेस से नाता तोड़ गाँधीजी  ‘बिहार’ के एक सुदूरवर्ती आदिवासी गाँव में अपना ‘प्रयोग आश्रम’ स्थापित कर लेते हैं. उनका यह गाँव ‘ग्राम-स्वराज’ की एक जिवंत मिसाल बन जाता है जिसकी अपनी सरकार और शासन है और जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देश की संसद के निर्णयों पर आश्रित नहीं. देश के अंदर ऐसे शासन की अवधारणा दिल्ली में खतरनाक मानी गई और गांधीजी स्वतन्त्र भारत की निर्वाचित सरकार द्वारा पुनः गिरफ्तार कर लिए जाते हैं.

यहाँ गांधीजी ने स्वयं को गोडसे के साथ रखे जाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया. उनकी मांग मानी गई और गांधीजी और गोडसे के मध्य विचारों के आदान-प्रदान की एक लंबी श्रंखला आरंभ हुई. दोनों के बीच ‘हिंदुत्व’ जैसे कई विषयों को लेकर अपनी चर्चा चलती रहती है और वह दिन भी आता है जब दोनों एक ही साथ रिहा होते हैं. चलते वक्त गांधीजी गोडसे से बस इतना ही कहते हैं कि – “ नाथूराम... मैं जा रहा हूँ. वही करता रहूँगा जो कर रहा था. तुम भी शायद वही करते रहोगे जो कर रहे थे.” नाटक के अंत में तो दोनों पात्र एक साथ एक ही राह की ओर चल देते हैं, मगर शायद दोनों की विचारधाराएं आज भी अपना-अपना काम ही कर रही हैं या शायद यह एक राजनीतिक प्रहसन ही है देश सेवा के बदले देश सेवा के लिए शासन का अवसर पाने की कवायद का...
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