Wednesday, November 28, 2018

आम आदमी के जज़्बातों की आवाज मोहम्मद अज़ीज़: एक दौर का गुजर जाना...


तू याद बहुत आएगा तो...   



80 का दौर हिन्दी सिनेमा में संगीत के लिहाज से सबसे बुरे दौर में एक माना जाता है। जब मुख्यधारा की फिल्मों में हिंसा, अश्लीलता, द्वियार्थी संवाद अपनी जगह बना चुके थे, रफी, मुकेश, किशोर के दौर का संगीत खत्म ही हो चुका था। फिल्मों में गानों की जगह बस जगह भरने या हीरोईनों के होने का औचित्य सिद्ध करने के लिए थी। डिस्को, पौप के खिचड़ी शोर में मधुर फिल्मी गीतों की परंपरा खो सी चुकी थी। ऐसे में कुछ गीतकार/संगीतकर जब मौका मिले कुछ छाप छोड़ जाते थे और इसमें उनका साथ देने वाली जो आवाजें आज भी ज़हन में उभरती हैं वो हैं मोहम्मद अज़ीज़ और शब्बीर कुमार की।
2 जुलाई 1954 को पश्चिम बंगाल के अशोक नगर में जन्मे मोहम्मद अज़ीज़ ने संगीत सफर की शुरुआत कोलकाता के 'ग़ालिब' रेस्टोरेन्ट से की। उनकी पहली फिल्म बांग्ला में 'ज्योति' थी। उनके परिवार में संगीत के लिए कोई खास जगह न थी, पर तमाम विरोध और संघर्ष के साथ उन्होंने यह राह चुनी। 'किराना घराना' के उस्ताद अमीर अहमद खाँ की शागिर्दी में संगीत की शिक्षा ली। मोहम्मद रफी  के बड़े फैन होने के नाते स्टेज शो आदि में भी उनके गीत गाते रहे। ऐसे ही एक शो में अन्नू मलिक ने उन्हें देखा, जो खुद भी उस दौर में स्ट्रगल कर रहे थे। बाद में दोनों ने कई फिल्में साथ कीं। 1984 में वो मुंबई आए और यहाँ उनकी पहली हिन्दी फिल्म 'अंबर' थी। 'मर्द' के टाइटल सॉन्ग 'मर्द तांगेवाला' से हिन्दी संगीतप्रेमियों में वो प्रसिद्ध हुये और अपने संगीत सफर में लगभग 20000 गीत गाए। 80 के दशक से गुजरने वाले लोगों की स्मृति के ज़्यादातर गीतों में इन्हीं की आवाज गूँजती होगी। रोमांस, दर्द, शरारती... आदि हर मूड के गानों में आप उनकी आवाज पाएंगे। अमिताभ के साथ उनका साथ कई फिल्मों का रहा, एक समय तो वो अमिताभ की आवाज के रूप में पहचाने जाते रहे। गोविंदा की पहली फिल्म 'लव 86' और आगे भी उनके कई हिट गानों को उनकी आवाज मिली।    


एकल गानों में- आज कल याद कुछ और रहता नहीं (नगीना), तेरी बेवफाई का (राम अवतार), सावन के झूलों ने (निगाहें)... आदि। लता के साथ 'पतझड़ सावन बसंत बहार' (सिंदूर) में उनको इंट्री गाने को और खिला देती है। आज सुबह जब मैं जागा' (आग और शोला) आज भी किसी-किसी सुबह याद आ ही जाता है। मनहर के साथ का 'तू कल चला जाएगा...' (नाम) भी उनका लगातार सुना जाने वाला गीत है। 'मर्द' के अलावा अमिताभ के लिए 'खुदा गवाह', अनिल कपूर के सिग्नेचर सॉन्ग 'माई नेम इज लखन', तो गोविंदा के 'मय से, मीना से, न साकी से' और कर्मा के 'ऐ वतन तेरे लिए' जैसे गानों के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे। कहते हैं सातवें सुर में गाने वाले चुनिंदा गायकों में थे वे, जिसके उदाहरण के रूप में 'सारे शिकवे गिले भुला के कहो' गीत को लिया जाता है। इसीलिए लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के ये पसंदीदा गायकों में रहे।इस जोड़ी के टूटने के बाद इनका कैरियर भी ढलान पर आ गया।


वो आम आदमी के दिल की आवाज थे, इसलिए उसके लिए उन्हें गुनगुनाना भी ज्यादा सरल था। गुनगुनाहटों में शामिल कितने गाने याद किए और कराये जाएँ, सुने ही जाते रहेंगे। कोई यात्री आता है, अपना सफर पूरा कर चला जाता है। क्या यादें, क्या छाप छोड़ जाता है यही मायने रखता है। मोहम्मद अज़ीज़ ने भी अपनी छाप छोड़ी पर वो खुद ही अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। हिन्दी सिनेमा के  मुख्यधारा के गायकों में उन्हें नहीं गिना गया। तमाम सफल गीतों और प्रशंसकों के बावजूद उन्हें उनका यथोचित स्थान न मिल सका। दो बार फिल्मफेयर के लिए नोमिनेट हुए, मिल नहीं पाया। आज के दौर में किसी रियलिटि शो के लिए भी वो याद न किए जाते रहे। गलतफहमी में कई बार लोग उन्हें मोहम्मद रफी का पुत्र भी समझ लेते थे, शायद यह छवि भी उनके उभरने में बाधा रही पर उनकी प्रतिभा का भी अंदाजा देती है। अमिताभ द्वारा रफी को श्रद्धांजलि देता गीत 'न फनकार तुझसा तेरे बाद आया' (क्रोध) भी गाने का अवसर उन्हें ही मिला जो उनके यादगार गीतों में भी है। शायद फिल्म इंडस्ट्री में आत्म प्रचार की कला का न होना भी एक कारण हो! गानों के पुराने स्वर्णिम दौर और कुमार शानू, सोनू निगम के नए दौर के बीच का वो ट्रांजेक्क्शन दौर था जिसमें उनके जैसी कई आवाजें बस खाली जगह ही भरती रह गईं, मगर फिर भी उस दरार को भरने में इनका काफी योगदान रहा और इसी आधार पर श्रवणीय संगीत फिर खड़ा हो पाया। 64 वर्षीय मोहम्मद अजीज की हार्ट अटैक से 27 नवंबर 2018 को मृत्यु हो गई। संगीत जगत में उनके योगदान को याद करते हुये उन्हें श्रद्धांजलि...




सुना कि वो अपने 150 साल पुराने घर में रहते थे जो उनके ग्रेट ग्रैंड फादर का था। उत्सुकता हुई तो उस धरोहर की तस्वीर भी ढूंढ निकालने प्रयास किया है






Sunday, May 6, 2018

संरक्षण की बाट जोहती एक ऐतिहासिक विरासत: भरतखंड स्थित 52 कोठरी, 53 द्वार

(द्विशतकीय पोस्ट)

पिछले दिनों एक वैवाहिक समारोह में शामिल होने बिहार के खगड़िया गया तो अपनी आदत और स्वभाव के मुताबिक यहाँ की एक ऐतिहासिक विरासत के बारे में थोड़ी जानकारी जुटा उसे देखने भी गया। रात भर जागे होने के बाद इस गर्मी में वहाँ जाना तो एक अभियान सा था ही लौटते समय तेज बारिश और ओलों ने इस सफर को और यादगार भी बना दिया।   


खगड़िया से लगभग 40 किमी दूर स्थित सौढ दक्षिणी पंचायत के भरतखंड गांव स्थित मुगलकाल में राजा बैरम सिंह द्वारा बनवाया गया भव्य महल आज भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। अपनी भव्यता के कारण यह क्षेत्र में बावन कोठरी तिरपन द्वार के नाम से भी प्रसिद्ध है। बोलचाल में लोग इसे भरतखंड का पक्का भी कहते हैं। कभी जिस महल की तुलना जयपुर के हवा महल से की जाती थीआज उससे जुड़ा प्रामाणिक इतिहास अनुपलब्ध है, परंतु जनश्रुतियों और स्थानीय अखबारों से इससे जुड़ी कुछ जानकारियाँ सामने आई हैं। जाहिर है इसमें कुछ विरोधाभास भी हैं, परंतु स्थानीय प्रशासन की ठोस पहल के बिना यह समस्या तो रहेगी ही। जानकारी जुटाने के क्रम में यह भी पाया कि हिन्दी अखबारों में तो इसकी कुछ चर्चा है भी, अंग्रेजी अख़बार तो इस पर सुप्त ही दिखे। खैर...  

पीले रंग में दिखाया गया महल का भग्नावशेष 
इस महल का निर्माण 1604 ईस्वी में माना जाता है। कहते हैं कि राजा बसावन सिंह ने इसका निर्माण आरंभ किया जिसे इनके पुत्र राजा बैरम सिंह ने पूर्ण करवाया। वहीं कोसी कॉलेज के इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष प्रो. (डॉ.) संजीव नंदन शर्मा के अनुसार 1750-60 के काल में बंगाल के नवाब से अनुमति लेकर राजा  बैरम सिंह ने इस भव्य महल का निर्माण कराया था। उनके अनुसार सोलंकी राजवंश के बाबू बैरम सिंह के बाद बाबू गणेश सिंह (वीरबन्ना) और बाबू दिग्विजय सिंह ने इस विरासत को संजोये रखा था। माना जाता है कि बैरम सिंह के पूर्वज मध्य प्रदेश के तड़ौवागढ निवासी थे। एक मत इन सोलंकी राजपूतों को चित्रकूट से आए हुये भी मानता है।


इस महल की विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह महल 5 बीघा, 5 पाँच कट्ठा, 5 धुर और 5 धुरकी के क्षेत्रफल में बनाया गया था। लोग इसमें महल के अंदर रानी के स्नान करने का तालाब, महल से मंदिर जाने के लिये सुरंग, शानदार नक्काशी को देखने आते हैं। यहां की दिवारों पर उकेरी गयी मनमोहक चित्रकारी आज भी दर्शकों का ध्यान खींचती है। जानकारों के मुताबिक भरतखंड के ऐतिहासिक भवन के प्रागण में बने चमत्कारी मंडप के चारो खंभों पर चोट करने पर अलग-अलग तरह की मनमोहक आवाज सुनाई देती थी। इसके निर्माण में  चूना, सुरखी, कत्था तथा राख आदि पारंपरिक तरीके से प्रयोग हुआ था। कहते हैं कि उस वक्त भूल वश महल में कोई व्यक्ति प्रवेश कर जाता था तो बाहर निकलना आसान नहीं होता था। इसीलिए इसे भूलभुलैया भी कहते थे। इस महल को तब के मशहूर कारीगर बकराती खाँ या बरकत खान उर्फ बकास्त मियां ने बनाया था। कुछ स्थानीय जन इस कारीगर को ताजमहल के निर्माण से भी जोड़ते हैं। इस धारणा के पीछे इस कारीगर की वो योग्यता भी है जिससे इसने भागलपुर जिला के नारायणपुर-बिहपुर स्थित नगरपाड़ा का कुआं एवं मुंगेर का किला का भी निर्माण किया था। इसके निर्माण में माचिस के आकार से दो फीट तक के 52 प्रकार के आकार के ईंटों का उपयोग किया गया। दरबाजे के आकार के लिए अलग ईंट, खिड़की के आकार के लिए अलग ईंट, दीवार की गोलाई के अनुरूप अलग ईंट का प्रयोग किया गया था। आज तो ग्रामीण अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए ये ईंटें भी उठा ले जा रहे हैं। आने वाले समय में शायद यह बची-खुची निशानी भी न मिले!

विरासत से खिलवाड़ 
 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के विरोध का नुकसान इस वंश के साथ इस ईमारत को भी उठाना पड़ा। परिवार के कई सदस्य मारे गए। बैरम सिंह के वंशज देवीदत्त बाबू अपने 6 वर्षीय पोते भुवनेश्वरी प्रसाद सिंह को लेकर भागलपुर-खगड़िया सीमा पर स्थित नारायणपुर चले आए। जहाँ बाद में उन्होने वीरबन्ना ड्योढ़ी या ईस्टेट स्थापित किया। कुछ बुजुर्ग अज्ञात आत्मा के भय या संतान को लेकर समस्या को भी इस महल को छोड़ने के कारण के रूप में जोड़ते हैं। परंतु यह उतना प्रभावी नहीं लगता।
एक जमाने में यह राजक्षेत्र दरभंगा महाराज के बाद का प्रमुख राज्य माना जाता था।

प्रो. शर्मा के अनुसार 18वीं सदी में भरतखंड का नाम बटखंड था। भ्रमण करते बौद्ध भिक्षु यहां आकर कई-कई माह तक तप व विश्राम करते थे। बौद्ध धर्म के इस रूप के जुड़ाव से इस किले की विशेषता में एक और पन्ना जुड़ जाता हैं।  
खगड़िया जिला जो कि गंगा के किनारे स्थित है, इस कारण यहाँ ज्यादा ऐतिहासिक विरासतें संरक्षित नहीं रह पाईं। ऐसे में इस विरासत का महत्व और बढ़ जाता है। इस स्थल के संरक्षण के लिए अलग-अलग समय पर सरकार के ध्यानाकर्षण हेतु कुछ स्वर उठे, जिनमें स्थानीय सांसद महबूब अली कैसर द्वारा भरतखंड के पक्के का जीर्णोद्धार करने के लिये बिहार के पर्यटन विभाग को लिखा गया पत्र भी शामिल है। जबकि श्री कृष्ण मुरारी ऋषि, युवा कला एवं संस्कृति मंत्री; बिहार सरकार के एक बयान का जिक्र पाया जिसमें उन्होने कहा है कि ऐतिहासिक महत्व वाले स्थलों को संरक्षित रखने के लिए राज्य सरकार प्रतिबद्ध है। स्थानीय प्रशासन व ग्रामीणों द्वारा आवेदन प्रस्ताव आयी तो निश्चित रूप से संरक्षित करने का प्रयास की जायेगी। 

सांसद द्वारा प्रेषित पत्र की प्रति 

सरकार जाने कोई कदम कब उठाए या स्थानीय पंचायत या किसी निगम के सीएसआर कार्यक्रम के अंतर्गत ही इस धरोहर के संरक्षण के लिए कोई सार्थक कदम उठाए, परंतु इस दिशा में ज्यादा देर नुकसानदेह होगा। अवांछित घुसपैठ और अतिक्रमण इस विरासत को लगातार क्षति पहुँचा रहा है। इसके संरक्षण हेतु गंभीर पहल की यथाशीघ्र आवश्यकता है...   


Wednesday, March 28, 2018

100 वर्ष पूर्ण करती हजारीबाग की रामनवमी



 रामनवमी देश के हिंदुओं का एक प्रसिद्ध पर्व हैजब सारा देश भगवान राम का प्राकट्योत्सव मनाता है। देश के विभिन्न भागों में इस अवसर को अलग-अलग अंदाज में मनाते हैं। पर हजारीबाग की रामनवमी की बात ही अलग है। पूरे देश में जहां रामनवमी को ही मुख्य पूजा-अर्चना होती है यहाँ रामनवमी की पूजा के बाद झाँकियाँ निकलती हैं। झांकियों के निकलने का मुख्य सिलसिला पुनः दशमी की रात से शुरू होता है जो एकादशी की देर रात तक चलता रहता है। इस प्रकार लगभग 3 दिन इस उत्सव की धूम रहती है।  सुबह से बजरंगबली की पूजा के साथ अलग- अलग संगठनों की ओर से महिला- पुरुषों के जुलूस परंपरा के अनुसार निकलते रहते हैं। देर रात तक गिनी- चुनी झांकियां और अलग-अलग अखाड़ों से युवाओं की टोलियाँ महावीरी झंडों के साथ निकलती हैं।परंपरागत हथियारों के साथ निकले युवा अपने कला- कौशल का प्रदर्शन करते हैं। दशमी की रात लगभग 9 बजे से झांकियां पुनः निकलनी शुरू होती हैं और परंपरागत मार्ग से गुजरते हुए अगले दिन की देर रात या अगली सुबह तक जारी रहती हैं।

शोभा यात्रा में शामिल लोग

लाखों की भीड़डीजे के शोर और तरह- तरह की झांकियों का नजारा अद्भुत रहता है। सैकड़ों की संख्या में झांकियां और उनके साथ सम्बद्ध बच्चोंयुवाओंवृद्धों का झुंड तथा इस दृश्य का आनंद उठाने के लिये एक लाख से अधिक की भीड़ सड़कों पर होगी। इस लाखों की भीड़ को नियंत्रित करना जिला प्रशासन के समक्ष एक बड़ी चुनौती होती है। 
1918 से हुई थी शुरूआत : प्रचलित मान्यता के अनुसार हजारीबाग के प्रसिद्ध पंच मंदिर की 1901 से प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही पूजा अर्चना प्रारंभ हुई। 1905 में पंच मंदिर के लिए चांदी जड़ा नीले रंग का ध्वज बनारस से मंगवाया गया था। मंदिर में ही ध्वज को रखकर पूजा अर्चना की जाती थी। बताया जाता है कि स्व गुरूसहाय ठाकुर इस ध्वज को लेकर शहर में जुलूस निकालना चाहते थेलेकिन पंच मंदिर की संस्थापक मैदा कुंवरी के देवर रघुनाथ बाबू ने इसकी इजाजत नहीं दी। इजाजत नहीं मिलने के बाद स्व गुरूसहाय ठाकुर ने 1918 में 5 लोगों के साथ मिलकर रामनवमी जुलूस पहली बार निकाला। लोग बताते हैं कि इसके बाद रामनवमी जुलूस में चांदी जड़ा नीले रंग का ध्वज भी निकालकर शहर में घुमाया गया। इस प्रकार हजारीबाग में रामनवमी की शुरूआत हो गई।उस दौर में शालीनताश्रीराम के आदर्श और झांकी- जुलूस के नाम पर गगनचुंबी महावीरी झंडे हुआ करते थे। जुलूस पूरे शहर का भ्रमण करते हुए कर्जन स्टेडियम पहुंचती थी। जहां मेला लगा होता था और उसमें हिन्दूमुस्लिमसिख- ईसाई हर किसी की भागीदारी उसी उमंग से हुआ करती थी कि मानो उनका ही यह त्योहार हो।
महावीरी झंडों से पटा शहर 

समय के साथ बदलाव: दशकों तक गगनचुंबी झंडा इस रामनवमी की पहचान थी। आज के समय में कुछ क्लबों को छोड़ दें तो गगनचुंबी झंडों के स्थान पर अत्याधुनिक व भव्य झांकियों ने स्थान ले लिया है। जीवंत झांकियों के साथ-साथ अत्याधुनिक नक्काशीदार व एलईडी बल्बों से सजी झांकियां रामनवमी के जुलूस में देखी जाती हैं।
कभी ढोल-ढाक के साथ जुलूस निकाला जाता थातो आज डीजे रामनवमी की पहचान बन गई है। 1989 तक रामनवमी का जुलूस नवमी की शाम 8 बजे तक परंपरागत सुभाष मार्ग से गुजरकर कर्जन ग्राउंउ में झंडा मिलान करते हुए वापस अपने अखाड़ों तक पहुंच जाता थालेकिन आज नवमी को अपने मुहल्ले में एवं दशमी को देर रात्रि निकलकर परंपरागत सुभाष मार्ग से एकादशी की देर रात्रि  तक गुजरकर संपन्न होता है। जीवंत झांकियों के साथ-साथ अत्याधुनिक झांकीमंदिरोंबड़े भवनकिसी विषय पर तैयार आकर्षक अनुकृति साज- सज्जा के साथ निकल रही हैं।
इन्हीं वर्षों में जिला प्रशासन रामनवमी के जुलूस पर नजर रखने का काम घोड़ा पर सवार होकर करता था। तब स्व हीरालाल महाजन एवं स्व पांचू गोप जैसे लोगों ने इसका नेतृत्व कर इसे बेहतर रूप देने का प्रयास किया।
1965 में निकला पहली बार मंगला जुलूस
प्राप्त जानकारी के अनुसार पहली बार 1965 में मंगला जुलूस निकाला गया था। श्री सिंह बताते हैं कि रामविलास खंडेलवाल की देखरेख में 10-11 लोगों ने मंगला जुलूस निकाला। मंगला जुलूस निकालने वालों में श्यामसुंदर खंडेलवालआरके स्टूडियो के संचालक प्रकाशचंद्र रामाअशोक सिंहरवि मिश्राकालो रामअरूण सिंहवरूण सिंहपांडे गोपबड़ी बाजार के गुप्ता जी शामिल थे।
बड़ा अखाड़ा से जुलूस निकालकर बजरंग बली मंदिर में लंगोटा चढ़ाया जाता था। बाद में पूर्व जिप अध्यक्ष ब्रजकिशोर जायसवालगणेश सोनीग्वालटोली चौक के अर्जुन गोप आदि ने महावीर मंडल का कमान संभाला था।
सांप्रदायिक एकता की मिशाल 
कदमा के अशोक सिंह एवं प्रदीप सिंह बताते हैं कि पहले रामनवमी सांप्रदायिक एकता की मिशाल हुआ करता था। अधिवक्ता बीजेड खान के पिता स्व कादिर बख्श सुभाष मार्ग में जामा मस्जिद के समक्ष बैठकर जुलूस में शामिल लोगों का स्वागत करते थे।
इतना ही नहींमुहर्रम भी सांप्रदायिक एकता की मिशाल बना करता था। कस्तूरीखाप के झरी सिंह छड़वा डैम मैदान में मुहर्रम मेला के खलीफा हुआ करते थे। वहीं विभिन्न अखाड़ों के झंडा और निशान लोगों से मिलकर तय करते थे। यह भी बताया गया कि रामनवमी के स्वरूप को बेहतर बनाने में कन्हाई गोपटीभर गोपजगदेव यादवधनुषधारी सिंहभुन्नू बाबूडॉ.शंभूनाथ राय आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1970 के दशक में ताशा का प्रयोग
हजारीबाग की ख्यातिप्राप्त रामनवमी के इतिहास में 1970 का दशक एक बड़ा बदलाव लेकर आया। इन्हीं वर्षों में रामनवमी के जुलूस में तासा का प्रयोग किया जाने लगा। बॉडम बाजार ग्वालटोली समिति ने अपने जुलूस में पहली बार तासा पार्टी का प्रयोग किया और बाद में सभी अखाड़ों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा। तासा पार्टीबैंड पार्टी व बांसुरी की धुन रामनवमी के जुलूस में झारखंड बनने तक जारी रहा।
90 के दशक से ही ताशा के साथ-साथ डीजे ने भी स्थान ले लिया है। डीजे पर बजने वाले गीत व फास्ट म्यूजिक युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं। हालांकि डीजे लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसके सीमित प्रयोग का निर्देश दिया है। अब युवा डीजे की धुन पर न केवल नाचते हैं बल्कि तलवारभालागंड़ासालाठी के संचालन को भी प्रदर्शित करते हैं।
झांकी का प्रयोग मल्लाहटोली से 
हजारीबाग की ख्यातिप्राप्त रामनवमी में झांकियों का प्रयोग 70 के दशक में मल्लाहटोली ने प्रारंभ किया। मल्लाहटोली क्लब द्वारा तब जीवंत झांकियों का प्रदर्शन किया जाता था। रामायण के अंश को लेकर उसी पर आधारित झांकियां प्रस्तुत की जाती थी। बाद में कई अन्य अखाड़ों द्वारा झांकियों का प्रयोग किया जाने लगा।
अब थर्मोकोल से लेकर अन्य सामग्रियों से देश के भव्य मंदिरों व इमारतों के साथ-साथ समसामयिक घटनाओं पर आधारित भव्य झांकियों को प्रदर्शित किया जाता है। करीब 100 झाकियों वाले जुलूस में आधार दर्जन से अधिक झांकियां अभी भी जीवंत देखी जा सकती हैं।
कई बार रामनवमी कलंकित भी हुई 
रामनवमी के 100 साल के इतिहास में इसके कई बार कलंकित होने के मामले भी आए हैं जब इसने दो समुदायों के बीच साम्प्रदायिक तनाव या वैमनस्य का स्वरूप लिया। बीच में विभिन्न क्लबों द्वारा चंदे के लिए ज़ोर-जबर्दस्ती करने की घटनाओं ने भी इसकी छवि को प्रभावित कियाआज भी नशे में झांकी में शामिल होने से भी कई बार अशोभनीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है; किन्तु प्रशासन ने इस ओर भी ध्यान दिया है।
यह तो तय है कि आज हजारीबाग की रामनवमी ने एक लंबा सफर तय कर देश ही नहीं अन्तराष्ट्रिय स्तर पर भी अपनी पहचान बना ली है। आवश्यकता है कि पर्व के पारंपरिक और शालीन स्वरूप को बनाए रखते हुये इसे मनाएँ और इसके स्वरूप को और भी आकर्षक बनाएँ...

(संदर्भ: स्थानीय समाचार पत्र और जानकारों की राय पर आधारित)

Tuesday, March 27, 2018

अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस और ‘मुग़ल-ए-आज़म’



आज अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस है। इसका प्रारम्भ 1961 में इंटरनेशनल थियेट्रिकल इंस्टीट्यूट द्वारा की गई थी। तब से यह प्रति वर्ष 27 मार्च को विश्वभर में फैले नेशनल थियेट्रिकल इंस्टीट्यूट के विभिन्न केंद्रों में तो मनाया ही जाता हैरंगमंच से संबंधित अनेक संस्थाओंसमूहों और इसके प्रशंसकों द्वारा भी इस दिन को विशेष दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के इस विशेष दिन चर्चा उस खास नाटक की जिसने रंगमंच से रंगमंच का एक चक्र पूरा किया, और जिसका साक्षी बनना एक अविस्मरणीय अनुभव था।
उर्दू नाटककार इम्तियाज़ अली ताज ने सलीम और अनारकली के प्रेम की दंतकथा को 1922 में एक नाटक का रूप दिया, जिसे जल्द ही रंगमंच पर भी जगह मिल गई। इसके बाद अर्देशिर ईरानी ने 1928 में एक मूक फिल्म 'अनारकली' बनाई। बोलती फिल्मों का दौर शुरू होने पर 1935 में इसका पुनर्निर्माण भी किया गया। 20 वी सदी के पूर्वार्ध की इन पहलों के बाद आज 21 वीं सदी के पूर्वार्ध में फ़िरोज़ अब्बास ख़ान पुनः इसे रंगमंच पर लेकर आए।
वही संवाद, वही गीत (6 गानों के अलावा दो नई ठुमरियां भी जोड़ी गई हैं), वही शाही आन-बान-शान; मगर इस बार माध्यम अलग। उस भव्य परिदृश्य को रंगमंच पर उतरना कितना कठिन रहा होगा जिसे हकीकत में उतरने के लिए एक जुनून ही चाहिए रहा होगा। और फिरोज खान को यह जुनून मिला अपने सहयोगियों में भी। इस शाहकार को नाटक के रूप में प्रस्तुत करने का विचार जब नेशनल सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट (एनसीपीए) एनसीपीए के सामने रखा तो वे तैयार हो गए, फ़िर मूल सिनेमा के निर्माता शापूरजी पालोनजी का भी साथ मिल गया। 1960 में बनी इस फिल्म को शापूरजी पालोनजी कंपनी ने ही आर्थिक मदद दी थी। इसी कंपनी ने इसके रंगीन संस्करण की प्रस्तुति को भी आर्थिक सहायता दी थी।
वर्ष 2011 में ड्रामा डेस्क अवॉर्ड से नवाजे जा चुके डेविड लांडेर ने नाटक को आकर्षक और भव्य बनाने के लिए इसमें कमाल के लाइटिंग इफेक्ट्स दिए हैं। बेहतरीन ग्राफिक्स प्रोजेक्शन और प्राप्स की सहायता से रेगिस्तान, महल, क़ैदखाने, बुर्ज, बाग, जंग के मैदान यहां तक कि शीश महल को भी साकार कर दिया गया है। मडोना कॉन्सर्ट्स में प्रोजेक्शन डिजाइन देने वाले सुप्रसिद्ध जॉन नरौन इस नाटक के प्रोजेक्शन डिजाइनर हैं। कई बॉलीवुड फिल्मों और टीवी सीरियल्स में प्रॉडक्शन डिजाइनर रह चुके नील पटेल इस नाटक में प्रॉडक्शन डिजाइनर हैं।
इस नाटक में टेलीविजन इंडस्ट्री के 17 कलाकार हैं। इसमें शहँशाह अक़बर की भूमिका निसार खान ने, जोधा की भूमिका सोनल झा ने, अनारकली की भूमिका नेहा सरगम तथा सलीम का किरदार धनवीर सिंह निभा रहे हैं। संगीत 'गांधी माई फादरफिल्म के म्यूजिक कंपोजर पियूष कनोजिया का है।
नाटक में वे सभी गीत शामिल किए गए हैं जो फिल्म में थे। इन पर नर्तकों को बेंगलुरु की शास्त्रीय नृत्यांगना और प्रशिक्षक मयूरी उपाध्याय ने कथक का प्रशिक्षण दिया है। वस्त्र सज्जा प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर मनीष मलहोत्रा की है। सभी
आठ़ गानों का नाटक के मंचन के दौरान प्रस्तुति बिल्कुल लाइव है। ऐसे में अभिनेताओं के जज़्बे और समर्पण को बखूबी समझा जा सकता है। 
नाटक ने संवाद और गीत भले फिल्म से लिए हों मगर शुरू से अंत तक यह आपको अपनी जीवंतता से बंधे रखता है। आप उस दौर के साक्षात प्रत्यक्षदर्शी से होते हैं। बाहर निकलते-निकलते यह नाटक आपके दिल में अपनी एक खास जगह बना चुका होता है। शायद यही कारण है कि पायरेसी और दर्शकों की कमाई और उनकी पसंद में गिरावट का रोना रोते दावों के बीच न सिर्फ इस नाटक की 500-10000 तक के बीच की दर की टिकटें पूरी बिकती हैं बल्कि दर्शकों की लंबी क़तार भी नजर आती है।
रंगमंच पर लाईव प्रस्तुतियाँ एक चुनौती होती हैं। ध्यान से देखें तो आप कुछ त्रुटियाँ पा भी सकते हैं मगर वो इसकी उत्कृष्टता के आड़े नहीं आती। सूत्रधार मूर्तिकार के माध्यम से यह नाटक कई बिंदुओं पर आपको अपने वर्तमान परिदृश्यों पर भी सोचने को बिन्दु देता है। 300 लोगों की इस टीम में हर प्रमुख कलाकार की किसी स्थिति में अनुपलब्धता की स्थिति में उसके प्रतिस्थापन्न को भी तैयार रखा गया है।
इस नाटक की प्रशंसा के लिए शब्दों की भले कमी पड़ जाए आपके दिलों में इसकी जगह की कोई कमी न होगी। इसे देखना एक जादुई दुनिया से गुजरने का अहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इस नाटक ने थियेटर ही नहीं प्रस्तुति के सभी माध्यमों के समक्ष एक स्तर, एक सार्थक रचना प्रस्तुत करने की चुनौती पेश की है। एक 'मुग़ल-ए-आज़म के तो लगभग 60 साल बाद यह पहल हुई है, देखें अगली उल्लेखनीय पहल के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पड़े!   
रंगमंच दिवस पर कामना कि लोग अच्छे नाटकों से जुड़ें और इससे जुड़े लोगों का उत्साहवर्धन हो...




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