Tuesday, April 12, 2011

लोकमानस के राम



संकीर्ण राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के परे राम भारतीय जनमानस के रोम-रोम में अंतरतम तक बसे हुए हैं. विभिन्न भाषाओँ में हर प्रमुख कवि / लेखक ने अपने दृष्टिकोण से राम के स्वरुप को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है. मगर मुख्यतः रामचरित्र सीता हरण और रावण वध के इर्द – गिर्द ही घुमता नजर आता है. रामचरित्र के श्रवण को अतर्मन की प्यास अनबुझी ही रह जाती है. वनवास से सीता हरण तक के दरम्यान राम परिवार के दिन कैसे कटे यह प्रश्न करोड़ों लोगों के साथ मेरे मन में भी सदा से ही कहीं उभरता रहा था, मगर इसका समाधान हुआ प्रेरक व्यक्तित्व और महानतम लोकयात्री स्व. श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी को पढते हुए. देश की मिट्टी में बिखरे लोक-गीतों को सहेजने में समग्र जीवन होम कर चुके सत्यार्थी जी के लिए गांधीजी ने कहा था कि – “ देश को एकसूत्र में पिरोने में आप भी हमारे ही काम को आगे बढ़ा रहे हैं, मगर एक अलग ढंग से.
 ”
लोकमानस ने वनवासी राम को अपनी आँखों के सामने, दिल के पास रखा और काफी गहरे और आत्मीयता से अवलोकन किया, जो उसके लोकगीतों में भी झलकता है.

ओडिसा के कृषकों द्वारा गए जाने वाले ‘हालिया गीतों’ में राम की गाथा गाई जाती है, जिसमें राम के कृषक रूप को देखा गया है.
“ राम बांधे हल, लेखन देवे माई;
 आउरी कि करिवे जे ...
सीताया देवे रोई जे ...”

अर्थात – “ राम हल चला रहे हैं, लक्ष्मण जी जुताई करेंगे, सीताजी के लिए और क्या काम है, वो बीज बो देंगीं. “

धान कुटने वाले उपकरण ढेंकी से जुड़े एक ‘ढेंकी गीत’  में राम – लक्ष्मण का विवाद  कि धान कौन डाले और कौन कूटे ?
राम ने कहा –
 “ लक्ष्मण तुम धान डालो मैं कुटूंगा. यह कह कर राम ढेंकी पर बैठ गए और पान खाने लगे. धान कूटने का कम आनंद से चलता गया. चारों ओर महक फ़ैल गई. “

राम – सीता के प्रेम की एक लोक झांकी –

“ जहाँ सीता सुपारी हैं, वहीं राम पान हैं; जहाँ सीता टोकरी हैं, वहीं राम धान हैं “

लगभग हरेक भाषा में लोक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में, भावनात्मक रंगों को राम – सीता और लक्ष्मण के चरित्र में पिरोकर पति – पत्नी के प्रेम, तनाव, नोंक – झोंक,  भाई –भाई, देवर – भाभी आदि की विभिन्न काल्पनिक परिदृश्यों के माध्यम से व्यक्त किया गया है. स्पष्ट है कि लोक मानस ने रामायण सहित किसी भी महाकाव्य या पौराणिक ईश्वरतुल्य पात्रों के साथ तथाकथित शास्त्रीय मानकों के विपरीत अपना एक अलग आत्मीय संबंध बना रखा है जो होली आदि त्योहरिक, वैवाहिक उत्सवों के क्रम में झलक ही जाता है. और स्पष्ट है कि लोक मानस में बसे यही राम हैं, जिन्हें आम आदमी के ह्रदय से निकाल दोबारा किसी ‘ स्वर्णिम वनवास ‘ में भेजना कभी संभव नहीं हो पायेगा. 

Saturday, April 2, 2011

'सचिन वर्ल्ड कप - 2011'



वर्ल्ड कप का उन्माद अब अपने चरम पर है. सचिन की भावनाओं के इर्द-गिर्द ही परिभ्रमण कर रही टीम के साथ आई. सी. सी. के सितारे भी सहायक भूमिका में आ जुटे हैं. इडेन गार्डन को दरकिनार कर वानखेडे में जमाई गई इस आयोजन की आखरी महफ़िल में सचिन को अपने घरेलु दर्शकों को शतकों के शतक का तोहफा देना तो तय ही है. रही बात वर्ल्ड कप की तो टीम के महामहिम अंतिम क्षणों में प्यादे  खिलाडियों को किनारे कर अपना वजीर न चल दें तो एक वर्ल्ड कप भी सचिन के खाते में जुट ही जाना चाहिए. मगर कहीं वर्ल्ड कप भी प्याज की नियति न प्राप्त कर जाये, कहीं यह आशंका भी है. क्या करूँ अब मैदान से ज्यादा बाहर का खेल ही ज्यादा अहम हो गया है.
वैसे वर्ल्ड कप का माहौल बनाने के लिए एक फिल्म भी देखी है – ‘हैट्रिक’. नाना पाटेकर, डैनी, परेश रावल, कुणाल कपूर, रीमा अभिनीत यह फिल्म शायद पिछले वर्ल्ड कप के दौरान रिलीज हुई थी. वर्ल्ड कप की पृष्ठभूमि में इससे प्रभावित व्यक्तियों के जीवन को दर्शाती एक बार देखने के लिए अच्छी फिल्म है ये.
चलते – चलते टीम ऑफ इंडिया को समर्पित करता हूँ ‘मैं आजाद हूँ’ फिल्म का वह गीत जिसे हिंदी सिनेमा के चंद प्रेरक गीतों में एक माना जाता है.
“इतने बाजू - इतने सर, गिन लें दुश्मन ध्यान से;
हारेगा वो हर बाजी जब खेलें हम जी - जान से.” 

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