Friday, June 20, 2014

धर्म का मूल स्वरूप

विश्व में घटित हो रही कई घटनाओं को देख जो सोच उभरी उसे बाँटने का प्रयास है ये। थोड़ा लंबा तो हो गया है मगर यह आत्मसंतुष्टि के लिए जरूरी था। जो पढ़ सकें अपनी राय भी दे सकते हैं।

अक्सर सभ्यताओं के संघर्ष की बात कही जाती है- आजकल तो कुछ ज्यादा ही ज़ोर-शोर से। मगर क्या यह कोई नई बात है ? अलग-अलग विचारधाराओं के लोग जब साथ रहते हैं तो उसकी सर्वस्वीकार्यता के लिए संघर्ष होता ही है। इसे समझने के लिए बाहर कहीं देखने की खास जरूरत नहीं। और उनके जिक्र की भी उतनी जरूरत नहीं जहाँ संवाद की संभावना कम ही है। मगर समाधान है तो संवाद में ही और गनीमत है कि इस देश में तर्क और शास्त्रार्थ जैसे माध्यमों से संवाद की समृद्ध परंपरा रही है। कब तक रहेगी वो अलग विषय है। भारत तो विश्व गुरु रहा ही है और सभ्यता के प्रारंभिक दौर से ही कई मायनों में विश्व को दिशा दिखाता रहा है। ऐसे में यदि भारत को ही समझ लें तो काफी कुछ समझ सकते हैं। इसलिए अभी सिर्फ अपनी ही बात।
आज अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं (यदि अलग हैं) के एक-दूसरे पर हावी होने की बात होती रहती है। क्या ये नई बात है, क्या ये स्थायी है ? नहीं। भारत में सदा से ही कई धाराएं बहती रही हैं। कभी एक धारा ज्यादा प्रभावी होकर दूसरों पर हावी होने की कोशिश करती है मगर सभी का अपना अस्तित्व बना ही रहता है, अपने वक्त की प्रतीक्षा में। जैन धर्मावलंबी मानते हैं कि सनातन धर्म के प्रतिनिधि राम के काल में भी राजा जनक जो विदेह भी कहलाते थे जैन मान्यता के प्रतिनिधि थे। वो श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम को भी अपनी प्राचीन परंपरा से जोड़ते हैं। कहने का आशय यह कि अपनी जमीन तलाशने की यह प्रक्रिया काफी दूर तक जाती है, और जब समय आता है हिंदु धर्म पर न सिर्फ हावी होती है बल्कि आवश्यकतानुसार बौद्ध धर्म से टकराती भी है। इसी प्रकार बौद्ध धर्म भी अपनी जातक कथाओं से हिंदु मान्यताओं में अपनी जगह तलाशने का प्रयास करता हुआ इस देश का राजधर्म भी बन जाता है। इसी के साथ शैव, वैष्णव और न जाने अन्य कितनी धाराएं समय के साथ ऊपर-नीचे होती रहीं। इनके मध्य भी कई तरह के संबंध बने, कई बार काफी हिंसक भी। मगर वह दौर भी आया जब इनमें एकात्मकता की जरूरत समझी गई। शिव ने राम को अपना पूज्य बताया तो राम ने भी समुद्र पार करने से पूर्व शिव की पुजा की। और इन रूपकों से इनके भक्तों में भी एकता बढ़ी। आज यह अलग कर पाना कठिन है कि कौन किस संप्रदाय का उपासक है। एक ही घर में पिता विष्णु की पुजा कर रहे हैं तो माँ शिव की। मातृ शक्ति की पुजा भी अब सर्वस्वीकार्य है। निःसंदेह इस एकात्मकता के पीछे हिंदु धर्म को आंतरिक रूप से ही बौद्ध-जैन धर्मों आदि से मिल रही चुनौतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। विदेशी आक्रमणों के दौर में इन धाराओं को भी जोड़ने की जरूरत महसूस की गई और शंकराचार्य आदि विचारकों के नेतृत्व में इनके धार्मिक एकीकरण के जो प्रमुख प्रयास हुये उनके नतीजों में एक यह भी था कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध, भगवान विष्णु के दसवें अवतार के रूप में स्वीकार लिए गए। यह सारी प्रक्रिया काफी शांति और सौहाद्र के साथ संपन्न हुई होगी ऐसा भी नहीं है। बोधि वृक्ष कट गया, शास्त्रार्थों में हारने वाले को आत्मदाह करना पड़ा तो समर्थकों के बीच हिंसा भी हुई ही होगी। मगर शांति की जरूरत को समझते हुये यह प्रक्रिया उसे पाने में सफल तो रही ही।
 
गांधी जी ने भी कहा सत्य ही ईश्वर है, और ईश्वर एक ही हैं; तो उसके नाम पर लड़ना कैसा ! जब हमारे यहाँ इतनी धाराओं और प्रतिनिधि चेहरों को एक सूत्र में सफलतापूर्वक जोड़ा जा सकता है तो क्या औरों के लिए यह इतना कठिन है ! मगर जरूरत तो पहले एकजुटता की जरूरत स्वीकार करने की है। अलग-अलग धर्म पहले खुद में यह प्रक्रिया संपन्न कर लें तो उसके बाद उनके बीच भी एकात्मकता लाने की कोशिश हो सकती है। आखिर ‘सत्यमेव जयते’ और सत्य तो एक ही है...

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