Friday, January 30, 2009

गांधीजी के साथ- गावों की ओर

(यह पोस्ट मेरे अन्य ब्लॉग gandhivichar.blogspot.com से)


भारत की आत्मा गावों में बसती रही है, मगर आजादी के बाद अर्थव्यवस्था का केन्द्र शहरों को मान विकास के मॉडल को अपनाया गया, जिसने देश की जड़ें खोखली कर दीं। यही कारण है कि आज विश्व के किसी दूसरे कोने में चले एक झोंके से भी हमारी विकास की ईमारत लड़खडाने लगती है।
भारत की आत्मा को आत्मसात करने वाले गांधीजी ने कहा था कि- " अब तक गाँव वालों ने अपने जीवन की बलि दी है ताकि हम नगरवासी जीवित रह सकें। अब उनके जीवन के लिए हमको अपना जीवन देने का समय आ गया है। ... यदि हमें एक स्वाधीन और आत्मसम्मानी राष्ट्र के रूप में जीवित रहना है तो हमें इस आवश्यक त्याग से पीछे नहीं हटना चाहिए। " "भारत गावों से मिलकर बना है, लेकिन हमारे प्रबुद्ध वर्ग ने उनकी उपेछा की है। ... शहरों को चाहिए कि वे गावों की जीवन-पद्धति को अपनाएं और गावों के लिए अपना जीवन दें। "
गांधीजी के विचारों को ही उनकी विरासत मानते हुए ग्रामोत्थान और 'ग्राम स्वराज' की दिशा में हमारा अंशदान ही उस महानात्मा के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी।

Friday, January 23, 2009

विद्रोही सुभाष की दुविधा



अपने विद्रोही स्वाभाव से ब्रिटिश साम्राज्य को झकझोर देने वाले सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि किसी भी युग में युवाओं कि बुनियादी सोच समान होती है। उन्हें अंजान राहें ज्यादा लुभाती हैं, जबकि समाज उन्हें अपनी आजमाई हुई लकीर की ओर ही खींचना चाहता है।
असमंजस कि यह स्थिति सुभाष जी कि तरुणाई में भी देखने को मिलती है। लन्दन में ICS के प्रशिक्षण के दौरान ही देशसेवा में आने का उन्होंने निर्णय ले लिया था, किंतु यह किस रूप में हो इसे लेकर वह दुविधा में थे। तभी उन्होंने बंगाल के वरिस्थ नेता देशबंधु चित्तरंजन दास को पत्र लिखा कि - "नौकरी करने की उनकी इच्छा बिल्कुल नहीं है, और वे स्वतंत्रता संग्राम में किसी भी रूप में भागीदारी के इच्छुक हैं।" कोई प्रत्युत्तर न पाने और अपनी संभावित भूमिका कुछ और स्पष्ट होने पर उन्होंने पुनः देशबंधु से पत्रकारिता आदि से जुड़े क्षेत्र में अपनी सेवाएं देने की पेशकश की, और स्वीकृति मिलने पर ICS से इस्तीफा देकर भारत लौट आए।
नेताजी के जीवन से आज की पीढी यदि यह संदेश भी ले सके कि कोई जन्मजात महान नहीं होता, बल्कि लक्ष्य स्पष्ट हो तो राहें ख़ुद निर्धारित की जा सकती हैं; तो यह सुभाष जी के बलिदान के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नेताजी की कुछ पसंदीदा पंक्तियाँ दोहराते हुए-
कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गए जा;
ये जिंदगी है कौम की, तूँ कौम पर लुटाये जा।

Tuesday, January 20, 2009

गंगा पर रेतीला संसार



गंगा पर रेतीला संसार

कलाकार अपनी रचनाशीलता की अभिव्यक्ति के लिए कोई--कोई मंच ढूंढ़ ही लेते हैंपानी की कमी के कारण गंगा के बीच उभर आए रेत के टीलों को ही इसबार अपनी अभिव्यक्ति का मध्यम बना लिया गया, और सैकड़ों कलाकारों, स्कूली बच्चों और आम लोगों ने अपनी कल्पनाशीलता का साक्षी बनाया माँ गंगा कोअवसर था राम छात्पार कला न्यास की ओर से अपने गुरु के जन्मदिन 19 जनवरी को 'रेत में आकृति की खोज' विषय पर आयोजित कला प्रतियोगिता कावार्षिक आयोजन का रूप ले चुका यह कार्यक्रम काशी की उत्सवप्रियता और रचनाशीलता को एक नया आयाम देता है, और स्थानीय कलाकारों और नागरिकों को अपनी कला की अभिव्यक्ति का अवसर भीआशा है यह आयोजन अपनी निरंतरता बनते हुए अन्तराष्ट्रीय स्वरुप लेगाइस अभिनव सोच को क्रियान्वित करने वाले जज्बे को सलाम

Wednesday, January 14, 2009

पतंग और पक्षी



मकर संक्रांति और पतंगबाजी का गहरा नाता है। B.Sc के दौरान मैंने आपने दोस्तों के साथ 'Dharohar' (An Amateur's Club) के नाम से एक ग्रुप बनाया था और पतंगोत्सव का आयोजन शरू किया था। यह बिना किसी सरकारी सहयोग के युवाओं द्वारा आयोजित झारखण्ड का शायद अकेला प्रयास था।
यही समय होता है जब प्रवासी पक्षी बड़ी तादाद में हमारे यहाँ पहुँचते हैं। पतंगबाजी शायद उनके साथ हमारी सहभागिता की प्रतिक भी है। मगर इस बार PETA (People for the Ethical Treatment of Animals) ने एक महत्वपूर्ण विषय को उठाया है. पक्षियों के समान हमारी भी आकाश में उड़ान की कामना की प्रतीक ये पतंगें इन मासूम परिंदों के लिए नुकसानदेह भी बन जाती हैं. धागे को धार देने के लिए मिलाये गए कांच के टुकड़े इन पंक्षियों को चोटिल कर देते हैं. अच्छी मेहमाननवाजी और सच्ची खेल भावना इसी में है कि हम ऐसी हरकतें न करें, और इस त्यौहार को पतंग उत्सव के रूप में मनाएं, पतंग प्रतियोगिता के रूप में नहीं. (PETA के इस नेक प्रयास में उसे समर्थन दें).
अरे-अरे वो देखिये...
चली-चली रे पतंग मेरी...........



Monday, January 12, 2009

युवा सन्यासी: स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद जिनकी पहचान तब तक अधूरी है जब तक इनके नाम के आगे 'युवा सन्यासी' की उपमा न लगा दी जाए, और अधूरी है भारत की पहचान भी जिसके बारे में कहा जाता है कि "भारत को जानना हो तो विवेकनानंद को जानो।" एक युवा दृष्टी से इस देश को देखते हुए पुरातन से नवीन के मन्त्र को ढूंढने और एक नए दृष्टिकोण को स्थापित करने में स्वामीजी का देश सदा ऋणी रहेगा। स्वामी जी ने न सिर्फ़ आध्यात्मिक जगत को प्रभावित किया बल्कि राजनीतिक जगत का एक वर्ग भी उनसे प्रेरणा पाता था, जिसकी स्वीकारोक्ति पं. नेहरू ने भी की थी। युवा भारत और युवा शक्ति का सपना देखने वाले स्वामीजी के 'उत्तिस्थत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत' के जयघोष को आज पुनः आत्मसात करने की जरुरत है, तभी युवा भारत की अवधारणा सत्य हो पायेगी।
स्वामी जी की 146 वीं जयंती पर हमारा श्रद्धापूरित नमन।

Saturday, January 3, 2009

भारतीय चित्रकला की धरोहर- मंजीत बावा

     भारतीय चित्रकला के सशक्त हस्ताक्षर मंजीत बावा, जिन्हें आदर से लोग बाबा भी कहते थे नहीं रहे. ३ साल तक कोमा में रहने के पश्चात 29 दिसम्बर की सुबह उनका निधन हो गया. 
     पंजाब के धुरी में 1941 में जन्मे बाबा ने दिल्ली आर्ट कॉलेज और लन्दन स्कूल ऑफ़ प्रिंटिंग से चित्रकारी के गुर सीखे. 'प्यार और शान्ति', 'बांसुरी' , 'कृष्ण' आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ थीं. काली और शिव को वो भारत के प्रतीक के रूप में देखते थे. उनकी कला सूफी दर्शन, आध्यात्म और भारतीय मिथकों से प्रभावित रही. कैनवास पर तीखे रंगों की स्याही से उकेरी गई कला उनकी विशिष्टता थी. अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय चित्रकला को प्रसिद्धि दिलाने में उन्होंने अहम् भूमिका निभाई थी. हाल ही में लगभग १.५ करोड़ में नीलाम की जाने वाली अपनी एक पेंटिंग के लिए भी वो चर्चा में रहे थे.
     कला के इस अथक साधक को हमारी और से श्रद्धांजली.

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