Wednesday, July 29, 2009

तस्वीरों के आईने में पूर्ण सूर्यग्रहण


पूर्ण सूर्यग्रहण की यादों को शब्दों में समेटना दुःसाध्य ही है, इसीलिए एक प्रयास इसे तस्वीरों में अभिव्यक्त करने का जो मेरे और अरविन्द मिश्र जी के संयुक्त प्रयास का परिणाम हैं:

सूर्यग्रहण देखने की पृष्ठभूमि तैयार करते प्रियेषा और कौस्तुभ

लो शुरू हो गया ग्रहण, और इसे निहारते अरविन्द मिश्र

सभी ने संभाल ली है अपनी-अपनी कमान: कहीं छुट न जाये एक भी क्षण

और ये लग गया पूर्ण सूर्यग्रहण !

वाराणसी के घाटों पर उतर आया अन्धकार

लौट चले पक्षी भी
छुपी नहीं ग्रहण के उतरने की ख़ुशी : Smiling Surya
इस अद्भुत खगोलीय दृश्य से अभिभूत हमारी टीम :
जिसमें शामिल हैं प्रियेषा, श्रीमति संध्या मिश्रा, श्री अरविन्द मिश्र, मैं, प्रो. मधु प्रसाद (ज़ाकिर हुसेन कालेज; डी यू ), नीचे इजराईल की नोआ और श्री कनिष्क प्रसाद


Wednesday, July 22, 2009

यूँ देखा मैंने पूर्ण सूर्यग्रहण


पूर्ण सूर्यग्रहण

सदी के इस सबसे महत्वपूर्ण सूर्यग्रहण को देखने की उत्कंठा पिछले कई दिनों से थी। मगर मौसम का ख्याल भी नकारात्मक विचार उत्पन्न कर रहा था (वैसे बारिश को लेकर बनारस के मौसम के प्रति मैं अतिआश्वस्त ही रहता हूँ)। फ़िर भी कल शाम हुई हलकी बारिश ने मेरे जैसे कई खगोल्प्रेमियों के दिलों की धड़कनें तो बढ़ा ही दी थीं।
दूसरी ओर हमारे अरविन्द मिश्र जी भी इस परिघटना के अवलोकन के लिए उतने ही उतावले थे , हमने साथ ही बनारस के 'सामने घाट' नामक घाट पर गंगा के किनारे अन्य खगोल्प्रेमियों के साथ इस ग्रहण का साक्षात्कार करने का निर्णय ले लिया था।
डाक विभाग की मेहरबानी से १ सप्ताह पहले ही चल पड़े 'सन गोगल्स' कल शाम तक नहीं पहुँच पाए थे, ऐसे में देर रात वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर मैं एक 'वेल्डिंग ग्लास' प्राप्त करने में सफल हो ही गया।
सुबह साफ़ आसमान ने जहाँ हमें तसल्ली दी, वहीं अरविन्द जी के कुछ अतिथियों को भी कार्यक्रम में शामिल करने की आकांशा ने कार्यक्रम स्थल में आंशिक परिवर्तन भी करा दिया। अंततः यह खगोल प्रेमी गंगा तट पर एक उपयुक्त स्थल पर इकट्ठी हो ही गई। इसमें हमारे साथ अरविन्द जी की धर्मपत्नी, उनके पुत्र कौस्तुभ, पुत्री, दिल्ली से आईं प्रो. मधु प्रसाद तथा उनके पुत्र कनिष्क उपस्थित थे। बनारस यात्रा पर आए कुछ विदेशी सैलानी भी हमारे इस आयोजन में शामिल हो गए।
5:30AMसे ही सूर्य पर चंद्रमा की छाया नजर आने लगी थी। कौस्तुभ द्वारा आनन-फानन में तैयार 'पिन होल कैमरा', X -Ray प्लेट तथा वेल्डिंग ग्लास ने इस दृश्य को सुलभ बनने में अविस्मर्णीयभूमिका निभाई। अपने कैमरों की लिमिट के बावजूद हमने तस्वीरें तो ली हीं ; मगर कनिष्क जी जो सिर्फ़ ग्रहण देखने के ही उद्देश्य से बनारस पधारे थे अपनी कमाल की तस्वीरों से तो बस छा गए !
पूर्ण सूर्यग्रहण, डायमंड रिंग, कोरोना जैसी घटनाओं का साक्षी बनना, सुबह-सुबह ही शाम सा माहौल, घाटों पर बत्तियां जल जन, थोडी सी ठंढ और पक्षियों का अपने घोसलों की ओर वापसी अविस्मरनीय अनुभव थे।
अरविन्द जी ने ग्रहण के दौरान स्नैक्स वितरित कर ग्रहण के दौरान खान-पान को लेकर भ्रान्ति दूर करने का भी एक सार्थक प्रयास किया।
सपरिवार अरविन्द मिश्र जी, प्रो. मधु प्रसाद, कनिष्क, मैं और उपस्थित सैलानी
कुछ ग्रुप फोटोग्राफ्स और अनिवर्चनीय यादों के साथ एक तरफ़ हमारा यह कार्यक्रम समाप्त हो रहा था, जबकि दूसरी ओर घाटों पर अपार जनसमूह धर्म और आस्था के संगम में दुबकी लगाने को बढ़ता चला जा रहा था। इसे देख मैं इसी प्रश्न का उत्तर तलाशने को उत्सुक था कि अन्धविश्वास में विज्ञान की तुलना में ज्यादा आकर्षणआख़िर कैसे उत्पन्न हो जाता है !

Thursday, July 16, 2009

बोल- बम का नारा है...


सावन की शुरुआत के साथ ही देश भर से काँवडीये अपने भोले बाबा को जल अर्पित करने निकल पड़े हैं। सटीक रूप से कोई नहीं बता सकता कि यह परंपरा कब से शुरू हुई है, मगर कांवड़ यात्रा, कुम्भ आदि ऐसे अवसर हैं, जो हमारे पूर्वजों द्वारा संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने की अनूठी सूझ-बुझ के प्रतीक हैं; जब सारा भारत अपनी तमाम प्रांतीयता, जातीयता, अमीरी-गरीबी के मिथ्या बंधनों को नकार सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति अपने समर्पण का इजहार करता है.
शास्त्रीय रूप से देखें तो 'देवशयनी एकादशी' पर भगवन विष्णु के शयन में चले जाने पर जनमानस को भोले शंकर का ही सहारा रहता है। कृषि प्रधान समाज वाले भारत की मूल आत्मा, सावन में भगवान शिव को जल अर्पित कर शायद 'तेरा तुझको अर्पण' के भाव को ही अभिव्यक्ति देती है.
धार्मिक आस्था से खिलवाड़ की 'फिराक' में रहने वालों की बात छोड़ दें तो यह यात्रा हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी जिवंत अभिव्यक्ति है। कांवड़ निर्माण से लेकर प्रसाद निर्माण और मेले के आस-पास व्यापार आदि में मुस्लिम संप्रदाय की भी समान भूमिका रहती है. कांवड़ लेकर चलने वालों में अन्य धर्मावलंबी भी पीछे नहीं हैं.
इस तरह की पद यात्राएं मनुष्य को पुनः प्रकृति से साक्षात्कार का भी अवसर देती है। प्रायः हर धर्म में पदयात्राओं सदृश्य परम्परा इस ओर शोधपूर्ण दृष्टिकोण रखने को भी प्रेरित करती हैं.
आधुनिकता ने ऐसी यात्राओं की असुविधाओं को काफी कम कर दिया है, फलतः अक्सर कम आस्थावान लोग भी इस यात्रा में शामिल हो इसकी पवित्रता और सहयात्रियों सहित स्थानीय जनता को भी परेशान कर इस उत्सव की गरिमा को खंडित करते हैं। निष्ठावान कांवडियों को ही खुद अपने बीच छुपे ऐसे तत्वों को पहचान उन्हें स्वयं से दूर करना चाहिए. इस दिशा में उन्हें स्वयं ही अपने लिए आचार संहिता तैयार करनी चाहिए. छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रख वे इस पावन पर्व के स्वरुप को खंडित होने से बचा सकते हैं.
सभी कांवडियों को उनकी सफल और मंगलमय यात्रा की शुभकामनाएं।
हर-हर महादेव.

Wednesday, July 1, 2009

झाड़खंड के आदिवासी लोकगीत


आदिवासी संस्कृति के नाम पर अपनी सांस्कृतिक विविधता के आधार पर बिहार से अलग हुआ झाड़खंड वाकई सांस्कृतिक विविधता की अनुपम मिसाल है। यहाँ संथाल, मुंडा, बिरहोर आदि कई छोटी-बड़ी जनजातियाँ अपनी पृथक सांस्कृतिक विविधता को जीवित रखते हुए आधुनिक सभ्यता के साथ चलने का प्रयास भी कर रही हैं। अलग राज्य बनने के बाद इनकी परम्पराओं, संस्कृति आदि को जानने-समझने के प्रति भी रुझान बढा है।
यूँ तो हर जनजाति की लोककथाओं आदि साहित्य का अपना अलग अंदाज है, मगर आज चर्चा मुंडा जनजाति की. निःसंदेह इस चर्चा के लिए प्रेरित करने में विनीता जी द्वारा भेजी गई कुछ चुनिन्दा मुंडा रचनाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है, जो उन्होंने 'साझी विरासत' पत्रिका से ली थीं, जिनका संकलन वासवी कीडो द्वारा किया गया था।
हाल ही में 'मदर्स डे' काफी चर्चा में रहा, मगर माँ-बेटी के संबंधों की सहज अभिव्यक्ति जो इस कविता में है वो अद्भुत है, जिसके हिंदी अनुवाद को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ऐ बेटी- तुम बड़ी नदी की चिरपी मछली के समान,
चमकती फिरती हो;
ऐ बेटी- तुम छोटी नदी की अयरा मछली के समान,
फुदकती फिरती हो;

ऐ बेटी- जब तक तुम्हारी माँ है,
तभी तक चमकती फिरती हो;
ऐ बेटी- जब तक तुम्हारा बाप है,
तभी तक फुदकती फिरती हो;

ऐ बेटी- जब तुम्हारी माँ मर जायेगी,
तब तुम किसी दिकु की दासी बन जाओगी;
ऐ बेटी- जब तुम्हारा बाप मर जायेगा,
तब तुम किसी सरगा की दासी बन जाओगी।
आशा है माँ-बेटी के आपसी मनोभावों को अभिव्यक्त करता यह मुंडा गीत आपको पसंद आया होगा। लोकगीतों की इस चर्चा को कभी फिर आगे बढाऊंगा।
तस्वीर: साभार गूगल
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