Sunday, November 4, 2012

राजनीतिक आस्था के नाम पर: ओह माई गौड !!!



जिनलोगों ने परेश रावल अभिनीत ‘ओह माई गौड’ देखी होगी वो जाने-अनजाने कहीं-न-कहीं आज के अरविन्द केजरीवाल को इससे रिलेट कर रहे होंगे. वेदांत, सनातन... किसी भी नाम से धर्म के वास्तविक रूप से कितनी भी बार लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश की गई, मगर धर्म जैसे ब्रांड के हाथों अपनी सत्ता मजबूत करने वाले ठेकेदारों ने हर नई परिभाषा को अपने ही सांचों में ढाल लिया और सदियों से धर्म के नाम पर भय को अपने अंदर तक स्थापित कर चुकी आम जनता ने बार-बार नई स्थिति बिना किसी विशेष प्रतिरोध के स्वीकार कर ली. बुद्ध, मोहम्मद साहब, साईं बाबा जैसी विभूतियों ने आम जनता को जागरूक करने के अथक प्रयास किये, मगर धर्मसुधार के प्रयासों की जरुरत आज भी कम नहीं हुई है...

धार्मिक व्यवस्था की ही तरह राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव के भी समस्त विश्व में कई प्रयास हुए. कई विचारधाराएं अस्तीत्व में आईं. मगर सत्ता को अपने हित साधन का एक जरिया समझने वाले वर्ग ने लगभग हर देश में हर नई व्यवस्था को अपने अनुकूल तोड़-मडोड़ ही लिया, और जनता बस नई उम्मीद के साथ नए कलेवर में लिपटी उसी व्यवस्था की अनुगामिनी बनती रही. मार्क्स, माओ और गांधी जैसे विचारकों के आदर्शों पर आधारित व्यवस्था आज हकीकत में कहाँ हैं !!!

अरविन्द केजरीवाल इन विचारकों की श्रंखला में नहीं आते. मगर व्यवस्था में कमियों की ओर उन्होंने ‘व्हिसल ब्लोअर’ की अपनी भूमिका निभा दी है. उन्हें अब गंभीरता से लिया जाये अथवा नहीं, वो सत्ता का अंग बनते हैं और अपनी क्या भूमिका निभाते हैं वो अलग विषय है. मगर सत्ता के ठेकेदारों को फिल्म के कांजी भाई की तरह उन्होंने कटघरे में तो ला खड़ा किया ही है. हर प्रयास की विवेचना सिर्फ उसकी सफलता-असफलता के आधार पर ही नहीं की जा सकती, छला जाता रहा आम आदमी अबतक जिन बातों को मात्र महसूस ही करता आ रहा था, उसे किसी भी बहाने अभिव्यक्ती देने की पहल कर एक हिम्मत तो दी ही है केजरीवाल ने. एक शक्तिशाली और एकजुट गुट के आगे आम आदमी द्वारा अपनी आवाज उठाना कोई छोटी बात नहीं, चाहे वो आज शक्तिशाली अट्टहासों में दबती सी प्रतीत हो रही हो.

केजरीवाल पर आरोप लगाया जा रहा है कि वो हर राजनीतिक दल को भ्रष्ट बता विकल्प की उम्मीदों को धुंधला कर रहे हैं, जनता को असमंजस में डाल अस्थिरता बढ़ा रहे हैं. केजरीवाल कोई राजनीतिक मसीहा नहीं, वो विकल्प न बन सकते हों, मगर यह असमंजस मात्र उन्ही के आगे आएगा जिसने उस व्यक्ति की आवाज अनसुनी की हो जिसके विचार इस देश की मिट्टी और परिस्थितियों को आत्मसात करते हुए उभरे थे. लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए गाँधी जी ने कहा था – “ सच्चे लोकतंत्र में, प्रत्येक स्त्री-पुरुष को स्वयं विचार करने की शिक्षा दी जाती है....”

“भारत के सच्चे लोकतंत्र में गाँव को इकाई माना जायेगा... सच्चा लोकतंत्र केन्द्र में बैठे बीस लोगों द्वारा  नहीं चलाया जा सकता. इसका संचालन तो नीचे से, हर गाँव के लोग करेंगे.”

और ग्राम शासन की रुपरेखा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा था “... गाँव में पूर्ण लोकतंत्र चलेगा जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित होगा. व्यक्ति ही अपनी सरकार का निर्माता होगा....”

स्पष्ट है कि यूँ ही नहीं भारत का संविधान ‘हम भारत के लोग...” पर ही आधारित है.  भारत की समस्याओं का हल भारत के ही मनीषियों के विचारों में छुपा हुआ है और इसे उजागर और आत्मसात भी हम ही कर सकते हैं. समय के कई थपेडों का हमारी धार्मिक व्यवस्था ने सामना किया है और खुद को परिमार्जित करते हुए हर बार और बेहतर स्वरुप में उभर कर सामने आई है, यह प्रक्रिया आज भी जारी है. यह प्रयोग हम अपनी राजनीतिक व्यवस्था में भी अपना सकते हैं. राजनीतिक व्यवस्था में आस्था दूसरों पर दोषारोपण करके नहीं बल्कि खुद में बदलाव करके सुदृढ़ की जा सकती है. इस संस्था पर विश्वास और आस्था का टूटना ही अराजकता का मूल कारण होगा और हम जानते हैं कि “सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...”

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