Sunday, June 25, 2017

विभिन्न परिप्रेक्ष्य में ययाति


ययाति के विषय में कई प्रारूप की कहानियां मिलती हैं। सबमें उनके मुख्यतः इच्छाओं और भोग से निवृत न हो पाने की प्रवृत्ति का उल्लेख है और सारांश रूप में यही है कि अंततः वो कह उठते हैं कि "अब मैं चलने को तैयार हूं। यह नहीं कि मेरी इच्‍छाएं पूरी हो गईं, इच्‍छाएं वैसी की वैसी अधूरी हैं। मगर एक बात साफ हो गई कि कोई इच्‍छा कभी पूरी हो नहीं सकती। मुझे ले चलो। मैं ऊब गया।..." उन्हें मात्र असीमित इच्छाओं के उदाहरण के रूप में देखा गया।
मगर व्यक्तिगत उनकी प्रवृत्ति के साथ-साथ उनके जीवन में और क्या चल रहा था? क्या वो मात्र एक विषय व्यसनी, स्त्री लोलुप ही थे? किन परिस्थितियों/कारणों ने उन्हें ऐसा बनाया! संक्षिप्त कहानियों में उनका उल्लेख नहीं है, मगर प्रसिद्ध लेखक विष्णु सखाराम खांडेकर द्वारा ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत उपन्यास 'ययाति' में इसका कुछ वर्णन है। उपन्यास के अनुसार एक क्षत्रिय राजा की परिस्थितिवश बनी ब्राह्मण पत्नी, जिसपर शुक्राचार्य की पुत्री होने का भी दंभ था के साथ विषम वैवाहिक जीवन और उत्पन्न परिस्थितियां या तो उन्हें उसकी मुट्ठी में मन मार जीवन व्यतीत करने पर विवश करतीं या प्रतिक्रिया में एक विपरीत ही छोर पर चले जाने की। और लगभग ये दोनों ही चीजें हुईं। साथ ही ऋषियों द्वारा नहुष के पुत्रों के कभी सुखी न होने का शाप भी। सबकुछ पास होता दिखते हुए भी ययाति कभी सुखी न हो पाए। ययाति ने न सिर्फ स्वयं को देवयानी से काट लिया बल्कि राजकाज से भी खुद को अलग कर लिया। सारा नियंत्रण देवयानी के ही पास था बस महाराज पर नहीं। किन्तु यहीं यदि उनका विवाह प्रारंभ में ही शर्मिष्ठा से हो जाता तो क्या परिस्थितियां अलग हो सकती थीं? प्रथम पड़ाव में ही इच्छा पूर्ण हो जाने पर अनंत (या अंत भी) काल तक इच्छाओं के पीछे मनुष्य क्यों भागता! आम चर्चाओं में जिस प्रकार रहस्यमयी या विद्रूप हंसी के साथ ययाति या किसी का भी उदाहरण दिया जाता है, उसके पहले समग्र परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना उचित न हो! मानव के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में भाग्य और परिस्थितियों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है, ययाति की कथा इसका एक अप्रतिम उदाहरण है...
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