कहते हैं कि हमें तब तक
किसी का महत्व समझ नहीं आता, जब तक हम उसे खो नहीं देते।
ये बात फिलहाल ‘देव बाबू’ या देवदास के
संदर्भ में। देवदास- 1917 में प्रकाशित शरतचंद्र की एक ऐसी कृति जिसे वो स्वयं भी
काफी ज्यादा पसंद नहीं करते थे। देवदास जो शायद उनके ही किन्हीं अनुभवों का साहित्यिक
प्रतिरूप था को वो एक निर्बल नायक मानते थे, जिसने पलायन
स्वीकार किया था। इस कमी को वो अन्य रचनाओं में दूर करते हैं, स्त्री चरित्रों को एक अद्भुत सशक्तता तो देते ही हैं। किन्तु देश के
पाठकों को क्या हो गया! देवदास उनके प्रेम संबंधी भावनाओं का सबसे उदात्त नायक
कैसे बन गया! न सिर्फ साहित्यिक सफलता अपितु सिने पर्दे पर भी जब-जब यह नायक सामने
आया इन्हीं पाठकों ने दर्शक के रूप में भी उसे मुक्त रूप से स्वीकार किया। अक्सर
साहित्यिक कृतियाँ सिनेमा के पर्दे पर अपनी सफलता दोहरा नहीं पातीं, इसके विपरीत भी होता है; किन्तु देवदास के साथ ऐसा
नहीं होता। ऐसे में इसे सिर्फ एक पुस्तक या सिनेमा से हटकर इसके मनोवैज्ञानिक पहलू
को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। प्रेम को लेकर भारत संकुचित नहीं रहा है, साहित्य के प्रारम्भिक दौर से ही प्रेम इसमें भी शामिल रहा है बल्कि मूल
में भी रहा है। किन्तु अभिव्यक्ति के संदर्भ में ऐसा कहना सहज नहीं। देवदास के रूप
में आने से पहले शाहरुख ने- साथ ही कई और लोगों ने भी- प्रेम के हिंसक स्वरूप को
महिमामंडित करने की कोशिश की। मगर यह हमारी स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं बन सका।
देवदास का प्रेम एक आम हिंदुस्तानी का प्रेम है। मूक, अपनी
प्रेमिका के प्रेम को पाने को उत्सुक, किन्तु उसके हित-अहित
के लिए सतर्क भी, जिस पुरुष मानसिकता का उसमें विकास हुआ है
उसे सँजोये प्रेम में भूल करने वाला भी, अन्यमनस्कता में
प्रेम को समझ न पाना, स्वीकार न कर पाना (शायद इसमें भी कहीं
किसी अहम को ठेस पहुँचती हो!), मगर स्वयं को नकारा जाना भी
स्वीकार न कर पाना.....
देवदास का प्रेम भी एक ऐसा
ही प्रेम है। बचपन से पारो से लगाव जाने कब प्रेम में बदल जाता है, स्वीकार नहीं कर पाता, अभिव्यक्त नहीं कर पाता, पारो स्वयं कदम आगे बढ़ती है तो संस्कार आड़े आ जाते हैं या शायद कहीं खुद
की कमजोरी का भाव भी। इसी भाव के आगे जो प्रेम पाने की स्थिति बननी थी, वो विछोह में बदल जाती है। देवदास कोई रसिक चरित्र नहीं है। ऐसा नहीं कि
पारो की जगह उसे कोई और नारी नहीं मिल सकती, किन्तु उसे वो
नहीं तो वैसी ही चाहिए; या सिर्फ वही;
जैसे पारिजात, जैसे आकाशकुसुम, जैसे बस
वही एक चाँद...! उसे पारो नहीं मिली, बल्कि उसका न मिलना उसकी किस्मत में आया। जानता है पा नहीं सकता तो इस अभाव, इस पीड़ा
की भरपाई उससे कहीं बड़ी पीड़ा से करने का मार्ग चुनता है। खुद को मिटाने का, प्रेम में आत्मोत्सर्ग का... वो भी उसी के द्वार पर जाकर जहाँ शायद उसे
उम्मीद है कि मृत्यु के बाद ही सही उसकी आत्मा अपनी पारो से एकाकार हो
सकेगी...
एक पक्ष पारो का भी है।
आर्थिक असमानता को भूल, प्रेम को उच्च मानती रूप, सौंदर्य, गुण हर चीज में उत्तम पारो अपने प्रेम की
अस्वीकृति से उस दिशा में कदम बढ़ा देती है जो उसे भी स्वयं को पीड़ा देने की ओर ही
ले जाता है। मगर इस पीड़ा में भी एक प्रतिशोध है जिसकी अग्नि उसकी अन्य सुकोमल
भावनाओं को उभरने ही नहीं देती। उसकी यह ज्वाला भी शायद देव की चिता की ज्वाला के
सामने ही फीकी पड़ने के इंतजार में है...!
इस कहानी की एक अन्य
महत्वपूर्ण पात्र चंद्रमुखी भी है। एक वैश्या होते हुये, हर रोज नए-नए पुरुषों से मिलते और उनके प्रेम प्रदर्शनों/निवेदनों की वास्तविकता
जानते-समझते वास्तविक प्रेम के दर्शन देवदास में ही करती है। उसके प्रेम में न कोई
अभिमान है, न दर्प, न ईर्ष्या, न प्रतिशोध। उसका यह प्रेम उसके जीवन को बदल देता है किन्तु फिर भी अपने प्रेम
से वो देव के जलते हृदय को शीतलता नहीं दे पाती।
इसके बीच एक और पात्र चुन्नी
बाबू भी हैं। जीवन को उसके उसी रूप में स्वीकार कर जीवन का आनंद मनाने वाले। किन्तु
जीवन को लेकर विचारों का यही अन्तर तो देवदास को एक अलग ही प्रजाति, एक अलग ही व्यक्तित्व बनाता है; जो सबके साथ आसानी से
मेल नहीं खा सकता...
प्रेम को एक अद्भुत उत्कट, अविस्मरणीय ऊँचाई देने वाला देवदास न सिर्फ 100 वर्षों से इस देश में विविधताओं
से ऊपर उठ एक नायक है बल्कि आने वाले युगों में भी मनुष्य के हृदय के किसी कोने में, किसी भावना के रूप में जीवित रहेगा ही। देवदास एक पात्र ही नहीं है, यह एक भाव है, एक विचार है जो कभी मिट नहीं सकता.....