रामनवमी
देश के हिंदुओं का एक प्रसिद्ध पर्व है, जब सारा देश भगवान राम का प्राकट्योत्सव मनाता है। देश के विभिन्न भागों
में इस अवसर को अलग-अलग अंदाज में मनाते हैं। पर हजारीबाग की रामनवमी की बात ही
अलग है। पूरे देश में जहां रामनवमी को ही मुख्य पूजा-अर्चना होती है यहाँ रामनवमी की पूजा के बाद झाँकियाँ निकलती हैं। झांकियों के निकलने का मुख्य
सिलसिला पुनः दशमी की रात से शुरू होता है जो एकादशी की
देर रात तक चलता रहता है। इस प्रकार लगभग 3 दिन इस उत्सव की धूम रहती है। सुबह से बजरंगबली की पूजा के साथ अलग- अलग संगठनों की ओर से महिला-
पुरुषों के जुलूस परंपरा के अनुसार निकलते रहते हैं। देर रात तक गिनी- चुनी झांकियां और अलग-अलग अखाड़ों से युवाओं की टोलियाँ महावीरी झंडों के साथ निकलती हैं।परंपरागत हथियारों के साथ
निकले युवा अपने कला- कौशल का प्रदर्शन करते हैं। दशमी
की रात लगभग 9 बजे से
झांकियां पुनः निकलनी शुरू होती हैं और परंपरागत मार्ग से गुजरते हुए अगले दिन की देर रात या अगली सुबह तक जारी रहती हैं।
शोभा यात्रा में शामिल लोग |
लाखों की भीड़, डीजे के शोर और तरह- तरह की झांकियों का नजारा अद्भुत रहता है। सैकड़ों की संख्या में झांकियां और उनके साथ सम्बद्ध बच्चों, युवाओं, वृद्धों का झुंड तथा इस दृश्य का आनंद उठाने के लिये एक लाख से अधिक की भीड़ सड़कों पर होगी। इस लाखों की भीड़ को
नियंत्रित करना जिला प्रशासन के समक्ष एक बड़ी चुनौती होती है।
1918 से हुई थी शुरूआत
: प्रचलित मान्यता के अनुसार हजारीबाग के प्रसिद्ध पंच मंदिर की 1901 से प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही पूजा अर्चना
प्रारंभ हुई। 1905 में
पंच मंदिर के लिए चांदी जड़ा नीले रंग का ध्वज बनारस से
मंगवाया गया था। मंदिर में ही ध्वज को रखकर पूजा अर्चना
की जाती थी। बताया जाता है कि स्व गुरूसहाय ठाकुर इस ध्वज को लेकर शहर में जुलूस निकालना चाहते थे, लेकिन
पंच मंदिर की संस्थापक मैदा कुंवरी के देवर रघुनाथ बाबू
ने इसकी इजाजत नहीं दी। इजाजत नहीं मिलने के बाद स्व
गुरूसहाय ठाकुर ने 1918 में 5 लोगों के साथ मिलकर रामनवमी जुलूस पहली बार
निकाला। लोग बताते हैं कि इसके बाद रामनवमी जुलूस में चांदी जड़ा नीले रंग का ध्वज भी निकालकर शहर में घुमाया गया। इस प्रकार हजारीबाग में रामनवमी की शुरूआत हो गई।उस दौर में शालीनता, श्रीराम
के आदर्श और झांकी- जुलूस के नाम पर गगनचुंबी महावीरी झंडे हुआ करते थे। जुलूस
पूरे शहर का भ्रमण करते हुए कर्जन स्टेडियम पहुंचती थी। जहां मेला लगा होता था और
उसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख-
ईसाई हर किसी की भागीदारी उसी उमंग से हुआ करती थी कि मानो उनका ही यह त्योहार हो।
महावीरी झंडों से पटा शहर |
समय के साथ बदलाव: दशकों तक गगनचुंबी झंडा इस
रामनवमी की पहचान थी। आज के समय में कुछ क्लबों को छोड़ दें
तो गगनचुंबी झंडों के स्थान पर अत्याधुनिक व भव्य झांकियों ने स्थान ले लिया है। जीवंत झांकियों के साथ-साथ अत्याधुनिक नक्काशीदार व एलईडी बल्बों से सजी झांकियां रामनवमी के जुलूस में देखी जाती हैं।
कभी ढोल-ढाक के साथ जुलूस निकाला जाता था, तो आज डीजे रामनवमी
की पहचान बन गई है। 1989 तक रामनवमी का जुलूस नवमी की शाम 8 बजे तक परंपरागत सुभाष
मार्ग से गुजरकर कर्जन ग्राउंउ में झंडा मिलान करते हुए
वापस अपने अखाड़ों तक पहुंच जाता था, लेकिन आज नवमी को अपने मुहल्ले में एवं दशमी को देर रात्रि निकलकर परंपरागत सुभाष मार्ग से एकादशी की देर रात्रि तक गुजरकर संपन्न होता है। जीवंत झांकियों के
साथ-साथ अत्याधुनिक झांकी, मंदिरों, बड़े भवन, किसी विषय पर तैयार आकर्षक अनुकृति
साज- सज्जा के साथ निकल रही हैं।
इन्हीं
वर्षों में जिला प्रशासन रामनवमी के जुलूस पर नजर रखने का
काम घोड़ा पर सवार होकर करता था। तब स्व हीरालाल महाजन
एवं स्व पांचू गोप जैसे लोगों ने इसका नेतृत्व कर इसे
बेहतर रूप देने का प्रयास किया।
1965 में निकला पहली बार मंगला जुलूस
प्राप्त
जानकारी के अनुसार पहली बार 1965 में
मंगला जुलूस निकाला गया था। श्री सिंह बताते हैं कि रामविलास खंडेलवाल की देखरेख में 10-11 लोगों ने मंगला जुलूस निकाला। मंगला जुलूस निकालने
वालों में श्यामसुंदर खंडेलवाल, आरके स्टूडियो के संचालक प्रकाशचंद्र रामा, अशोक सिंह, रवि मिश्रा, कालो राम, अरूण सिंह, वरूण सिंह, पांडे गोप, बड़ी बाजार के गुप्ता जी शामिल थे।
बड़ा
अखाड़ा से जुलूस निकालकर बजरंग बली मंदिर में लंगोटा चढ़ाया
जाता था। बाद में पूर्व जिप अध्यक्ष ब्रजकिशोर जायसवाल, गणेश सोनी, ग्वालटोली चौक के अर्जुन गोप आदि ने महावीर मंडल का कमान संभाला था।
सांप्रदायिक
एकता की मिशाल
कदमा के अशोक सिंह एवं प्रदीप सिंह बताते हैं कि पहले रामनवमी सांप्रदायिक एकता की मिशाल हुआ करता था।
अधिवक्ता बीजेड खान के पिता स्व कादिर बख्श सुभाष मार्ग
में जामा मस्जिद के समक्ष बैठकर जुलूस में शामिल लोगों का स्वागत करते थे।
इतना ही
नहीं, मुहर्रम भी सांप्रदायिक एकता की मिशाल बना करता था। कस्तूरीखाप के झरी सिंह छड़वा डैम मैदान में मुहर्रम मेला के खलीफा हुआ करते थे। वहीं विभिन्न अखाड़ों के झंडा और निशान लोगों से मिलकर तय करते थे। यह भी बताया गया कि रामनवमी के स्वरूप को बेहतर बनाने में कन्हाई गोप, टीभर गोप, जगदेव यादव, धनुषधारी सिंह, भुन्नू बाबू, डॉ.शंभूनाथ राय आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1970 के दशक में ताशा का प्रयोग
हजारीबाग की ख्यातिप्राप्त रामनवमी के इतिहास में 1970 का दशक एक बड़ा बदलाव लेकर आया। इन्हीं वर्षों
में रामनवमी के जुलूस में तासा का प्रयोग किया जाने लगा। बॉडम बाजार ग्वालटोली
समिति ने अपने जुलूस में पहली बार तासा पार्टी का
प्रयोग किया और बाद में सभी अखाड़ों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा। तासा पार्टी, बैंड पार्टी व बांसुरी की धुन रामनवमी के जुलूस में झारखंड बनने तक जारी रहा।
90 के दशक से ही ताशा
के साथ-साथ डीजे ने भी स्थान ले लिया है। डीजे पर बजने
वाले गीत व फास्ट म्यूजिक युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं।
हालांकि डीजे लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसके सीमित प्रयोग का निर्देश दिया है। अब युवा डीजे की धुन पर न केवल नाचते हैं बल्कि तलवार, भाला, गंड़ासा, लाठी के संचालन को भी प्रदर्शित करते हैं।
झांकी
का प्रयोग मल्लाहटोली से
हजारीबाग की ख्यातिप्राप्त रामनवमी में झांकियों का प्रयोग 70 के दशक में मल्लाहटोली ने प्रारंभ किया।
मल्लाहटोली क्लब द्वारा तब जीवंत झांकियों का प्रदर्शन
किया जाता था। रामायण के अंश को लेकर उसी पर आधारित झांकियां प्रस्तुत की जाती थी। बाद में कई अन्य अखाड़ों द्वारा झांकियों का प्रयोग किया जाने लगा।
अब
थर्मोकोल से लेकर अन्य सामग्रियों से देश के भव्य मंदिरों व
इमारतों के साथ-साथ समसामयिक घटनाओं पर आधारित भव्य झांकियों को प्रदर्शित किया जाता है। करीब 100 झाकियों
वाले जुलूस में आधार दर्जन से अधिक झांकियां अभी भी
जीवंत देखी जा सकती हैं।
कई बार
रामनवमी कलंकित भी हुई
रामनवमी के 100 साल के इतिहास में इसके कई बार
कलंकित होने के मामले भी आए हैं जब इसने दो समुदायों के बीच साम्प्रदायिक तनाव या वैमनस्य का स्वरूप
लिया। बीच में विभिन्न क्लबों द्वारा चंदे के लिए
ज़ोर-जबर्दस्ती करने की घटनाओं ने भी इसकी छवि को प्रभावित किया, आज भी नशे में झांकी में शामिल होने से भी कई बार अशोभनीय स्थिति उत्पन्न
हो जाती है; किन्तु प्रशासन ने इस ओर भी ध्यान दिया है।
यह तो
तय है कि आज हजारीबाग की रामनवमी ने एक लंबा सफर तय कर देश ही नहीं अन्तराष्ट्रिय
स्तर पर भी अपनी पहचान बना ली है। आवश्यकता है कि पर्व के पारंपरिक और शालीन
स्वरूप को बनाए रखते हुये इसे मनाएँ और इसके स्वरूप को और भी आकर्षक बनाएँ...
(संदर्भ: स्थानीय समाचार पत्र और जानकारों की राय पर आधारित)