तू याद बहुत आएगा तो...
80
का दौर हिन्दी सिनेमा में संगीत के लिहाज से सबसे बुरे दौर में एक माना जाता है। जब
मुख्यधारा की फिल्मों में हिंसा, अश्लीलता, द्वियार्थी संवाद अपनी जगह बना चुके थे,
रफी, मुकेश, किशोर के दौर का संगीत खत्म ही हो चुका था। फिल्मों
में गानों की जगह बस जगह भरने या हीरोईनों के होने का औचित्य सिद्ध करने के लिए थी।
डिस्को, पौप के खिचड़ी शोर में मधुर फिल्मी गीतों की परंपरा खो सी चुकी थी।
ऐसे में कुछ गीतकार/संगीतकर जब मौका मिले कुछ छाप छोड़ जाते थे और इसमें उनका साथ देने
वाली जो आवाजें आज भी ज़हन में उभरती हैं वो हैं मोहम्मद अज़ीज़ और शब्बीर कुमार की।
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जुलाई 1954 को पश्चिम बंगाल के अशोक नगर में जन्मे मोहम्मद अज़ीज़ ने संगीत सफर की शुरुआत कोलकाता के 'ग़ालिब' रेस्टोरेन्ट से की। उनकी पहली फिल्म बांग्ला में
'ज्योति' थी। उनके परिवार में संगीत के
लिए कोई खास जगह न थी, पर तमाम विरोध और संघर्ष के साथ उन्होंने
यह राह चुनी। 'किराना घराना' के उस्ताद
अमीर अहमद खाँ की शागिर्दी में संगीत की शिक्षा ली। मोहम्मद
रफी के बड़े फैन होने के नाते स्टेज शो आदि
में भी उनके गीत गाते रहे। ऐसे ही एक शो में अन्नू मलिक ने उन्हें देखा, जो खुद भी उस दौर में स्ट्रगल कर रहे थे। बाद में दोनों ने कई फिल्में साथ
कीं। 1984 में वो मुंबई आए और यहाँ उनकी पहली हिन्दी फिल्म 'अंबर' थी। 'मर्द' के टाइटल सॉन्ग 'मर्द तांगेवाला' से हिन्दी संगीतप्रेमियों में वो प्रसिद्ध
हुये और अपने संगीत सफर में लगभग 20000 गीत गाए। 80 के दशक से गुजरने वाले लोगों की
स्मृति के ज़्यादातर गीतों में इन्हीं की आवाज गूँजती होगी। रोमांस, दर्द, शरारती... आदि हर मूड के गानों में आप उनकी आवाज
पाएंगे। अमिताभ के साथ उनका साथ कई फिल्मों का रहा, एक समय तो
वो अमिताभ की आवाज के रूप में पहचाने जाते रहे। गोविंदा की पहली फिल्म 'लव 86' और आगे भी उनके कई हिट गानों को उनकी आवाज मिली।
एकल गानों में- आज कल याद कुछ और रहता नहीं (नगीना), तेरी बेवफाई का (राम अवतार), सावन के झूलों ने (निगाहें)...
आदि। लता के साथ 'पतझड़ सावन बसंत बहार' (सिंदूर) में उनको इंट्री गाने को और खिला देती है। आज सुबह जब मैं जागा' (आग और शोला) आज भी किसी-किसी सुबह याद आ ही जाता है। मनहर के साथ का 'तू कल चला जाएगा...' (नाम) भी उनका लगातार सुना जाने
वाला गीत है। 'मर्द' के अलावा अमिताभ के
लिए 'खुदा गवाह', अनिल कपूर के सिग्नेचर
सॉन्ग 'माई नेम इज लखन', तो गोविंदा के
'मय से, मीना से,
न साकी से' और कर्मा के 'ऐ वतन तेरे लिए' जैसे गानों के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे। कहते हैं सातवें सुर में गाने वाले
चुनिंदा गायकों में थे वे, जिसके उदाहरण के रूप में 'सारे शिकवे गिले भुला के कहो' गीत को लिया जाता है। इसीलिए
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के ये पसंदीदा गायकों में रहे।इस जोड़ी के टूटने के बाद इनका
कैरियर भी ढलान पर आ गया।
वो आम आदमी के दिल
की आवाज थे, इसलिए उसके लिए उन्हें गुनगुनाना
भी ज्यादा सरल था। गुनगुनाहटों में शामिल कितने गाने याद
किए और कराये जाएँ, सुने ही जाते रहेंगे। कोई यात्री आता है, अपना सफर पूरा कर चला जाता है। क्या यादें, क्या छाप
छोड़ जाता है यही मायने रखता है। मोहम्मद अज़ीज़ ने
भी अपनी छाप छोड़ी पर वो खुद ही अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। हिन्दी सिनेमा के मुख्यधारा के गायकों में उन्हें नहीं गिना गया। तमाम
सफल गीतों और प्रशंसकों के बावजूद उन्हें उनका यथोचित स्थान न मिल सका। दो बार फिल्मफेयर
के लिए नोमिनेट हुए, मिल नहीं पाया। आज के
दौर में किसी रियलिटि शो के लिए भी वो याद न किए जाते रहे। गलतफहमी में कई बार लोग
उन्हें मोहम्मद रफी का पुत्र भी समझ लेते थे, शायद यह छवि भी
उनके उभरने में बाधा रही पर उनकी प्रतिभा का भी अंदाजा देती है। अमिताभ द्वारा रफी
को श्रद्धांजलि देता गीत 'न फनकार तुझसा तेरे बाद आया' (क्रोध) भी गाने का अवसर उन्हें ही मिला जो उनके यादगार गीतों में भी है।
शायद फिल्म इंडस्ट्री में आत्म प्रचार की कला
का न होना भी एक कारण हो! गानों के पुराने स्वर्णिम दौर और कुमार शानू, सोनू निगम के नए दौर के बीच का वो ट्रांजेक्क्शन दौर था जिसमें उनके जैसी
कई आवाजें बस खाली जगह ही भरती रह गईं, मगर फिर भी उस दरार को
भरने में इनका काफी योगदान रहा और इसी आधार पर श्रवणीय संगीत फिर खड़ा हो पाया। 64 वर्षीय मोहम्मद अजीज की हार्ट अटैक से 27
नवंबर 2018 को मृत्यु हो गई। संगीत जगत में उनके योगदान
को याद करते हुये उन्हें श्रद्धांजलि...
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