भूविज्ञान
और विज्ञान से जुड़े कई अन्य वैज्ञानिकों की यह खासियत होती है कि वो अपने बारे में
ज्यादा बात नहीं करते, औरों से ज्यादा बात नहीं करते, औरों की भी ज्यादा बात नहीं करते. और अधिकांश अपनी
एकल उपलब्धियाँ बटोरे खामोशी से एक दिन खामोशी से गुजर
जाते हैं। भारत में यह विशेषता कुछ ज्यादा ही प्रतीत होती है। विश्वविद्यालयों में
जहाँ शिक्षक और छात्रों के रूप में इस दूरी को कम करने की थोड़ी गुंजाइश है भी वहाँ
भी ऐसी कोई खास कोशिश दिखती नहीं। खैर...
डॉ.
खड़क सिंह वल्दिया (प्रो.के.एस. वल्दिया) इस मामले में थोड़े अलग थे जिन्होंने न सिर्फ
अपने बल्कि भूविज्ञान और आम लोगों के बीच की इस दूरी को कम करने में भी मुखर भूमिका
निभाई। उनका मुखर होना काफी खास भी था। उनका जन्म 20 मार्च
1937 को कलौं, म्यांमार (बर्मा) में हुआ था। प्रो.वल्दिया
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ सीमांत जिले आठगांव शिलिंग के देवदार (खैनालगांव) के मूल
निवासी थे। डा.मोहन चंद तिवारी जी के संस्मरण के अनुसार डॉ. वल्दिया का बचपन जो कि
मुख्यतः म्यांमार,
तत्कालीन बर्मा
में बीता था; वहीं विश्व युद्ध के दौरान एक बम
के धमाके से इनकी श्रवण शक्ति लगभग समाप्त हो गई। इनके दादा जी पोस्ट ऑफिस में
चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे और पिताजी मामूली ठेकेदारी करते थे। परिवार में घोर गरीबी
थी। इसके बावजूद वहाँ रहते उन्होंने जो सपने देखे,
कल्पनाएँ सँजोईं उसे हक़ीक़त में भी तलाश करते रहे। बर्मा में नेताजी सुभाष बोस के
भाषणों को सुन कर खड्ग सिंह को एक ही शिक्षा मिली कि हम सब हिंदुस्तानी हैं। वहां
सबकी एक ही जाति थी- हिंदुस्तानी’,
एक ही मजहब था- ‘आजादी’,
एक ही भाषा थी ‘हिंदी’
और एक ही अभिवादन
था- ‘जय हिंद’। इसका बचपन ऐसे समाज में बीता जो उस बगीचे के
समान था जिसमें हर किस्म के,
हर रंग के फूल
खिलते थे।
उन्होंने
अपनी आत्मकथा में लिखा है- “मुहल्ले में साथी थे रफीक नाई का बेटा
छोटू, मथुरा पाण्डेय पान वाले का सुपुत्र
तुलसी, फतह मोहम्मद मोची की बिटिया मुन्नी, बशीर बेकर की बेटी जेना, सिख दर्जी का मुंडा लोचन। जब हिंदी स्कूल गया तो
दोस्ती का दायरा कुछ बढ़ा। मुलुक के अपने इलाके के किदारी, दीवानी,
प्रेमवल्लभ, मधु,
भागु, परु आदि मित्र बन गए। तब कोई किसी का उपनाम
(सरनेम) नहीं जानता था,
न किसी की जाति के
बारे में कुछ ज्ञान था। मुझे तो भारत आकर पता लगा कि हम वल्दिया कुनबे के हैं।
कांर्वेट स्कूल में मेरे दोस्त थे बर्मी बाविन, शान
ईसाई बार्बरा वाछित,
चीनी विंचैट और
ईरानी शिराजी।”
माध्यमिक शिक्षा से पहले ही कान खराब होने पर लोग इनका मजाक बनाने से भी नहीं चूकते थे और ताने मारते थे कि यह बच्चा जीवन में कुछ नहीं कर पाएगा। पर अपने मनोबल, संकल्प और कठोर परिश्रम के बल पर इस बालक ने ऐसा कुछ कर दिखाया कि समूचे विश्व ने उसकी बातें गंभीरता से सुनी। उस दौर में हियरिंग ऐड मशीन की आज जैसी सुविधा नहीं थी। तब बालक रहे वल्दिया सदैव हाथ में एक बड़ी बैटरी लिए चलते थे जिससे जुड़े यंत्र से वे थोड़ा बहुत सुन पाते थे। इसी हालात में उन्होंने न केवल अपनी शिक्षा पूरी की बल्कि टॉपर भी रहे। जीवन को राह दिखाने में गुरु की भूमिका और भी स्पष्ट होती है जब हम पाते हैं कि उनके एक शिक्षक बहुगुणा जी ने उनसे कहा कि तुम भूगर्भ विज्ञानी बनो जिसमें न सुनना है, न बोलना, बस पत्थरों को ताकना है, और यह बालक जीवन की वही राह चुन लेता है।
पिथौरागढ़
से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वल्दिया ने लखनऊ विश्वविद्यालय से
उच्च शिक्षा प्राप्त की और वहीं भू-विज्ञान विभाग में प्रवक्ता पद पर उनकी
नियुक्ति हो गई।
उन्होंने
1963 में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।
भू विज्ञान में उल्लेखनीय कार्य करने पर 1965
में वह अमेरिका के
जॉन हापकिंस विश्वविद्यालय के फुटब्राइट फैलो चुने गए थे। 1979 में राजस्थान यूनिवर्सिटी उदयपुर में भू विज्ञान
विभाग के रीडर बने। इसके बाद 1970
से 76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में
वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। 1976 में
उन्हें उल्लेखनीय कार्य के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया
गया।1983 में वह प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक
सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे।
प्रो.वल्दिया
भू वैज्ञानिक होने के साथ साथ कवि और लेखक भी थे। प्रो.वल्दिया ने कुल चौदह
पुस्तकें लिखी,
जिनमें मुख्य
पुस्तकें हैं -जियोलाजी ऑफ कुमाऊं,
लैसर हिमालय, डायनामिक हिमालय, नैनीताल
एंड ईस्ट एनवायरमेंटल जियोलाजी,
एनवायरमेंट एंड
सोसाइटी, एक थी नदी सरस्वती, आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ आदि।
एक संघर्षमय किन्तु प्रेरक जीवन जीकर हिमालय पर्यावरणविद् के रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भूवैज्ञानिक पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित प्रोफेसर खड़क सिंह वल्दिया का 83 साल की उम्र में कल 29 सितंबर को निधन हो गया।वे इन दिनों बेंगलुरु में थे और लंबे समय से बीमार चल रहे थे।
उन्होंने
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी में भी कई वैज्ञानिक लेख लिखे, काश कि ये एक जगह संकलित हो पायें. विज्ञान, वैज्ञानिकों और आम लोगों के मध्य की दूरी को कुछ
कम कर पाने में सार्थक भूमिका निभा पाना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी...