भारत और चीन विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं हैं तो इनके आपस में प्राचीन संबंध स्वाभाविक है। बीच-बीच में विवाद भी उठते रहते हैं, जो न होते तो इस उपमहाद्वीप की स्थिति और बेहतर होती।
दोनों देशों को जोड़ने वाले विभिन्न सूत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका बौद्ध धर्म की भी है जिसे स्थापित करने में सम्राट अशोक की भी अहम भूमिका रही। माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात उनके अवशेषों को एकत्र कर उन्हें विश्व के विभिन्न हिस्सों में भेजा गया था, जिनपर 84000 स्तूपों का निर्माण हुआ था।
कहते हैं चीन में इनके आधार पर 19 स्तूपों का निर्माण हुआ था, जिनमें से अधिकतर समय के साथ प्राकृतिक प्रभाव और समुचित देखरेख के अभाव के कारण ढ़ह गए। चार स्तूप जिनके प्रमाण आज शेष हैं चीनी शहरों- नांगचेन, शियान, नानजिंग और झेजिंयाग प्रांत के नजदीक आयुवांग में थे। नांगचेन स्तूप के अवशेष कई सालों से बिखरे पड़े थे, लेकिन यहाँ से एक स्तंभ जिसपर इसकी ऐतिहासिकता का उल्लेख था के पाये जाने से संबद्ध लोगों में इसके प्रति रुचि और जागरूकता बढ़ाई।
इसके परिणामस्वरूप ज्ञालवांग द्रुकपा जो बौद्ध धर्म की महायान शाखा से जुड़ी द्रुकपा परंपरा के धार्मिक प्रमुख हैं के प्रयासों से 2007 में इस स्तूप के जीर्णोद्धार के प्रयास आरंभ हुए। इस धार्मिक समुदाय के अंतर्गत हिमालय क्षेत्र के लगभग 1000 बौद्ध मठ आते हैं।
पुनर्निर्माण की इस परियोजना में बुद्ध की एक विशाल स्वर्णिम प्रतिमा और अशोक स्तंभ की प्रतिकृति को भी शामिल किया गया है।
बौद्ध धर्म की जो शाखायें पूरे एशिया में फैली हैं उनका जड़ सभी को आपस में जोड़े रह सकता है। गौतम बुद्ध के शांति का संदेश को समझना और आचरण में लाना इस पूरे क्षेत्र के विकास को सुनिश्चित करेगा।