15 अगस्त 1947 की तिथि हमारे देश में जहाँ एक ओर स्वतंत्रता का उल्लास लिए आई वहीं इसकी पृष्ठभूमि में 14 अगस्त की तारीख़ एक ऐसी पीड़ा को भी लिए हुये है जिसने इस देश को कभी भी न मिटाने वाले ज़ख्म दिये हैं। विभाजन की विभीषिका ने करोड़ों लोगों को कभी न भूलने वाले दर्द दिये जिनकी तीस आज भी उठती रहती है। यह विभाजन सिर्फ जमीन के एक टुकड़े का नहीं था, बल्कि इस जमीन पर असंख्य लोगों को पीढ़ियों से जमी उनकी जड़ों समेत उखाड़ कर फेंक दिया था। यह विभाजन राजनीतिक कूटनीति, इसके खिलाड़ियों, उनके प्यादों के आपसी दांवपेचों का नतीजा थी, मगर इसका परिणाम उन लोगों को भुगतना पड़ा जो शायद ही ऐसी किसी स्थिति की कामना करते हों! आम आदमी आपसी मतभेदों का शिकार हो, बहकाये जाकर झगड़े कर सकते हों, मगर उनके चाहने से देश का विभाजन जैसी घटना हो जाए ऐसी गलतफहमी शायद ही किसी को हो। इसके असली रणनीतिकार, इससे लाभ उठाने वाले और अमल तक पहुँचाने वाले तत्व अलग ही रहे होंगे। उन वास्तविक गुनहगारों को पहचानने और सबक ले सतर्क रहने की आवश्यकता ज्यादा है ताकि मानवता को फिर ऐसी त्रासदी फिर कभी न देखनी पड़े।
‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को लेकर 14 अगस्त 2021 को केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से भारत सरकार का राजपत्र यानी कि गजट जारी किया गया था, जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार, भारत की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को विभाजन के दौरान लोगों द्वारा सही गई यातना और वेदना का स्मरण दिलाने के लिए 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में घोषित करती है।
इस अवसर पर पूरे देश में विभिन्न कार्यक्रम हो रहे हैं। इन्हीं में से एक में शामिल होने का अवसर मिला नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट, नई दिल्ली में जहां इस विभीषिका के विविध पहलुओं को दर्शाने वाली प्रदर्शनी ''भारत का विभाजन... 1947' आयोजित की गई थी।
प्रदर्शनी में विभाजन और आजादी की यह दास्ताँ आवाम के नजरिए से सुनाई जा रही हैं। 1947 में भारत के विभाजन ने इतिहास के सबसे बड़े सामूहिक पलायन को अंजाम दिया। लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोग अपने घर छोड़कर भागने पर विवश हुए और 10 लाख से अधिक की मृत्यु हो गई। ये आयोजन विभाजन के पीड़ितों और उनकी भावी पीढ़ियों के अनुभवों से पुनः गुजरने का अवसर देते हैं।
यह प्रदर्शनी 1900 के दशक में ब्रिटिश राज के बढ़ते प्रतिरोध के साथ शुरू होती है। यहाँ 1900-1946 की अवधि में हुई महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रदर्शनी में 1947 की शुरुआत में हुई उस अराजकता का वर्णन भी किया गया है जब दंगों ने भारत के अधिकांश हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था और केवल 5 सप्ताह के भीतर ही बंगाल और पंजाब को विभाजित करते हुए तदर्थ सीमाएं खाँच दी गई थी। इन विभाजनकारी फैसलों के कारण लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। वे भोजन और आश्रय के बिना अपने घर से भागकर दोनों देशों में बने शरणार्थी शिविरों में पहुंचे। 6 सितंबर 1947 को राहत और पुनर्वास मंत्रालय की स्थापना की गई। केंद्र की अस्थायी सरकारों ने रातों-रात बड़े पैमाने पर तंबुओं का निर्माण करवाया। स्कूलों और अन्य सार्वजनिक भवनों में अस्थायी आश्रय प्रदान किए गए। अंतहीन हिंसा का सामना करते हुए कई शरणार्थियों को अपने घरों, परिवारों और दोस्तों से अलग होकर सुदूर अज्ञात भूमि की ओर प्रवास करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
यहाँ मानवीय स्वभाव का एक और दुःखद पहलू उभर कर सामने आता है जब हम पाते हैं कि अपनी जड़ों से उजड़े लोग विस्थापित हो बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं मगर उनके मन से छुआछूत जैसी भावनाएं नियंत्रित तक नहीं हो पातीं और अंबेडकर जी को नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ता है कि दलित शरणार्थियों के लिए अलग व्यवस्था की आवश्यकता है।
अधिकांश विस्थापितों के लिए विभाजन के बाद के वर्ष कठिन थे क्योंकि वे जीवित रहने और अपने जीवन के पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे थे। सरकार ने शरणार्थियों के लिए रोजगार के लिए नई टाउनशिप और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र बनाना शुरू किया। फरीदाबाद जैसे शहर इसी की निशानी हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पुनर्वास की इस प्रक्रिया में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान साहब यानी बादशाह खान की भी काफी सक्रिय भूमिका रही। दिल्ली का खान मार्केट और फरीदाबाद का बीके अस्पताल उनकी स्मृतियों की स्वीकृति है जो भले आज एक बड़ी आबादी के द्वारा भुला दिया गया हो!
जैसे-जैसे लोग बसे, उन्होंने अपने जीवन को फिर से संगठित किया और उसे सार्थक बनाने वाले विभिन्न सामाजिक और प्राकृतिक पहलुओं से जुड़ना शुरू किया। साहित्य, संगीत, सिनेमा ने इस दिशा में विशेष भूमिका निभाई। इसने जताया कि दोनों देशों की आम जनता अब भी कुछ बिंदुओं पर एक सूत्र से जुड़ी हुई है।
उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां साहब को आजादी के लगभग एक दशक बाद मोरारजी देसाई जी और नेहरू जी के प्रयासों से भारत वापस आने और मुंबई में बसने को राजी किया जा सका। ऐसे ही और भी कई उदाहरण हैं।
समय के साथ भले राह मुश्किल होती गई पर कुछ लोग जो अपने बचपन के घरों का दौरा करने में सक्षम हुए. अपनी इस यात्रा के प्रत्येक विवरण को इस प्रकार बताते हैं जैसे कि यह उनकी स्मृति में अमिट रूप से अंकित हो चुकी हो। आखिरकार, शरणार्थियों के लिए स्मृतियां ही वह कोना रह जाती हैं जिसमें वो अपनी पुरानी यादों को सहेज और जी पाते हैं।
यहाँ भी जिक्र उचित होगा कि इस अवसर से जुड़े साहित्य, फिल्मों के माध्यम से भी आप उस दौर को महसूस कर सकते हैं। 'तमस' उपन्यास और फ़िल्म जो कि यूट्यूब पर भी उपलब्ध है ऐसा ही एक उदाहरण है।
यह अवसर सिर्फ नफरत को बनाए रखने का नहीं है, बल्कि इस बात को समझने का है कि इस नफरत की आग को भड़काया किन्होंने, किनके घर जले और किनके घर सजे। इस देश का आम आदमी फिर ऐसी किसी साजिश का शिकार न बन जाए इसके लिए जरूरी है कि इन स्मृतियों को याद रखते हुये खुद को ऐसी किसी साजिश का शिकार होने से भी बचाए। इसी में उन मृतात्माओं को भी श्रद्धांजलि है जिन्हें राजनीति के इस चक्रव्यूह में अपने तन-मन-धन की कुर्बानी देनी पड़ी...
स्रोत: म्यूजियम में उपलब्ध जानकारी,
प्रदर्शनी में तस्वीरें लेने की अनुमति न होने के कारण इंटरनेट से उपलब्ध कुछ तस्वीरें