Monday, December 29, 2008

ब्लौगिंग का सफर

ब्लौगिंग का सफर

एक और साल जाने को है, और आने को है एक नया साल। आज गुजरे वर्ष को एक बार जब पलट कर देखता हूँ तो ऐसा लगता है यह वर्ष शायद अब तक के जीवन का सबसे व्यर्थ वर्ष रहा होता। हाँ यह वर्ष भुला ही दिए जाने लायक रहता यदि इस वर्ष मैं ब्लौगिंग में न आया होता। क्योंकि उपलब्धि के नाम पर इस साल मेरे लिए मात्र ब्लौगिंग ही है।

2007 के अंत से ही ब्लौगिंग शुरू करने का प्रयास शुरू कर दिया था जो इस वर्ष स्वरुप ले सका। अपने युवा समूह 'धरोहर' (An Amateur's Club) को ब्लॉग के रूप में लाना इसे एक नया उत्साह देने के समान था।

विज्ञानं कार्यशाला के माध्यम से अरविन्द मिश्र, जाकिर अली 'रजनीश', जीशान जैदी, मनीष गोरे आदि जैसी हस्तियों से परिचय, राही मासूम रजा पर आधारित ब्लॉग और 'वांग्मय' के फिरोज़ अहमद साहब से संपर्क, धरोहर को सहेजने के मेरे प्रयास में 7 नए सहयात्रियों- केशव दयाल जी, परिमल जी, नीरज जी, विनीता यशश्वि जी, मेरी माला मेरे मोती ब्लॉग, मंसूर अली जी और अशोक कुमार पांडे जी का जुड़ना ब्लौगिंग के माध्यम से ही सम्भव हुआ। सचिन मल्होत्रा, रौशन जैसे मित्र और आशीष खंडेलवाल जैसे मार्गदर्शक भी ब्लौगिंग के माध्यम से मिले।

'भड़ास' और 'मेरे अंचल की कहावतें' ब्लॉग पर भी मुझे अभिव्यक्ति का अवसर मिला।

ब्लौगिंग में उत्साह बढ़ने वाले टिप्पणीकारों के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूँ।

हाँ, नन्दलाल जी के 'जल संरक्षण अभियान' से जुड़ने और मेधा पाटेकर व संदीप पांडे से मुलाकात के लिए भी यादगार रहेगा यह वर्ष।

अब जैसी की परम्परा है आने वाले वर्ष पर ख़ुद से नए वादे करने की तो अपने कुछ शुभचिंतकों के आग्रह को स्वीकार करते हुए आप सभी ब्लौगर्स से भी वादा करता हूँ एक नया ब्लॉग 'गांधीजी' पर शुरू करने का। आशा है नव वर्ष में भी सभी ब्लौगर्स का सहयोग व प्रोत्साहन मिलता रहेगा।

सभी ब्लौगर्स को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।


Thursday, December 25, 2008

राही मासूम रजा: हिंदुस्तानियत के प्रतीक पुरूष


राही मासूम रजा : हिंदुस्तानियत के प्रतीक पुरूष

राही मासूम रजा भारत की गंगा-यमुनी संस्कृति और हिन्दी व उर्दू की स्वाभाविक एकता के प्रतीक पुरूष थे। दुर्भाग्यवश उनको आज तक मुख्यतः ' आधा गाँव 'के लेखक या दूरदर्शन धारावाहिक 'महाभारत' तथा 'नीम का पेड़' के लेखक के रूप में ही जाना जाता रहा। सौभाग्य से यदि मुझे डॉ. एम. फिरोज़ अहमद के संपादन में आई त्रैमासिक 'वांग्मय' का 'राही मासूम रजा अंक' न मिला होता तो उनके बारे में मुझे भी मात्र यह सतही जानकारी ही रहती।
जयशंकर प्रसाद ने कहा था- 'हर अमंगल के पीछे मंगल कामना होती है.' राही साहब की जिंदगी इसकी प्रत्यक्ष मिसाल है. परिस्थितियों के दबाव ने यदि उन्हें अलीगढ छोड़ने को विवश न किया होता तो शायद हम हिन्दी सिनेमा के संभवतः सबसे रचनात्मक व्यक्तित्व से रूबरू न हो पाते।
क्या आप विश्वास कर पाएंगे कि हृषिकेश मुखर्जी की कालजयी कृति 'गोलमाल' के संवाद लेखक राही साहब थे ! सुभाष घई की 'क़र्ज़' अमिताभ की 'आखरी रास्ता', यश चोपडा की 'लम्हें' और बी. आर. चोपडा की 'निकाह' आदि उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक मात्र हैं।
साहित्यकार के अलावे एक भाई, पति या पिता के रूप में उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उनकी बहन और उनकी पत्नी के साथ लिए गए साक्षात्कारों के माध्यम से जानना एक नवीन अनुभव रहा. राही साहब के लेखों और साक्षात्कारों से उनकी इस देश की मिटटी और संस्कृति से जुड़े होने की कसक भी दिखी।
राही साहब के विविधतापूर्ण व्यक्तित्व को हम तक सहजता से उपलब्ध कराने के दुसाध्य प्रयास में सफलता के लिए 'वांग्मय' की पुरी टीम बधाई की पात्र है. आशा करता हूँ की इसके संपादक फिरोज अहमद जो स्वयं भी राही साहब के क्रितित्व पर आधारित ब्लॉग (rahimasoomraza.blogspot.com) का संचालन करते हैं, को उनके इस अभिनव प्रयास में अन्य साथी ब्लौगर्स का भी सक्रिय सहयोग व समर्थन मिलेगा.




Friday, December 19, 2008

प्रगति और प्रकृति: संपूरक या विलोम

ब्रेक के बाद
ब्रेक के दौरान पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ. वहाँ अपनी व्यस्तता से कुछ पल निकाल जंतर-मंतर गया। जंतर-मंतर की विशेषताओं का जिक्र अगली किसी पोस्ट में, मगर यहाँ जिस विषय को उठा रहा हूँ वह 'landscape' (भू-दृश्य) के संरक्षण को लेकर है। क्या हम ताजमहल को बड़ी-बड़ी इमारतों से घिरा हुआ देखने की वीभत्स कल्पना कर सकते हैं! यदि नहीं तो अपनी विरासत के प्रति हमारी उपेक्षा का क्या कारण है ? क्या प्रगति का अर्थ प्रकृति पर चढाई करना और उसपर विजय पाना ही है ?
कभी किसी गाँव जाना हुआ, वहां सड़क के किनारे एक पेड़ थोड़ा झुक सड़क की दूसरी ओर तक आ गया था। गाँव वाले अब थोड़ा घूम कर सड़क पार करने लगे थे। उनकी परेशानी को देख मैंने पूछा -" इस पेड़ को काट क्यों नही देते!" एक ग्रामीण ने जवाब दिया- " क्यों भला! देखिये तो कितना सुंदर लग रहा है।" क्या यह सौन्दर्यदृष्टि हम तथाकथित सभ्य शहरियों के पास है ?
मैं तो अपनी व्यस्तता के बाद वापस आ गया, मगर यदि अंधाधुंध भागते इस प्रगतिशील समाज ने थोडी देर ब्रेक ले अगर इन सवालों पर न सोचा तो प्रकृति उसे ब्रेक से वापस आने की फुर्सत नहीं देगी।

Tuesday, December 2, 2008

Just a Break

थोडी व्यस्तता की वजह से ब्लोगिंग से दूर हूँ। जल्द नए और रोचक पोस्ट्स के साथ नियमित होऊंगा.
सखेद-
अभिषेक मिश्र.
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