वर्तमान युवा पीढ़ी को उनके बाल्यपन में अर्थशक्ति से वाकिफ करवाती मुद्रा की छोटी इकाइयों में से क्रिकेट की भाषा में ‘सेकंड लास्ट’ चवन्नी भारतीय रिजर्व बैंक के आदेशानुसार 30 जून 2011 से प्रचलन से बाहर हो गई. इससे पहले यह पीढ़ी 5, 10 और 20 पैसे को बाजारवाद की दौड में पिछडते देख चुकी है. (1 और 2 पैसे तो और भी पहले चलन से बाहर हो गए थे.)
1835 में पहली बार मशीन से निर्मित चवन्नी प्रचलन में आई जो ईस्ट इंडिया कंपनी के विलियम चतुर्थ के नाम जारी की गई थी. 1940 तक प्रचलित चवन्नियां चांदी की बना करती थीं, फिर मिश्रण का दौर शुरू हुआ और 1942 - 1945 तक आधी चांदी की चवन्नी प्रयोग में लाई गईं. निकल की चवन्नियां 1946 से प्रचलन में आना प्रारंभ हुईं. अपने जीवनकाल के लगभग 175 वसंत देख चुकी रुपये की इस चतुर्थांश को बंद करने के पीछे धातु की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि और इसके दैनिक प्रयोग में आई गिरावट को प्रमुख कारण माना जा रहा है.
निःसंदेह महंगाई, मुद्रास्फीति जैसे आर्थिक पक्षों के प्रभाव में चवन्नी आर्थिक जगत में अनुपयोगी हो गई थी, मगर भावनात्मक रूप से इसका प्रभाव इसी से आँका जा सकता है कि जाने कब से मंदिरों और पूजा में सवा रु. के दक्षिणा की परंपरा आरंभ हो गई; जो कि चवन्नी के बिना अधूरी ही है.
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस की ‘चवनिया सदस्यता’ तो प्रसिद्द थी ही, गांधीजी से जुडा एक रोचक नारा भी तत्कालीन व्यवस्था में चवन्नी की महत्ता दर्शाता है, जिसमें कहा गया है कि –
“ खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गाँधी की ”
भारत में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ही जारी धातु के सिक्कों की यात्रा विभिन्न पड़ावों को पूरा करती अभी और भी लंबा सफर तय करेगी मगर अपनी आँखों के सामने इतिहास बनती इन विरासतों से जुडी स्मृतियाँ तो बनी ही रहेंगीं. मुझे याद है बचपन में मेरी नानी अपनी खास संग्रह से चवन्नियां निकाल कर मुझे स्कूल के लंच में कुछ और खा लेने को देती और मैं इनके बदले एक लोकल हीरो से अमिताभ बच्चन की तस्वीरों वाले कार्ड्स खरीद लिया करता था. अब इस कहानी के खत्म होने की भी अपनी ही कहानी है, जो चवन्नी के साथ ही खुद भी यहाँ प्रासंगिक नहीं है.
मगर पैसे आज विश्व को संचालित करने वाली ऊर्जा के ही रूप हैं जो किसी भी प्रारूप में अपनी भूमिका निभाते ही रहेंगे, अपनी धूम मचाते ही रहेंगे. विषद चर्चा देवसाहब के माध्यम से ही सुन लीजिए -
11 comments:
छोटा सिक्का ही क्यों, छोटे लोग भी कहां चल पाते हैं अभिषेक भाई।
------
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
चवन्नी तो गई,
अठन्नी की बारी है।
छोटों की
यही तो लाचारी है!
प्रचलन में तो काफी पहले से ही नहीं है यह.
Sabse pehle to main yeh kahoon ki yeh gaana bada accha chuna hai aapne, padhne ka majaa aa gayaa :)
Kayin nayi cheezen jaani sikke ke baare main. Soch kar lagaa aage aane waali peedhi ke liye ek aur history ban gayi.
ये तो नियम है जो आया है उसे जाना ही है.आज नहीं तो कल .........
चवन्नी को आपकी श्रद्धांजलि अलग सी लगी और उस पर देवानंद तो छ ही गए ..
चवन्नी की जीवन यात्रा के सभी पड़ावों को समाहित करते हुये बचपन की स्मृतियों को ताजा किया है इस लेख ने.अति सुंदर.
-
मिश्रा भैया.. आपका फिर अनोखा अन्दाज दिल को छू गया..
आपके दिमाग की परख को कोटि-कोटि नमस्कार....
ज्ञानवर्धक आलेख
bilkul sahi
chavanni athanni to hamne kabhi use hi nahin ki.
1-2 rs kare hai but aajkal wo bhi kam hi dikhte hai.
Lovely song !!!
बहुत ही प्रामाणिक जानकारी से भरा भाव -अनुभव संजोये आलेख के लिए अभिषेक जी मिश्र बधाई .
Post a Comment