मिथिलांचल की मिट्टी अपनी कला और संस्कृति की सोंधी खुशबू के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के कई पारंपरिक पर्वों में एक नाम सामा-चकेवा भी है। भाई-बहन के प्रेम के प्रकटीकरण से जुड़े पर्वों की शृंखला में एक यह भी है। कार्तिक माह की सप्तमी तिथि से पूर्णिमा तक आयोजित होने वाला 9 दिवसीय यह पर्व प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक भी है। व्रत के अंतिम दिन बहनें अपने भाई को चावल, दही और गुड खिलाती हैं और बदले में भाई उन्हे उपहार देते हैं। कहते हैं हिमालय से आने वाले प्रवासी पक्षियों के आगमन के उत्सव के रूप में भी इस पर्व की मान्यता है। इसीलिए महिलाएँ इस पर्व पर मिट्टी से पक्षियों की आकृति बनाती हैं और उन्हे सजाती हैं। पर्व के अंतिम दिन इन प्रतिमाओं को जलाशयों में प्रवाहित कर दिया जाता है, इस कामना के साथ के ये पक्षी अगले जाड़ों में प्रसन्नता और सौभाग्य लिए फिर लौटें। समाज को प्रकृति से जोड़ने का अनोखा अंदाज है ये ! एक और मायने में यह इस क्षेत्र की पारंपरिक कला के संरक्षण का माध्यम भी है। पौराणिक मान्यता के अनुसार एक कथा कृष्ण के पुत्र साम्ब और पुत्री सामा से भी जुड़ी है। किसी की चुगली की वजह से कृष्ण अपनी पुत्री और उसके पति से नाराज हो गए और उन्हे चकवी और चकवा पक्षी बनने का शाप दे दिया, जिनकी नियति दिन में तो साथ रहना है मगर रात में अलग हो जाना है। बाद में साम्ब के प्रयास से उनकी नाराज़गी दूर होती है। इसीलिए इस पर्व में महिलाओं द्वारा ‘चुगला’ का प्रतीकात्मक दहन भी किया जाता है। इस प्रकार यह पर्व एक आम सामाजिक बुराई जो कई गलतफहमियों - खासकर नजदीकी संबंधों में - के विरुद्ध एक संदेश भी देती है। बाजार के प्रभाव में अब खुद मूर्तियाँ बनाने की जगह रेडीमेड मूर्तिया खरीदने का चलन भी बढ़ता जा रहा है। यह ये भी स्पष्ट दिखाता है कि प्रतीकात्मक मान्यताएँ किस प्रकार व्यक्तिवादी स्वरूप लेने लगती हैं। पक्षियों की मूर्ति की जगह अभी सामा की मूर्ति और कल किसी देवी-देवता का चेहरा सामने रख कर्मकांड का आरंभ !!! जागरूकता और चेतना से ही ऐसे पर्वों के पारंपरिक स्वरूप बचाए जा सकते हैं, और इसके लिए सार्थक कोशिश की जानी भी चाहिए। प्रकृति, संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों को समर्पित इस सुंदर पर्व की शुभकामनाएँ...
Monday, November 11, 2013
Tuesday, November 5, 2013
लाल क़िले से लाल ग्रह तक:
पिछले
वर्ष जब लाल क़िले से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मिशन मार्स की घोषणा की थी तो यह
उम्मीद काफी कम लोगों को ही महसूस हुई होगी
कि इतने कम समय में ही हमारे यान द्वारा इस यात्रा के लिए काउंटडाउन शुरू हो जाएगा।
लालफ़ीताशाही और कार्यों की धीमी रफ्तार की जैसी छवि हमारी बन गई है,
उसमें ऐसा स्वाभाविक भी था। कई लोग इसे चुनावी शोशा कह सकते हैं,
कई लोगों की नजर में यह संसाधनों का अपव्यय है। ऐसी आलोचनाओं के स्वर अन्य विकसित देशों में भी उठते रहे हैं। मगर सौभाग्य से सारे विश्व के ही अंतरिक्षविज्ञानी
इस ऊहापोह और विचार मंथन से परे रहे हैं। इसरो देश के उन चंद संस्थानों में से है जो
तमाम आलोचना और सराहनाओं से परे अपने लक्ष्य पर एक कर्मयोगी की तरह केंद्रित है। इसके
कई अभियान अतिशय सफल हुये हैं तो कुछ सीधे शब्दों में पानी में समा गए हैं। मगर इसके
प्रयासों पर से हमारा भरोसा डिगा नहीं कभी। और शायद इसी ने इसे आगे और बेहतर करने की
प्रेरणा भी दी।
औद्द्योगिक
क्रांति में हम पहले ही पिछड़ चुके थे। सूचना क्रांति में तमाम ‘अनुभवी’
और ‘दूरदर्शी’ लोगों की मान्यताओं को नकार हमारे तत्कालीन ‘अपरिपक्व’
नेतृत्व ने समय रहते सार्थक पहल की जिसके नतीजे आईटी के क्षेत्र में थोड़ी साख
के रूप में हमारे सामने है। भविष्य के अंतरिक्ष युग में भी समय रहते हमारी भागीदारी
जरूरी है। चंद्रमा से जुड़े अभियानों में भी हम पीछे रहे,
इस कारण ‘मिशन चंद्रयान’ से हमारी जिम्मेवारी बड़ी थी।
क्योंकि अबतक हुई खोजों और मिली जानकारी से आगे कुछ ढूँढ पाने की चुनौती थी। पानी की
संभावना से जुड़ी खोज ने हमारे अभियान को नए मायने दिये। ऐसे अभियानों की यही जिम्मेवारी
होती है। मिशन मार्स से भी यही जिम्मेवारी जुड़ी है। 60 के दशक से ही मंगल को लेकर अभियान
चलते रहे हैं। कुछ असफलताओं के बाद अमेरिका, रूस और कुछ यूरोपीय अभियानों को खासी सफलता मिली है।
हमारे सामने चुनौती इस मायने में भी बड़ी है कि एशिया से जापान और चीन के मंगल अभियानों
को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है। यह मात्र एशिया से कोई अंतरिक्ष होड़ नहीं है। अंतरिक्ष
की विपुल संभावनाओं के मद्देनजर यह भागीदारी समय की आवश्यकता है। हमारे अंटार्कटिका
अभियानों की तरह ही। यदि यहाँ मीथेन की उपस्थिति से जुड़े कुछ पुख्ता प्रमाण मिले तो यह वहाँ जीवन की संभावना को लेकर बड़ी उपलब्धि होगी। धरती की बढ़ती माँग के मद्देनजर अंतरिक्ष में खनन, कृषि और आगे के अभियानों के लिए स्टेशन बनाए जाने की संभावनाओं के मद्देनजर भी ये अभियान आवश्यक हैं।
यहाँ
मेरी यह बात शायद किसी को ठेस पहुँचा सकती है, मगर मैंने पाया है कि कई उत्तर
भारतीय वैज्ञानिकों को यह मलाल है कि अरबों रुपये पानी में डुबो देने पर भी इसरो पर
सरकार इतनी मेहरबान क्यों है ! मेरे ख्याल से इसके लिए उन्हे अपनी मानसिकता,
सोच और कार्यशैली पर भी विचार करने की जरूरत है।
बहरहाल,
इस मंगल अभियान के लिए अपने वैज्ञानिकों और इस अभियान से जुड़े हर व्यक्ति को इसकी सफलता
के लिए मंगलकामना.....
Monday, November 4, 2013
पुनरप्रतिष्ठा की बाट जोहती विरासत- नारानाग मंदिर समूह, कश्मीर
कश्मीर
की एक समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा रही है। भौगोलिक-ऐतिहासिक कारणों से यहाँ सभ्यता की विभिन्नता
स्पष्ट दिखती है। यहाँ पाये जाने वाले
प्राचीनतम आर्य परंपरा के कई अवशेष आज भी इसके भव्य अतीत की झलक उपस्थित करवाते
हैं। इन्ही में से एक है कश्मीर घाटी स्थित नारानाग के प्राचीन मंदिर समूह के
अवशेष। श्रीनगर-सोनमर्ग मार्ग से गुजरते
पर्यटकों को शायद ही यह एहसास होगा कि अंजाने में वो मार्ग में पड़ने वाली एक
प्राचीन विरासत से अनभिज्ञ गुजरते जा रहे हैं। इसी मार्ग पर श्रीनगर से लगभग 50
किमी दूरी पर स्थित गांदरबल जिले में कंगन के क्षेत्र के अंतर्गत आता है गाँव -
नारानाग। वाँगथ नदी के किनारे बसा यह गाँव अपनी प्राकृतिक सुंदरता से तो समृद्ध है
ही, इसकी अपनी ही एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत भी है। यह गाँव
प्रसिद्ध धार्मिक यात्रा जो हरमुख (या हरिमुख !) पर्वत तक संपन्न होती है का भी
प्रारंभ स्थल है। यह पीर पंजाल श्रेणी के कई ट्रेकिंग स्थलों के भी कई प्रमुख
बिंदुओं जैसे गदसर झील, विशंसर झील, कृष्णसर झील आदि का प्रारंभिक पड़ाव भी है । ट्रेकरों
के लिए यहाँ ग्रामीण कई जरूरी सुविधाएँ भी उपलब्ध करवाते हैं।
खंडहर बताते हैं कि ईमारत बुलंद थी कि उक्ति को चरितार्थ करता यह मंदिर समूह इसी गाँव में स्थित है। आर्कियोलौजी विभाग के अनुसार इस गाँव का
प्राचीन नाम सोदरतीर्थ था, जो तत्कालीन तीर्थयात्रा स्थलों में एक प्रमुख नाम
था। यहाँ स्थित मंदिर समूह दो भागों में
बंटा है। दोनों भाग भगवान शिव की प्रतिमा को समर्पित माने गए हैं। किन्तु एक में
भगवान शिव और दूसरे में भगवान भैरव की प्रतिमा की बात भी कही जाती है। प्रथम भाग
में तो किसी कारणवश हाल ही में द्वार लगा बंद किया गया है,
मगर दूसरे भाग में मुख्य मंदिर जो प्रतिमाविहीन है के बाईं ओर पाषाण पर तराशकर ही बनाया
हुआ एक शिवलिंग अभी भी विद्यमान है।
शेष मंदिर समूह ध्वस्त हैं,
किन्तु आस-पास बिखरे अवशेष ही इसके भव्य और गौरवमय अतीत की कहानी बता देते हैं।
मंदिर के सामने पाषाण निर्मित ही जलसंचय पात्र है जो संभवतः धार्मिक प्रयोजन में
प्रयुक्त होता रहा हो। मंदिर पर चढ़ाए जल की निकासी के लिए नालियों की बनावट भी स्पष्ट
दिखती है। मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक प्राचीन कुंड भी निर्मित है। पाषाणों
से बनाई इसकी चारदीवारी पर कभी कई कलाकृतियों से भी सुसज्जित रही होगी,
जिसकी थोड़ी झलक आज भी मिलती है। पहाड़ों के अंदर स्थित जल को इस कुंड तक लाने और
अवशिष्ट जल को समीपवर्ती नदी तक ले जाने के लिए नालियों जैसी व्यवस्था उस प्राचीन
इंजीनियरिंग की बस एक छोटी सी झलक मात्र है। विशाल ग्रेनाइट पत्थरों को बिना
सिमेंटिंग अवयव के जोड़ ऐसी संरचनाएँ स्थापित करना पर्यटकों को आज भी अचंभित करता
है। समझा जाता है कि इस मंदिर समूह का निर्माण 7-8 वीं शताब्दी में राजा ललितदित्य
के राजकाल में किया गया। कलांतर में विदेशी आक्रमण और शासकों में से कई की घृणा और उपेक्षा
का शिकार इस समृद्ध विरासत को भी बनना पड़ा। फिलहाल उपेक्षित सी इस विरासत को अतिक्रमण से बचाने के लिए
सरकार द्वारा इसकी घेरेबंदी के कुछ तात्कालिक प्रयास किए गए हैं और लगभग 2 दशकों
से पटरी से उतरे पर्यटन को इन स्थलों के माध्यम से दुरुस्त किए जाने की योजना की
भी चर्चा है।
हाल
में भी कई जगह सांस्कृतिक विरासतों को घृणा का शिकार बनते देखा गया है। यह समझा
जाना चाहिए कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत किसी एक मज़हब के नहीं होते। वो हमारा
वैश्विक साझा इतिहास हैं और हमारे भविष्य के एक आधार भी। उनका संरक्षण और सम्मान हमारे लिए
अपरिहार्य होना चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि इन स्थलों को विरासत सूची में शामिल
करवा इन्हे इनका वाजिब सम्मान सुनिश्चित करवाने की ओर गंभीर प्रयास करे।
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