Monday, November 4, 2013

पुनरप्रतिष्ठा की बाट जोहती विरासत- नारानाग मंदिर समूह, कश्मीर

नारानाग मंदिर के भग्नावशेष
 
कश्मीर की एक समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा रही है। भौगोलिक-ऐतिहासिक कारणों से यहाँ सभ्यता की विभिन्नता  स्पष्ट दिखती है। यहाँ पाये जाने वाले प्राचीनतम आर्य परंपरा के कई अवशेष आज भी इसके भव्य अतीत की झलक उपस्थित करवाते हैं। इन्ही में से एक है कश्मीर घाटी स्थित नारानाग के प्राचीन मंदिर समूह के अवशेष। श्रीनगर-सोनमर्ग  मार्ग से गुजरते पर्यटकों को शायद ही यह एहसास होगा कि अंजाने में वो मार्ग में पड़ने वाली एक प्राचीन विरासत से अनभिज्ञ गुजरते जा रहे हैं। इसी मार्ग पर श्रीनगर से लगभग 50 किमी दूरी पर स्थित गांदरबल जिले में कंगन के क्षेत्र के अंतर्गत आता है गाँव - नारानाग। वाँगथ नदी के किनारे बसा यह गाँव अपनी प्राकृतिक सुंदरता से तो समृद्ध है ही, इसकी अपनी ही एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत भी है। यह गाँव प्रसिद्ध धार्मिक यात्रा जो हरमुख (या हरिमुख !) पर्वत तक संपन्न होती है का भी प्रारंभ स्थल है। यह पीर पंजाल श्रेणी के कई ट्रेकिंग स्थलों के भी कई प्रमुख बिंदुओं जैसे गदसर झील, विशंसर झील, कृष्णसर झील आदि का प्रारंभिक पड़ाव भी है । ट्रेकरों के लिए यहाँ ग्रामीण कई जरूरी सुविधाएँ भी उपलब्ध करवाते हैं।
खंडहर बताते हैं कि ईमारत बुलंद थी कि उक्ति को चरितार्थ करता यह मंदिर समूह इसी गाँव में स्थित है। आर्कियोलौजी विभाग के अनुसार इस गाँव का प्राचीन नाम सोदरतीर्थ था, जो तत्कालीन तीर्थयात्रा स्थलों में एक प्रमुख नाम था।  यहाँ स्थित मंदिर समूह दो भागों में बंटा है। दोनों भाग भगवान शिव की प्रतिमा को समर्पित माने गए हैं। किन्तु एक में भगवान शिव और दूसरे में भगवान भैरव की प्रतिमा की बात भी कही जाती है। प्रथम भाग में तो किसी कारणवश हाल ही में द्वार लगा बंद किया गया है, मगर दूसरे भाग में मुख्य मंदिर जो प्रतिमाविहीन है के बाईं ओर पाषाण पर तराशकर ही बनाया हुआ एक शिवलिंग अभी भी विद्यमान है।
 
शिवलिंग के निकट मेरा पुत्र शिवांश
शेष मंदिर समूह ध्वस्त हैं, किन्तु आस-पास बिखरे अवशेष ही इसके भव्य और गौरवमय अतीत की कहानी बता देते हैं। मंदिर के सामने पाषाण निर्मित ही जलसंचय पात्र है जो संभवतः धार्मिक प्रयोजन में प्रयुक्त होता रहा हो। मंदिर पर चढ़ाए जल की निकासी के लिए नालियों की बनावट भी स्पष्ट दिखती है। मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक प्राचीन कुंड भी निर्मित है। पाषाणों से बनाई इसकी चारदीवारी पर कभी कई कलाकृतियों से भी सुसज्जित रही होगी, जिसकी थोड़ी झलक आज भी मिलती है। पहाड़ों के अंदर स्थित जल को इस कुंड तक लाने और अवशिष्ट जल को समीपवर्ती नदी तक ले जाने के लिए नालियों जैसी व्यवस्था उस प्राचीन इंजीनियरिंग की बस एक छोटी सी झलक मात्र है। विशाल ग्रेनाइट पत्थरों को बिना सिमेंटिंग अवयव के जोड़ ऐसी संरचनाएँ स्थापित करना पर्यटकों को आज भी अचंभित करता है। समझा जाता है कि इस मंदिर समूह का निर्माण 7-8 वीं शताब्दी में राजा ललितदित्य के राजकाल में किया गया। कलांतर में विदेशी आक्रमण और शासकों में से कई की घृणा और उपेक्षा का शिकार इस समृद्ध विरासत को भी बनना पड़ा। फिलहाल उपेक्षित  सी इस विरासत को अतिक्रमण से बचाने के लिए सरकार द्वारा इसकी घेरेबंदी के कुछ तात्कालिक प्रयास किए गए हैं और लगभग 2 दशकों से पटरी से उतरे पर्यटन को इन स्थलों के माध्यम से दुरुस्त किए जाने की योजना की भी चर्चा है।

प्राचीन कुंड जिसमें पानी के आगमन और निकास की तकनीक अप्रतीम है
हाल में भी कई जगह सांस्कृतिक विरासतों को घृणा का शिकार बनते देखा गया है। यह समझा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत किसी एक मज़हब के नहीं होते। वो हमारा वैश्विक साझा इतिहास हैं और हमारे भविष्य के एक आधार भी। उनका संरक्षण और सम्मान हमारे लिए अपरिहार्य होना चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि इन स्थलों को विरासत सूची में शामिल करवा इन्हे इनका वाजिब सम्मान सुनिश्चित करवाने की ओर गंभीर प्रयास करे।
 
 

2 comments:

Smart Indian said...

विरासत की इस धरोहर की सुंदर जानकारी के लिए आभार!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (05-11-2013) भइया तुम्हारी हो लम्बी उमर : चर्चामंच 1420 पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
दीपावली के पंचपर्वों की शृंखला में
भइया दूज की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...