(द्विशतकीय पोस्ट)
पिछले
दिनों एक वैवाहिक समारोह में शामिल होने बिहार के खगड़िया गया तो अपनी आदत और स्वभाव
के मुताबिक यहाँ की एक ऐतिहासिक विरासत के बारे में थोड़ी जानकारी जुटा उसे देखने भी
गया। रात भर जागे होने के बाद इस गर्मी में वहाँ जाना तो एक अभियान सा था ही लौटते
समय तेज बारिश और ओलों ने इस सफर को और यादगार भी बना दिया।
खगड़िया
से लगभग 40 किमी दूर स्थित सौढ
दक्षिणी पंचायत के भरतखंड गांव स्थित मुगलकाल में राजा बैरम सिंह द्वारा
बनवाया गया भव्य महल आज भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। अपनी भव्यता के
कारण यह क्षेत्र में बावन कोठरी तिरपन द्वार के नाम से भी प्रसिद्ध है। बोलचाल में
लोग इसे भरतखंड का पक्का भी कहते हैं। कभी जिस
महल की तुलना जयपुर के हवा महल से की जाती थी, आज उससे जुड़ा प्रामाणिक इतिहास अनुपलब्ध है, परंतु जनश्रुतियों और स्थानीय अखबारों से
इससे जुड़ी कुछ जानकारियाँ सामने आई हैं। जाहिर है इसमें कुछ विरोधाभास भी हैं, परंतु स्थानीय प्रशासन की ठोस पहल के बिना यह समस्या तो रहेगी ही। जानकारी
जुटाने के क्रम में यह भी पाया कि हिन्दी अखबारों में तो इसकी कुछ चर्चा है भी, अंग्रेजी अख़बार तो इस पर सुप्त ही दिखे। खैर...
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पीले रंग में दिखाया गया महल का भग्नावशेष
इस
महल का निर्माण 1604 ईस्वी में माना जाता है। कहते हैं कि राजा बसावन सिंह ने इसका
निर्माण आरंभ किया जिसे इनके पुत्र राजा बैरम सिंह ने पूर्ण करवाया। वहीं कोसी
कॉलेज के इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष प्रो. (डॉ.) संजीव नंदन शर्मा के अनुसार 1750-60 के काल में बंगाल के नवाब से अनुमति लेकर राजा बैरम सिंह ने इस भव्य महल का
निर्माण कराया था। उनके अनुसार सोलंकी राजवंश के बाबू बैरम सिंह के बाद बाबू गणेश
सिंह (वीरबन्ना) और बाबू दिग्विजय सिंह ने इस विरासत को संजोये रखा था। माना जाता है कि बैरम सिंह के पूर्वज मध्य प्रदेश के तड़ौवागढ निवासी थे। एक मत इन सोलंकी राजपूतों को चित्रकूट से आए हुये भी मानता है।
इस महल की विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह महल 5 बीघा, 5 पाँच कट्ठा, 5 धुर और 5 धुरकी
के क्षेत्रफल में बनाया गया था। लोग इसमें महल के अंदर रानी के स्नान करने का
तालाब, महल से मंदिर जाने के लिये सुरंग, शानदार नक्काशी को देखने आते हैं। यहां की दिवारों पर उकेरी गयी मनमोहक
चित्रकारी आज भी दर्शकों का ध्यान खींचती है। जानकारों के मुताबिक भरतखंड
के ऐतिहासिक भवन के प्रागण में बने चमत्कारी मंडप के चारो खंभों पर चोट करने पर
अलग-अलग तरह की मनमोहक आवाज सुनाई देती थी। इसके निर्माण में चूना, सुरखी, कत्था तथा राख आदि पारंपरिक तरीके से प्रयोग हुआ था। कहते हैं कि उस वक्त
भूल वश महल में कोई व्यक्ति प्रवेश कर जाता था तो बाहर निकलना आसान नहीं होता था। इसीलिए इसे भूलभुलैया भी कहते थे। इस
महल को तब के मशहूर कारीगर बकराती खाँ या बरकत खान उर्फ बकास्त मियां ने बनाया था। कुछ स्थानीय जन इस कारीगर को ताजमहल
के निर्माण से भी जोड़ते हैं। इस धारणा के पीछे इस कारीगर की वो योग्यता भी है जिससे
इसने भागलपुर जिला के नारायणपुर-बिहपुर स्थित नगरपाड़ा का कुआं एवं मुंगेर का किला का
भी निर्माण किया था। इसके निर्माण में माचिस के आकार से दो फीट तक के 52 प्रकार के आकार के ईंटों का उपयोग किया गया। दरबाजे के आकार के लिए
अलग ईंट, खिड़की के आकार के लिए अलग ईंट, दीवार की गोलाई के अनुरूप अलग ईंट का प्रयोग किया गया था। आज तो ग्रामीण
अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए ये ईंटें भी उठा ले जा रहे हैं। आने वाले समय में शायद
यह बची-खुची निशानी भी न मिले!
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विरासत से खिलवाड़
1857 की क्रांति में अंग्रेजों के विरोध का नुकसान
इस वंश के साथ इस ईमारत को भी उठाना पड़ा। परिवार के कई सदस्य मारे गए। बैरम सिंह के
वंशज देवीदत्त बाबू अपने 6 वर्षीय पोते भुवनेश्वरी प्रसाद सिंह को लेकर भागलपुर-खगड़िया सीमा पर स्थित नारायणपुर
चले आए। जहाँ बाद में उन्होने वीरबन्ना ड्योढ़ी या ईस्टेट स्थापित किया। कुछ बुजुर्ग
अज्ञात आत्मा के भय या संतान को लेकर समस्या को भी इस महल को छोड़ने के कारण के रूप
में जोड़ते हैं। परंतु यह उतना प्रभावी नहीं लगता।
एक जमाने में यह राजक्षेत्र दरभंगा महाराज के बाद का प्रमुख राज्य माना जाता
था।
प्रो. शर्मा के अनुसार 18वीं सदी में भरतखंड का नाम बटखंड था। भ्रमण करते बौद्ध भिक्षु यहां आकर कई-कई माह तक तप व विश्राम करते थे। बौद्ध
धर्म के इस रूप के जुड़ाव से इस किले की विशेषता में एक और पन्ना जुड़ जाता हैं।
खगड़िया जिला जो कि गंगा के किनारे स्थित है, इस कारण यहाँ ज्यादा ऐतिहासिक विरासतें संरक्षित नहीं रह पाईं।
ऐसे में इस विरासत का महत्व और बढ़ जाता है। इस स्थल के संरक्षण के लिए अलग-अलग समय
पर सरकार के ध्यानाकर्षण हेतु कुछ स्वर उठे, जिनमें स्थानीय सांसद
महबूब अली कैसर द्वारा भरतखंड के पक्के का जीर्णोद्धार करने के लिये बिहार के पर्यटन
विभाग को लिखा गया पत्र भी शामिल है। जबकि श्री कृष्ण
मुरारी ऋषि, युवा कला एवं संस्कृति मंत्री; बिहार सरकार के एक बयान का जिक्र पाया जिसमें उन्होने कहा है कि ऐतिहासिक
महत्व वाले स्थलों को संरक्षित रखने के लिए राज्य सरकार प्रतिबद्ध है। स्थानीय
प्रशासन व ग्रामीणों द्वारा आवेदन प्रस्ताव आयी तो निश्चित रूप से संरक्षित करने
का प्रयास की जायेगी।
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सांसद द्वारा प्रेषित पत्र की प्रति
सरकार जाने कोई कदम कब उठाए या स्थानीय पंचायत या किसी निगम के सीएसआर कार्यक्रम
के अंतर्गत ही इस धरोहर के संरक्षण के लिए कोई सार्थक कदम उठाए, परंतु इस दिशा में ज्यादा देर नुकसानदेह होगा। अवांछित घुसपैठ
और अतिक्रमण इस विरासत को लगातार क्षति पहुँचा रहा है। इसके संरक्षण हेतु गंभीर पहल
की यथाशीघ्र आवश्यकता है...
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2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (07-05-2017) को "मिला नहीं है ठौर ठिकाना" (चर्चा अंक-2963) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
ओक
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