आज भोजपुरी भाषा, भोजपुरी फिल्में, भोजपुरी गीत अपने संक्रमण काल से
गुजर रहे हैं। जिन चेहरों और आवाजों को इसका नायक समझ लिया गया है व्यवसाय की अंधी
दौड़ में उन्होंने इस मीठी भाषा से जुड़ी भावनाओं का दोहन ही किया है। ये लोग अपने उन
महान पुरखों को याद भले न करें या शायद जानते भी न हों, परंतु
इसके इतिहास को उठाकर देखें तो ऐसे नाम भी मिलेंगे जिन्होंने इसकी विशेषताओं को
राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। ऐसे ही अग्रपुरुषों में एक
महत्वपूर्ण नाम है मोती लाल बीए जी का। देवरिया जिले के बरहज तहसील क्षेत्र के
ग्राम बरेजी में पंडित राधाकृष्ण उपाध्याय के यहां एक अगस्त 1919 को
मोतीलाल उपाध्याय का जन्म हुआ। 1934 में बरहज के किंग जार्ज कालेज से हाई स्कूल, गोरखपुर
के नाथ चन्द्रवात इंटर कालेज से इंटर की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने 1939 में
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और इसके पस्ग्चत पत्रकारिता
के क्षेत्र में आ गये। इस दौरान उन्होंने विभिन्न हिन्दी समाचार पत्रों ‘अग्रगामी’, ‘आज’, ‘आर्यावर्त’,
‘संसार’ आदि पत्रों में सहायक सम्पादक के
रूप में कार्य किया।
साहित्य
से जुड़ाव :
पत्रकारिता में तो वे
स्नातक के बाद आए मगर कविता में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। अपनी मनपसंद कविताओं
को वे ज़बानी याद कर लेते थे। फिर उन्होंने खुद कविताएं लिखनी भी शुरू कर दीं। कालेज
के दिनों में अंग्रेजी प्रवक्ता मदन मोहन वर्मा प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा जी
के अनुज थे। उनकी प्रेरणा से महादेवी वर्मा की काव्य रचनाओं को देखकर मोतीजी भी
कविता और साहित्य से और गंभीरता से जुड़े। 16 साल की उम्र में पहली बार उनकी कविता दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई। जिसके बोल थे "बिखरा दो ना अनमोल- अरि सखि घूंघट
के पट खोल"। यूँ तो एमए की डिग्री उन्होंने आजादी के पूर्व ही प्राप्त कर ली
थी, मगर बीए करने तक वे कवि सम्मेलनों में एक अच्छे कवि के
रूप में अपनी छवि बना चुके थे। अब उन्होंने अपने नाम के आगे बीए लगाना शुरू कर
दिया और ‘मोती बीए’ के रूप में
प्रसिद्ध हो गए। शायद तभी उन्होंने अपने परिचय में लिखा था- ‘कहने को एम़ ए़, बी़ टी़, साहित्य
रत्न सदनाम, लेकिन पहली ही डिग्री पर दुनिया में बदनाम’।
‘भोजपुरी के शेक्सपियर’
साहित्य सृजन में अपनी
उल्लेखनीय भूमिका के लिए उन्हें ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’
के रूप में भी याद किया जाता है। उन्होंने शेक्सपियर के ‘सानेट्स’ (sonnets) का हिंदी में सानेट्स की शैली में ही
अनुवाद किया। कालीदास के ‘मेघदूत’ और अब्राहम
लिंकन की जीवनी का भोजपुरी में अनुवाद किया। हिंदी और भोजपुरी की कई पुस्तकों के
अलावा उर्दू में शायरी के तीन संग्रह ‘रश्के गुहर’,
‘दर्दे गुहर’
और ‘तिनका-तिनका शबनम-शबनम’ की रचना की।
स्वाधीनता
संग्राम में योगदान
वह दौर जंगे आज़ादी का था।
लोग जिस रूप में भी संभव हो सकता था इस लड़ाई में अपना योगदान दे रहे थे। मोती जी भी
इस लड़ाई में पीछे न रहे। वो भोजपुरी भाषा में क्रांतिकारी गीत लिख लोगों को सुनाया
करते थे। उसी दौर का उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ-
'भोजपुरियन के हे भइया का समझेला
खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा
दिहे सा
तोहरी चरखा पढ़वले में का
धईल बा
तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा
दिये सा'
धीरे-धीरे मोती जी की सक्रियता
कलम के सहारे क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी। सन् 1939 से 1943 तक
"अग्रगामी संसार" तथा "आर्यावर्त" जैसे प्रमुख समाचार पत्रों
में कार्य के दौरान राष्ट्रीय विचारों एवं उससे जुड़े लेखन के चलते गोरखपुर तथा
बनारस में जेल भी जाना पड़ा। 1943 में वे दो महीने की सज़ा काट कर जेल से रिहा
किये गए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज वाराणसी में दाखिला ले लिया।
सिनेमा
से जुड़ाव
जनवरी 1944 में वाराणसी
में हुए एक कवि सम्मेलन में पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था के निर्देशक रवि दवे ने उनकी
काव्य प्रस्तुति सुनी। उनका गीत "रूप भार से लदी तू चली" उन्हें बहुत
पसंद आया और उन्होंने मोती जी को फिल्मों में गीत लिखने के लिये निमंत्रण दिया।
मोती जी तुरंत तो इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं कर पाए लेकिन 1945 में पुनः गिरफ्तारी
के बाद रिहा होने पर रोजगार की तलाश में वो लाहौर पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था में
जा पहुँचे। उन्होंने संस्था के मालिक दलसुख पंचोली से मुलाक़ात की और 300 रूपए मासिक
वेतन पर गीतकार के रूप में नियुक्त हो गए।
उनकी पहली फ़िल्म थी "कैसे
कहूं"। इसमें मोती जी ने पांच गीत लिखे। इसके बाद किशोर साहू निर्देशित और
दिलीप कुमार अभिनीत फ़िल्म 'नदिया के पार'(1948) में सात गीत मोती बीए ने लिखे। इस फ़िल्म के गीतों ने
उन्हें सारे देश में चर्चित कर दिया। इसका एक गीत 'मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार" काफी प्रसिद्ध हुआ।
इस फिल्म के माध्यम से पहली बार भोजपुरी हिंदी फ़िल्मों में प्रमुखता से शामिल हुई
थी। 'कठवा के नइया बनइहे रे मलहवा' बालीवुड का
पहला भोजपुरी गीत है।
इसके बाद उनकी कलम से कई
यादगार भोजपुरी गीत निकले। उनकी प्रमुख फिल्मों में सुभद्रा’ (1946),
‘भक्त ध्रुव’ (1947), ‘सुरेखा हरण’ (1947),
‘सिंदूर’ (1947), ‘साजन’ (1947),
‘रामबान’ (1948), ‘राम विवाह’ (1949), और ‘ममता’ (1952) आदि रहीं।
मगर एक साहित्यधर्मी
व्यक्ति फिल्मी परिवेश में संतुष्ट महसूस नहीं कर पा रहा था। इस कारण वो वापस लौट
आए और देवरिया के श्रीकृष्ण इंटरमीडियेट कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता के रूप में
पढ़ाने लगे।
कुछ सालों बाद जब चरित्र
अभिनेता नज़ीर हुसैन,
सुजीत कुमार और कुछ अन्य कलाकारों ने भोजपुरी फ़िल्मों के
निर्माण की गति को तेज़ किया तो उन्होंने मोती बीए को फिर याद किया।
इसके बाद उन्होंने कई
भोजपूरी फ़िल्मों जैसे ‘ठकुराइन’ (1984), ‘गजब भइले रामा’ (1984), ‘चंपा चमेली’ (1985) आदि
में गीत लिखे। 1984 में प्रदर्शित गजब भइले रामा में उन्होंने अभिनय भी किया। यह अंतिम फ़िल्म थी,
जिससे मोती जी किसी रूप में जुड़े।
मोती बीए जी जीवन के अंतिम
क्षण तक हिन्दी और भोजपुरी को समृद्ध करने में सक्रिय रहे। उन्होंने प्रचलित विधा हाइकु
को भोजपुरी अंदाज भी दिया। इसे उन्होंने ‘छिंउकी’ नाम दिया। 90 वर्ष
की अवस्था में मोती बीए जी का 18
जनवरी 2009
का स्वर्गवास हो गया।
उनकी कुछ छिंउकी और कविता की
कुछ पंक्तियों के साथ उनकी जन्मशती पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं-
- भीत भहराए
छान्ही
चुए
लइका
सुताईं कहाँ !
- जाँते में झींकि
लिलारे
पसेना
आजु
रोटी मिली
- पानी छितराए
अरार
टूटे
मन
डूबे-डूबे
उनकी एक रचना जिसमें एक
दु:खी हृदय वाले व्यक्ति की वेदना है-
हमरे मन में दुका भइल बाटे
चोर कवनो लुका गइल बाटे
कुछ चोरइबो करी त का पाई
दर्द से दिल भरल पुरल बाटे
आँखि के लोरि गिर रहल ढर
ढर
फूल कवनो कहीं झरल बाटे
सुधा ढरकि गइल त का बिगड़ल
हमके पीए के जब गरल बाटे
दर्द दिल के मिटे के जब
नइखे
चोर झुठहू लगल - बझल बाटे
(स्रोत: अखबारों और विकिपीडिया
की सामग्री)