Tuesday, September 3, 2019

गर्दिश में तारे: नाटक समीक्षा


                                   
     
सैफ हैदर हसन जो इससे पहले अमृता प्रीतम-साहिर पर आधारित 'एक मुलाक़ात' नाटक का निर्माण कर चुके हैं- लिखित और निर्देशित तथा आरिफ़ ज़कारिया-सोनाली कुलकर्णी अभिनीत ‘गर्दिश में तारे' नाटक यूँ तो गुरुदत्त और गीता दत्त की जिंदगी से प्रेरित कहा गया है, परंतु यह कहानी किसी की भी हो सकती है; शायद इसीलिए पात्रों के नाम 'देव' और 'भावना' रख दिये गए हैं। गुरुदत्त और वहीदा के बारे में कई बातें कहीं जाती रही हैं। नाटक से उम्मीद थी कि कुछ इसपर और स्पष्ट होगा। गुरुदत्त और गीता दत्त के आपसी संबंध के बारे में कुछ जाने को मिलेगा या शायद कुछ खास गीता दत्त के बारे में ही। नाटक उस दौर को उभारने में काफी हद तक सफल होता है, बैकग्राउंड संगीत, सेट आदि के माध्यम से, चिट्ठियों के माध्यम से उस दौर के गौसीप की चर्चा कर, राज कपूर के साथ सत्यजित रे की 'पाथेर पांचाली' देख हतप्रभ रह जाने का जिक्र कर या दिलीप कुमार के पैसों की बात हो जाने पर भी गुरुदत्त की फिल्म की शूटिंग को न आने का उल्लेख कर... मगर जिस उत्सुकता को लेकर दर्शक इसे देखने गए हैं उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता।

                   

गुरुदत्त Hyper Sensitive और Extra Introvert व्यक्तित्व हैं यह तो लोग जानते ही हैं, पर उनकी मानसिक व्यथा के कारणों की तह तक नहीं जाता नाटक। मात्र सरसरी निगाह ही दौड़ाता है- एक दृश्य में वहीदा की उपस्थिति की तरह जिसमें उसके अन्य निर्देशकों की फिल्मों में भी काम करने की इच्छा पर बात हो रही है। भावना के कैरियर के प्रति लगाव, बच्चों पर ध्यान देने का देव का आग्रह के साथ उसके व्यवहार में भी प्रेम की तलाश इस तरह दिखाई गई है कि शुरुआती दृश्य में देव की आत्महत्या की जाँच करने आए पुलिस वाले से ही उसे फ़्लर्ट करते दिखाया जाता है और एक जगह देव के मित्र लेखक से प्रेम का भी।

                         


घरेलू परेशानियाँ, फिल्मों की असफलता, तनाव के साथ अत्यधिक संवेदनशीलता ही देव के लिए प्राणघातक हो गई! ज्यादा संवेदनशीलता भी नुकसानदायक होती है। थोड़ा इंतजार करते तो वक्त बदलता ही, पिछली कई फिल्मों की तरह अगली कई फिल्में भी सफल होतीं, नई जिम्मेदारियाँ आतीं... वक्त बदल जाता... पर इन दोनों वक्त के दरम्यान किसी भी रूप में एक झूठा-सच्चा सहारा भी चाहिए होता है जो उन्हें न मिल सका। काश ऐसा हो पाया होता!
वर्ना वहीदा की व्यवहार कुशल टिप्पणी तो है ही कि-

‘गुरु दत्त को कोई नहीं बचा सकता था, ऊपरवाले ने उन्हें सबकुछ दिया था पर संतुष्टि नहीं दी थी। कुछ लोग कभी भी संतुष्ट नहीं रह सकते, जो चीज उन्हें जिंदगी नहीं दे पाती उसकी तलाश उन्हें मौत से होती है। उनमें बचने की चाह नहीं थी। मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक जिन्दगी में सबकुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं है।



गर्दिश के दिन तो आते-जाते ही रहते हैं, पर इनमें ऐसे सितारे खो न जाएँ यही कामना रहती है...

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