Wednesday, September 15, 2021

बिसरा दिये गए महान क्रांतिकारी चम्पक रमन पिल्लई, जो भारत की अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री रहे

 




चम्पक रमन पिल्लई का नाम उन महान क्रांतिकारियों में शामिल है जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर देश की आजादी के लिए प्राण गंवा दिए। उनका जन्म भारत में हुआ था पर उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर भाग जर्मनी में बिताया। उन्होंने विदेश में रहते हुए भारत की आज़ादी की लड़ाई को जारी रखा और यहां अंग्रेजी हुकुमत के उन्मूलन का प्रयास किया। आज वो हमारी स्मृतियों से बिसरा दिये गए क्रांतिकारियों में आते हैं परंतु यह हमारी दुर्बलता है कि हम अपनी इन धरोहरों के प्रति भी अनभिज्ञ हैं। 


चम्पक रमन पिल्लई जी का जन्म 15 सितम्बर 1891 को त्रावनकोर राज्य के तिरुवनंतपुरम जिले में एक सामान्य माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चिन्नास्वामी पिल्लई और माता का नाम नागम्मल था। उनके पिता तमिल थे पर त्रावनकोर राज्य में पुलिस कांस्टेबल की नौकरी के कारण तिरुवनंतपुरम में ही बस गए थे। उनकी प्रारंभिक और हाई स्कूल की शिक्षा थैकौड़ (तिरुवनंतपुरम) के मॉडल स्कूल में हुई थी। चम्पक जब स्कूल में थे तब उनका परिचय एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड से हुआ, जो अक्सर वनस्पतिओं के नमूनों के लिए तिरुवनंतपुरम आते रहते थे। ऐसे ही एक दौरे पर उन्होंने चम्पक और उसके चचेरे भाई पद्मनाभा पिल्लई को साथ आने का निमंत्रण दिया और वे दोनों उनके साथ हो लिए। पद्मनाभा पिल्लई तो कोलम्बो से ही वापस आ गये पर चम्पक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप पहुँच गए। वाल्टर ने उनका दाखिला ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में करा दिया जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उर्तीण की।


स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद चम्पक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एक तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ की स्थापना की। इसका मुख्यालय ज्यूरिख में रखा गया। लगभग इसी समय जर्मनी के बर्लिन शहर में कुछ प्रवासी भारतीयों ने मिलकर ‘इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी’ नामक एक संस्था बनायी थी। इस दल के सदस्य थे वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, ए. रमन पिल्लई, तारक नाथ दास, मौलवी बरकतुल्लाह, चंद्रकांत चक्रवर्ती, एम.प्रभाकर, बिरेन्द्र सरकार और हेरम्बा लाल गुप्ता। अक्टूबर 1914 में चम्पक बर्लिन चले गए और बर्लिन कमेटी में सम्मिलित हो गए और इसका विलय ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ के साथ कर दिया। इस कमेटी का मकसद था यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी हुई सभी क्रांतिकारी गतिविधियों पर निगरानी रखना। लाला हरदयाल को भी इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए राजी कर लिया गया। जल्द ही इसकी शाखाएं अम्स्टरडैम, स्टॉकहोम, वाशिंगटन, यूरोप और अमेरिका के दूसरे शहरों में भी स्थापित हो गयीं।



इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी और ग़दर पार्टी तथाकथित ‘हिन्दू-जर्मन साजिश’ में शामिल थी। जर्मनी ने कमेटी ककी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को हर तरह की मदद प्रदान की। चम्पक ने ए. रमन पिल्लई के साथ मिलकर कमेटी में काम किया। बाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पिल्लई से मिले। ऐसा माना जाता है कि ‘जय हिन्द’ नारा पिल्लई के दिमाग की ही उपज थी।


प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद पिल्लई जर्मनी में ही रहे। बर्लिन की एक फैक्ट्री में उन्होंने एक तकनीशियन की नौकरी कर ली थी। जब नेता जी विएना गए तब पिल्लई ने उनसे मिलकर अपने योजना के बारे में उन्हें बताया।


राजा महेंद्र प्रताप और मोहम्मद बरकतुल्लाह ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत की एक  अस्थायी सरकार की स्थापना 1 दिसम्बर 1915 को की थी। महेंद्र प्रताप इसके राष्ट्रपति थे और बरकतुल्लाह  प्रधानमंत्री। पिल्लई को इस सरकार में विदेश मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था। दुर्भाग्यवश प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के हार के साथ अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को अफगानिस्तान से बाहर निकाल दिया।


सन 1931 में चम्पक रमन पिल्लई ने मणिपुर की लक्ष्मीबाई से विवाह किया। उन दोनों की मुलाकात बर्लिन में हुई थी। दुर्भाग्यवश विवाह के उपरान्त चम्पक बीमार हो गए और इलाज के लिए इटली चले गए। ऐसा माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। बीमारी से वे उबर नहीं पाए और 28 मई 1934 को बर्लिन में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई उनकी अस्थियों को बाद में भारत लेकर आयीं जिन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ कन्याकुमारी में प्रवाहित कर दिया गया।


आज स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे नागरिक ऐसे महान बलिदानियों के ऋणी हैं। 🙏


मुख्य स्रोत: it's hindi


Tuesday, September 14, 2021

अमर क्रांतिकारी 'दुर्गा भाभी' जी के जन्मदिन पर

महान महिला क्रांतिकारी 'दुर्गा भाभी' जी का जन्मदिन है आज। क्रांतिकारियों के मध्य उनके वजूद का अनुमान इसी से लग सकता है कि वो आज भी 'दुर्गा भाभी' के रूप में ही याद की जाती हैं। 

7 अक्टूबर, 1907 को शहजादपुर, इलाहाबाद में जन्मीं दुर्गावती देवी का बचपन बिन मां के साए में गुजरा। उन्होंने केवल तीसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी। जब वे बारह वर्ष की हुईं तब उनका विवाह भगवती चरण वोहरा से कर दिया गया जो खुद भी एक समर्पित क्रांतिकारी थे। यही कारण था कि क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का घर क्रांतिकारियों के लिए आश्रयस्थल बन गया था। उनके घर जो भी स्वतंत्रता सेनानी आते वह उनका आदर-सत्कार करतीं। इस वजह से सभी उन्हें दुर्गा भाभी बुलाते थे।

जो भी क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ कोई योजना बनाता, तो ठिकाना दुर्गा देवी का घर ही होता था। दुर्गा देवी क्रांतिकारियों के लिए चंदा इकट्ठा करतीं और पर्चे बांटती थीं। 

उनकी भूमिका मात्र गृहस्थ रूप में सेवा तक ही सीमित न रही। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा देने वाले गवर्नर हेली से बदला लेने के लिए दुर्गा देवी ने गवर्नर पर 9 अक्तूबर, 1930 को गोली चलाई। इस गोली से हेली बच गया और उसका सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। इस घटना के बाद दुर्गा को गिरफ्तार कर लिया और तीन साल की सजा सुनाई गई। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी, जिसके बाद उन्हें और उनके साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्होंने पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण कानपुर और लाहौर से लिया। वे राजस्थान से पिस्तौल लाकर क्रांतिकारियों को देती थीं। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए खुद को जिस पिस्तौल से गोली मारी थी वह भी दुर्गा भाभी ने लाकर दी थी।

देश के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में यह प्रसंग अमर हो गया है जब भगत सिंह और सुखदेव ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सांडर्स को गोली मार कर आए तो दुर्गा देवी के घर रुके। उन्हें कोलकाता पहुंचाने के क्रम में पुलिस से बचाने के लिए दुर्गा देवी ने भगत सिंह का हुलिया बदलवाया और खुद को उनकी पत्नी बता कर उन्हें कोलकाता ले गईं।

28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर दुर्गा देवी के पति भगवती चरण वोहरा अपने साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण कर रहे थे जिस दौरान उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद भी दुर्गा देवी सक्रिय रहीं। दुर्गा भाभी को 1937 में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष नियुक्त की गईं। इस पद पर आकर उन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

दुर्गा देवी 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं। इसके बाद 1939 में मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनऊ में एक मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में सिटी मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है।

15 अक्तूबर, 1999 को गाजियाबाद में रहते हुए बानबे साल की उम्र में दुर्गा देवी का निधन हो गया।

देश की आज़ादी में उनके योगदान एवं स्मृतियों को नमन...

Friday, September 10, 2021

क़ौम पर जिंदगी लुटाने वाले आज़ाद हिंद फौज के गुमनाम शहीद

 



हमारे देश की मिट्टी कई ऐसे लोगों की लहू की भी कर्जदार है जो अज्ञात रह गए या भुला दिये गए। आज़ाद हिंद फौज के एक-एक सैनिक की कहानी ऐसे ही त्याग और बलिदान से भरी हुई है। इसके कई सेनानियों में एक थे अब्दुल क़ादर जिनकी आज शहादत की तारीख़ है। 


9 सितंबर, 1943 की रात को, मद्रास जेल में एक युवक ने फांसी की सजा का इंतजार करते हुए, अपने पिता को अपना अंतिम पत्र, त्रिवेंद्रम जो उस समय त्रावणकोर था, के पास एक गाँव में लिखा था-


"प्रिय पिता, ईश्वर ने मुझे एक शांत मन देकर आशीर्वाद दिया है। मेरी और आपकी इस वर्तमान अवस्था में, हमें न द्वेष करना चाहिए और न ही परेशान होना चाहिए। यह ईश्वर की इच्छा के आगे झुकते हुए खुशी-खुशी जीवन बलिदान करने का क्षण है...


...हालांकि हर जीव की तरह मृत्यु मनुष्य के भी प्रारब्ध में है, जीवन के लिए एक लक्ष्य और इसे एक अर्थ समर्पित करने के लिए हम इस पाशविक अवस्था से ऊपर उठें।..." 

अब्दुल उन चार कैदियों में से एक थे -जिनमें से तीन अपने जीवन के दूसरे दशक की शुरुआत में थे तो एक उम्र के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में था। इन्हें अगली सुबह, शुक्रवार, 10 सितंबर, 1943 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। वे उन 20 लोगों के एक समूह के सदस्य थे जिन्होंने पिनांग जो उस समय मलाया था, से यात्रा करते हुए औपनिवेशिक भारत में भूमिगत कार्य करने के लिए प्रवेश किया था। 

फौजा सिंह, अब्दुल क़ादर और सत्येंद्र बर्धन


यह कहानी 1942 की शुरुआत में दक्षिण पूर्व एशिया से शुरू होती है जब जापानियों ने ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच औपनिवेशिक शक्तियों से इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। कई भारतीय युवा, जो पहले काम की तलाश में इस क्षेत्र में आए थे, भारतीय स्वतंत्रता लीग, जो भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली दक्षिण पूर्व एशिया की एक राजनीतिक संगठन थी की ओर आकर्षित हुए। (INA जिसका नेतृत्व आरंभ में कैप्टन मोहन सिंह ने किया था, 1943 में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आने से पहले, लीग की सशस्त्र शाखा थी।)

लीग ने युवकों की भर्ती करने और उन्हें समूहों में भारत भेजने का निर्णय लिया था। लीग के इंडियन स्वराज इंस्टीट्यूट (जो अब पिनांग संग्रहालय में स्थित है) में एक महीने के लिए 50 लोगों के पहले समूह को जापान द्वारा आयोजित प्रशिक्षण के साथ पिनांग में प्रशिक्षित किया गया। इसके अंतर्गत इन्हें अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के बाद की परिस्थितियों में उभरे भारतीय आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्हें चुपके से भारत में प्रवेश करना था। 

सितंबर और अक्टूबर 1942 के मध्य, पिनांग में 50 में से 20 तीन झुंडों में भारत आए, दो पनडुब्बियों में 10 और अन्य 10 स्थल मार्ग से। पांच लोगों का एक समूह मालाबार तट पर तनूर के पास एक रबर की नाव पर सवार होकर आया; पांच का दूसरा समूह गुजरात में काठियावाड़ तट पर द्वारका के पास उतरा; और 10 के तीसरे जत्थे ने भारत-बर्मा सीमा पार की।

प्रवेश के तुरंत बाद उन सभी का पता चल गया और वो, गिरफ्तार कर मद्रास जेल में बंद कर दिये गये। 20 में से एक सरकारी गवाह बन गया और 1943 की शुरुआत में जेल के अंदर एक विशेष अदालत ने उन पर मुकदमा चलाया। मुकदमे के अंत में, पांच लोगों को दोषी पाया गया और  "राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ने" के अपराध में मौत की सजा सुनाई गई। जिन पांचों को दोषी ठहराया गया, वे दूसरों की तुलना में अधिक दोषी नहीं थे। लेकिन न्यायाधीश, ईई मैक ने गौर किया कि 20 लोगों का यह समूह भारत के सभी क्षेत्रों और संप्रदायों से आया था, जैसा कि उन्होंने उनका वर्णन किया, आठ 'हिंदू', दो 'मुसलमान' और एक 'सिख'।

हम मात्र अनुमान लगा सकते हैं कि न्यायाधीश ने मृत्युदंड देने वाले पांच लोगों एक निश्चित पैटर्न में क्यों चुना! दो हिंदू (त्रिपुरा से सत्येंद्र चंद्र बर्धन, और केरल से आनंदन), एक मुस्लिम (वक्कम, त्रावणकोर से अब्दुल खादर), एक ईसाई (बोनिफेस परेरा, त्रावणकोर) और एक सिख (फौजा सिंह, मेहसाणा, पंजाब से)।

इनमें अब्दुल क़ादर ही वह 'मुस्लिम' शख़्स थे, जिन्होंने अपने पिता को मार्मिक अंतिम पत्र लिखा था।

इन लोगों  ने गिरफ्तार होने से पहले कुछ घंटों में वह किया जो किया जा सकता था। उन्होंने तनूर के कुछ युवकों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, और जल्द ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया।

अपने साथी और दोस्त बोनिफेस परेरा को अपने अंतिम पत्र में (जिन्हें भी मौत की सजा दी गई थी, लेकिन किसी  तकनीकी कारण से मृत्युदंड से छूट मिल गई थी और 5 साल क़ैद की सजा मिली), क़ादर ने लिखा: “मैं उस सितारे को दोष नहीं दे सकता जिसने अवसर और समय को हमारे हाथों से पहले ही खिसका दिया था। हम अपनी मृत्यु और आपके कष्टों के योग्य कुछ उल्लेखनीय कर सकते थे… लेकिन इससे पहले कि हम पहला कदम उठाने के बारे में सोच पाते, हम हार कर नीचे गिर गए…”

फुटबॉल को काफी पसंद करने वाले वीर खादर आशावादी थे। उन्होंने परेरा को लिखा: "... लेकिन कोई बात नहीं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारतीय राष्ट्रवादी टीम और ब्रिटिश साम्राज्यवादी टीम के बीच होने वाले फाइनल मैच में गोल पहली टीम ही करेगी। आप भारत के एक स्वतंत्र पुत्र बनें और एक स्वतंत्र माँ की बाहों से आलिंगन प्राप्त करें! ”

शायद 9 सितंबर, 1943 की मध्यरात्रि को खादर के अंतिम लिखित शब्द ऐसे थे जो उनके परिवार को सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे। इस प्रकार 26 वर्ष के युवक ने अपने पिता को अपना पत्र समाप्त किया:

“घड़ी आधी रात के बारह बजने वाली है। मेरी मृत्यु के दिन के शुरुआती क्षण बंद हो रहे हैं ... मेरे पास आपको देने के लिए कोई सांत्वना नहीं है। हम स्वर्ग में मिलेंगे। मेरे लिए शोक न करें... मेरी मौत के चश्मदीद गवाहों से, एक दिन आप जानेंगे कि मैंने कितनी शांति और बहादुरी से मौत का सामना किया। तब आपको गर्व और प्रसन्नता होगी।

घड़ी की दस्तक

मृत्यु का इंतजार


आपका प्रिय पुत्र

अब्दुल क़ादर 


अब्दुल क़ादर को उनके परिवार या वक्कम ने नहीं भुलाया है। दशकों से, समाज ने अपने इस बहादुर बेटे की मृत्यु को स्मारकों, उनकी पुण्यतिथि पर कार्यक्रमों और शैक्षणिक पहलों के साथ संजोए रखा है। 

ऐसे ही एक कार्यक्रम में एक दिल छू लेने वाला अवसर सामने आया जब 2018 में तिरुवनंतपुरम में Kerala History Congress में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रपौत्र प्रोफेसर सुगत बोस और अब्दुल क़ादर के भतीजे फ़मी अब्दुल रहीम आमने-सामने थे। 


हमें भी अपने ऐसे पूर्वजों के सर्वोच्च त्याग और बलिदान पर गर्व करना चाहिए। ऐसे अनगिनत सेनानियों की वीरगाथाएं आज भी अपने वास्तविक हक़ की प्रतीक्षा में हैं। ऐसी एक कहानी ढूंढ़ना भी आसान नहीं है। हमें उन्हें जानना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहिए, ताकि हम जानें कि आजादी हमें किस उद्देश्य से किस कीमत पर मिली है और उसे बचाये और उन लक्ष्यों को पाने के लिए हमें किन प्रयासों की जरूरत है। 


ऐसे सभी शहीदों के बलिदान को शत-शत नमन...


(स्रोत: Scroll.in तथा इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियां)

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