प्रख्यात साहित्यकार और रंगकर्मी हबीब तनवीर नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद आज (8/06/09) को भोपाल में उनका निधन हो गया। हबीब अहमद खान उनका मूल नाम था, मगर 'तनवीर' उपनाम से जारी उनका लेखन ही उनकी वास्तविक पहचान बन गया। भारतीय रंगमंच को नई गरिमा देने में उनका अप्रतिम योगदान रहा। 'आगरा बाज़ार' (1954), 'चरणदास चोर' (1975) उनके सर्वाधिक चर्चित नाटकों में से थे। छत्तीसगढ़ की 'पांडवानी' जैसी लोक कलाओं को संजोने में भी उन्होंने अप्रतिम योगदान दिया। रंगमंच को भी उन्होंने अपने रचनात्मक प्रयोगों से नई दिशा दी।
कला के प्रति उनके योगदान से न सिर्फ उन्हें राज्यसभा की सदस्यता (1972-1978) का सम्मान मिला, बल्कि वो 'संगीत नाटक अकादमी', 'पद्म श्री' और 'पद्म भूषण' से भी नवाजे गए. रंगमंच के अलावा 'गाँधी' और 'ब्लैक एंड व्हाइट' जैसी फिल्मों में उन्होंने अपने भावपूर्ण अभिनय के रंग भी बिखेरे.
भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि इस प्रख्यात रंगकर्मी को भावभीनी श्रद्धांजलि।
स्रोत- साभार विकिपेडिया,
तस्वीर- साभार गूगल
13 comments:
हबीब जी सिर्फ एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक सास्कृतिक संस्था थे। हार्दिक श्रद्धांजलि।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
..उन्हें खांचे में बांधना मुश्किल है,मैंने उनके नाटक पर शोध किया है और इसी सिलसिले में उनसे मुलाकतें भी हुई.उनकी मुख्य चिंता अपने बाद के नया थिएटर को चलाने की रही थी(यह बात उन्होंने ने मेरे से हुई एक अनौपचारिक बातचीत में खालसा कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में कही थी)आज सुबह से ही लग रहा है घर का कोई बड़ा-बुजुर्ग चला गया ...
आगरा बाज़ार और चरणदास चोर जैसे नाटक हिंदुस्तानी रंगमंच के लिए मील का पत्थर हैं। हबीब साहब को श्रद्धांजलि..
प्रख्यात साहित्यकार और रंगकर्मी हबीब तनवीर
को खुदा जन्नत बख्शें।
हमारी तरफ़ से भी हबीब साहब को श्रद्धांजलि..
आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
आपने बहुत ही सुंदर लिखा है! हबीब साहब को श्रधांजलि अर्पित करती हूँ!
Habib ji vakai mai ek mahan hasti the...
unhe meri bhi shradhanjali
हबीब जी को हमारी तरफ़ से भी श्रद्धांजलि.....!!
श्रन्धाजली है.........भगवान् उन की आत्मा को शांति प्रदान करे
हबीब साहब नहीं रहे..ये खबर पढ़ी तो अचानक 'प्रहार'(१९९१) का वो बेबस पिता याद आ गया जो अपने बेटे की हत्या के बाद कुछ न कर सकने की मजबूरी में घिरा बेबसी भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर था.
हबीब साहब की अदायगी 'प्रहार' और 'ये वो मंजिल तो नहीं'(१९८७) में बेजोड़ थी,इन फिल्मों को देखने के बाद मुझे हमेशा ये मलाल रहा के हबीब साहब ने और ज्यादा फिल्मों में काम क्यों नहीं किया..शायद नाटकों में ही उन्हें संतुष्टि मिलती थी.
रंगमंच और सुनहरे परदे के इस महारथी को आखरी सलाम.
salute to great man
हबीब जी को हमारी तरफ़ से भी श्रद्धांजलि.....!!
चन्द्र मोहन गुप्त
Mor naam Habib...Gaaon ka naam theatre..........
the man with truth and with life in his heart and words,,,,
it was a blessing to meet him in Chandigarh.....promised to meet again....
I still remember..I was Anchoring....he enetered the stage,,,i was silent..no words i had to urge people for claps..
ALL..every one in the thousands was standing,,,clapping,,,,The honour continued till he reached his seat,......
SALUTE TO HABIB....
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