झाड़खंड में रथयात्रा की ऐतिहासिक और समृद्ध परंपरा रही है। यूँ तो पूरे झाड़खंड में ही किसी-न-किसी रूप में रथयात्रा सोल्लास मनाई जाती है, मगर इसमें रांची और हजारीबाग के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलराम के विग्रहों के प्रति आम जनता में अद्भुत श्रद्धा देखी जाती है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को आयोजित होने वाला यह पर्व रांची में 17 वीं सदी के उत्तरार्ध से मनाया जाता रहा है। इसका शुभारम्भ राजा ठाकुर ऐनी नाथ शाहदेव द्वारा किया गया था। HEC क्षेत्र के एक मनोरम स्थल में पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर यहाँ का एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में मान्यताप्राप्त है।
यहाँ रथयात्रा से जुड़े अनुष्ठानों का आरम्भ ज्येष्ठ पूर्णिमा से ही प्रारंभ हो जाता है, जब तीनों विग्रहों को गर्भगृह से बाहर स्नान मंडप में लाकर महाऔषधि मिश्रित जल से स्नान कराया जाता है। इसके बाद इन्हें पुन: गर्भगृह में स्थापित कर गर्भगृह के पट आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रथमा तक बंद कर दिए जाते हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से अमावस्या तक तीनों विग्रह गर्भगृह में एकांत वास में रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रथमा को विग्रहों का नेत्रदान एवं मंगल आरती होती है। आषाढ़ द्वितीय को तीनों श्रीविग्रह रथ पर सवार हो मौसी बाड़ी के लिए प्रस्थान करते हैं। मौसी बाड़ी में आठ दिनों तक विश्राम के पश्चात नौवें दिन अर्थात एकादशी के दिन मौसी बाड़ी से इन विग्रहों की पुन: वापसी होगी, जिसे 'घुरती रथ यात्रा' कहते हैं।
हजारीबाग में 'सिलवार पहाड़ी' पर 1953 से स्थापित जगन्नाथ मंदिर और रथयात्रा मेले ने यहाँ के धार्मिक आयोजनों में अपना एक अलग ही स्थान बना लिया है।
उड़ीसा में बहुप्रचलित इस परंपरा के झाड़खंड के अलावा देश के अन्य भागों भी से इतनी घनिष्ठता भारतीय परंपरा और सांस्कृतिक एकीकरण का एक अद्भुत उदाहरण है।
भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलराम जी को इस पावन अवसर पर शत-शत नमन।
तस्वीर- साभार विकीपेडिया
11 comments:
पुरी के विग्रह और रथ में काष्ठ का सालाना प्रयोग होता है। झारखण्ड में भी वह परम्परा है?
अरे वाह ,आप ने बहुत अच्छी दी, हमे इन सब का पता ही नही था.
धन्यवाद
बहुत सुन्दर. बस्तर में भी यह परंपरा बहुत ही पुराणी है. वहां इसे गोंचा कहते हैं. रथ यात्रा के समय आदिवासी सज धज कर आते हैं और वहां एक और प्रचालन है. पतले बांस से तमंचा नुमा "तुपकी" बनायीं जाती है. छेद में गोली के रूप में पेंग का बीज (मालकांगनी) प्रयोग में लाया जाता है. पिचकारी की तरज ठेलने पर आवाज़ भी होती है और वह बीज दूर तक जाता है. नजदीक से चलाने पर शरीर पर लगता भी है और दर्द भी होता है. आदिवासी युवक युवतियों पर इस से प्रहार करते हैं. पता नहीं आजकल यह प्रथा है या नहीं.
बहुत सुंदर जानकारी .. बोकारो में भी जगन्नाथपुरी जैसा एक मंदिर बनाया गया है .. यहां भी रथयात्रा निकाली जाती है।
Mai to Puri ki Rath yatra ke baare mai hi janti thi...Jharkhand de baare mai ye apne nai jankari di...
धन्यवाद। बहुत अच्छी जानकारी के लिए।
बढ़िया जानकारी दी.
@ ज्ञानदत्त जी,
हजारीबाग में तो रथ को प्रतिवर्ष पुनः सजा-संवार कर प्रयोग कर लिया जाता है, रांची में भी शायद ऐसा ही होता हो.
हाँ अभिषेक जी, वैसे पुरी और गुजरात वाली रथयात्रा ज्यादा प्रसिद्द है. कल समाचारों में भी ये ही छाये रहे. आपकी पोस्ट से एक और नयी जानकारी मिली.
जानकारी के लिए आभार।
भगवान जगन्नाथ को शत्-शत् नमन।
abhishek ji....
aapne jojankaree dee uske bare main pata nahi tha.....
itane sunder shbdo main itni achhi jankaree k liye aako bahut-bahut dhanyawad........
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