Wednesday, September 2, 2009

ये रातें, ये मौसम....और बस डकैती

हम छात्रों के बीच अक्सर मजाक में यह कहा जाता है कि BHU में एड्मीसन और माईग्रेशन दोनों ही काफी कठिन हैं। ढेरों फॉर्मेलिटीज़ से गुजरते हुए आपके पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम में थोडा बदलाव तो हो ही जाता है। मेरा भी 30 अगस्त का निर्धारित कार्यक्रम 1 सितम्बर तक एक्सटेंड हो गया। इस बीच पूरी शोध बिरादरी और मित्रों से भावुकतापूर्ण मुलाकातों के दौर भी चले। BHU के इन दिनों और माहौल की यादें जो कभी भुला नहीं पाउँगा को दिल में संजोये बस से ही हजारीबाग के लिए चल पड़ा।
रास्ते में दिखलाई देते विश्वनाथ मंदिर (BHU), माँ गंगा के नयनाभिराम दृश्यों को आँखों में भरता सफ़र बढ़ता जा रहा था; तभी इस रोमांटिक, इमोशनल कहानी का एक्शनमय क्लाइमेक्स जो अब तक बाकी था आ गया।
झाड़खंड का काफी क्षेत्र जंगलों और पहाडों से भरा-पूरा है,जो आपराधिक तत्वों के लिए काफी सुविधाजनक पनाहगार का काम देते हैं। गरीबी, बेरोजगारी और पैसे कमाने के शार्टकट में दिग्भ्रमित नौजवान अपराध की ओर भी उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे ही चंद आपराधिक तत्वों का एक समूह हमारी बस में भी कल रात घुस आया। तारीफकरनी होगी उनकी आत्मसंयम और कार्यशैली की! बिना किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचाए, बिना ज्यादा समय गंवाए काफी प्रभावशाली ढंग से रुपये और मोबाइल छीन उन्होंने बस को मुक्त कर दिया। इस क्रम में सड़क पर से गुजरते कुछ ट्रक भी उनके शिकार बने।
आम आदमी से जुड़े इस क्लाइमेक्स में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण तत्त्व की भूमिका की तो कोई गुंजाईश नहीं थी; इसीलिए थोडा दिन निकलने पर अपने सुरक्षित जोन में पुलिस के मिलने पर सवारियों ने निःशब्द प्रतिरोध ही दर्ज कराया। अन्दर से तो वे उन अपराधियों के शुक्रगुजार ही थे कि इस निरीह, असहाय जनता के साथ उन्होंने कोई और बदसलूकी नहीं की (जिससे उन्हें भला रोक भी कौन सकता था !)।
सभी शुभचिंतकों की शुभकामनाओं और दुआओं के साथ मैं भी अभी सानंद अपने घर पर हूँ , जहाँ से कुछ दिनों में अगली यात्रा की ओर रवाना होऊंगा।
मेरे भी बस थोड़े पैसे ही गए हैं और महत्वपूर्ण सामान और कागजात सुरक्षित हैं।
मेरे जीवन के इस पहले अनुभव ने आगे आने वाले सफ़र के लिए थोडी और परिपक्वता भी दी है।
इस परिपक्वता को एक सुझाव के रूप में इन पंक्तिओं में व्यक्त कर रहा हूँ -
साईं इतना दीजिये, कि जब बुरा वक्त आये;
डकैत भी खाली न रहे, पास थोड़े पैसे भी बच जायें।
(इस यात्रा वृत्तान्त के साथ पहली बार नीरज मुसाफिर जी को चुनौती पेश कर रहा हूँ. मगर मेरी यही कामना है कि अन्य किसी भी ब्लौगर को ऐसे यात्रा - संस्मरण लिखने की नौबत न आये। )
शुभकामनाएं।

13 comments:

L.Goswami said...

आपके साथ भी हो ही गई ..ऐसे ही अनुभव मैंने यहाँ http://sanchika.blogspot.com/2008/08/blog-post_26.html लिखे हैं देखिएगा ..आशा है आप ठीक होंगे.

संगीता पुरी said...

सबके साथ होने लगी हैं ऐसी घटनाएं .. आज के युग में इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए .. मेहरबानी रही ईश्‍वर की .. महत्वपूर्ण सामान और कागजात सुरक्षित रह गए !!

रंजू भाटिया said...

अंत भला तो सब भला जी आपकी आगे की यात्रा शुभ हो

Gyan Dutt Pandey said...

चलिये, बच गये! शुक्र है!

निर्मला कपिला said...

शुक्र करो कि बच गये वर्ना ऐसे लोग कुछ भी कर सकते हैं शुभकामनायें

Udan Tashtari said...

ईश्वर का लाख लाख शुक्र.

राज भाटिय़ा said...

अरे आप का धन्यवाद,भाई मै तो हमेशा जेब मै ही सारे पेसे रखता था, अगर मै होता तो वापसी का किराया भी सभी ब्लांगर भाईयो को इकट्ट कर के देना पडता, साथ मै होटल का बिल भी...

लेकिन पेसा रखे तो रखे कहा ? घर मै भी चोर, बाहर भी चोर...चलिये आप बच गये यही गनीमत है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

इस श्रमसाध्य पोस्ट के लिए,
आपको बहुत-बहुत धन्यवाद!

अभिषेक मिश्र said...

जी हाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ. आप सभी की शुभकामनाओं का धन्यवाद.

नीरज मुसाफ़िर said...

साहब जी,
गए नहीं अभी तक आप? हम पर इमोशनल अत्याचार कर रहे हो.
और हाँ, मुझे चुनौती पेश कर रहे हो. अजी अभी तो झारखण्ड ही जा रहे हो, जब अरुणाचल जाओगे, कहीं ये ना कहने लगो कि मैं ही सबसे बड़ा घुमक्कड़ हूँ. चलो, देखो, भुगतोगे अपने आप. अरुणाचल में मुश्किल से दस दिन ही मजे ले पाओगे. तब पता चलेगा.
और अगर दस दिन से ज्यादा हो गए मौज लेते हुए, तो मैं आप को महान मिश्राजी कहूँगा.

नीरज मुसाफ़िर said...

अन्यथा मत लेना. जो बुरा लगे तो मिटा देना, खुद ना मिटा सको तो बता देना. मैं मिटा दूंगा.

Vineeta Yashsavi said...

ye to ab aam baat ho gayi hai...kabhi na kabhi aise ghatnaye to ho hi jati hai...khair chaliye aap sahi salamat hai...

Arvind Mishra said...

हे भगवान ! जरूर किसी के भाग्य से हादसा टला -आप भी हो सकते हैं ! मगर बिहार के इन शरीफ बदमाशों को सलाम !

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