गर्मी की छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं. शहरों में बसा मध्यवर्ग किसी-न-किसी बहाने अपने गाँव का एक चक्कर लगा चुका है, जो नहीं लगा सके हैं वो - विशेषकर महिलाएं सावन में नैहर जाने के बहाने ही सही गाँव हो आने के लिए आतुर ही हैं. जो किसी कारणवश अभी छुट गए हैं, उनके लिए चंद महीनों में ही पूजा का दौर शुरू होने वाला है. कोई पूछे कि गाँवों में ऐसा क्या है – तो झट जवाब होगा, पेड़ों पर आम पक आये होंगे, खेतों में धान तैयार हो गई होगी आदि-आदि. ये चीजें ऐसी नहीं जो शहर में मयस्सर न हों, मगर इनके पीछे मुख्य तत्व वो भावनाएं हैं जो आर्थिक पहलु नहीं देखतीं. कहीं-न-कहीं गाँव की मिट्टी की कसक है जो आम हिन्दुस्तानी को कसोटती हैं – खींचती हैं. मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व बोकारो स्टील सिटी जैसे औद्योगिक शहर में जब एक व्यक्ति ने अपने मकान के पास स्थित मैदान में धान रोपवाई थी तो वह स्थानीय जनता के आकर्षण का एक केन्द्र बन गई थी. J
मगर गाँवों की भावना / संवेदना में छुपी तस्वीर यथार्थ में भी दिखाई देती है ! अफ़सोस है कि शहरों की चकाचौंध से विचलित होते गाँव अपनी स्वाभाविकता खो रहे हैं. मौलिक गाँवों से अलग वो एक कस्बे की शक्ल लेते जा रहे हैं. पढ़े-लिखे युवाओं के पलायन ने गाँवों को विद्या और शक्ति से भी विहीन कर दिया है. उसपर से सरकारी योजनाओं के मकडजाल ने ग्रामीण जनता को भी अकर्मण्य कर दिया है. शिक्षा, स्वास्थय, रोजगार, विकास किसी भी मसले पर स्वयंसेवा की जगह मुफ्त की सरकारी बैसाखी की बाट जोहती फिर रही है ग्रामीण आबादी. कुछ समय पूर्व बी. एच. यू. में अपनी एक सीनियर के साथ वाटर सैम्पल लेने सोनभद्र (उप्र) गया था, जहाँ ग्रामीणों से जल प्रदूषण के उनके स्वास्थय पर प्रभाव के संबंध में भी जानकारी लेनी थी. लगभग सभी ग्रामीण हमसे किसी सरकारी योजना के अंतर्गत मुफ्त दवा वितरण की उम्मीद में अपने कष्टों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाने को ही ज्यादा उत्सुक दिखे.
गाँव हजारों वर्ष पुरानी हमारी सभ्यता के क्रमिक विकास के प्रतीक चिह्न हैं. पश्चिमी प्रभाव से महानगरीय संस्कृति का अतिक्रमण आज विकास का मॉडल माना जा रहा है, मगर गाँव हमारे स्वाभाविक विकास का आधार हैं, इसीलिए देश की मिट्टी से जुड़े मनीषियों ने भारत माता को ‘ग्रामवासिनी’ माना, गांधीजी ने ‘ग्रामस्वराज’ की अवधारणा रखी. वो गाँवों को स्वावलंबी देखना चाहते थे, अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर और इसी आधार पर दूसरे ग्रामों से स्थापित संबंध. इस प्रक्रिया के आधार पर ही एक मजबूत भारत की नींव रखी जाती.
अब भी समय है कि अपने आधार को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किये जायें अन्यथा खोखली, दीमक लगी बुनियाद पर तथाकथित समृद्धि और प्रगति की मेट्रोपोलिटन ईमारत
कभी भी ध्वस्त हो जायेगी.
चलते-चलते प्रेमचन्द के ‘गोदान’ पर आधारित इस क्लासिक फिल्म से मिट्टी की खुशबू लिए यह गीत - जिसे फिल्माया गया है महमूद पर, गायक हैं रफ़ी साहब और संगीत दिया है - प्रख्यात संगीतज्ञ पं. रविशंकर ने. ( जो किसी कारणवश यहाँ डाउनलोड न हो सका).
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