Saturday, July 30, 2011

महिला अपराधों की राजधानी दिल्ली और दबंग अपराधी


महिला अपराधों की बढती वारदातें दिल्ली और एन. सी. आर. क्षेत्र में इतनी वीभत्स रूप ले चुकी हैं कि बेबस आम आदमी अब इन्हें देख-पढ़ कर सिर्फ शर्मिंदा ही हो पाता है. कुछ करने के लिए जो न्यूनतम बैकअप उसे मिलना चाहिए था वो राजनीतिक और प्रशासनिक मुखियाओं द्वारा अपने बयानों से पूर्व में ही छीना जा चुका है, जिसमें महिलाओं को रात में घरों से बाहर न निकलने, शालीन कपडे न पहनने के प्रतिफल आदि जैसे 'व्यवहारिक' विचार व्यक्त किये जा चुके हैं. (अब कौन समझाए कि रातों में निकलने वाली 'सभी' महिलाएँ सिर्फ तफरीह के लिए ही नहीं निकलतीं.)

निश्चित रूप से आस-पास के क्षेत्रों के अपराधी इन वारदातों सहित कई आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं, मगर पुख्ता क़ानूनी कारर्वाई न होने से उन्हे प्रोत्साहन तो मिलता ही है. इसके अलावा एक और वर्ग भी है इन वारदातों के पीछे जो 'वीकेंड्स' को अपने 'शिकार' या 'इन्जॉयमेंट' पर निकलता है. 

राहुल रॉय अभिनीत 'जूनून' तो याद ही होगी आपको. 


जी हाँ, उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध जिन प्रतिरोधी विचारों को कभी दकियानुसी माना गया था, वो अब अपने विकृत रूप में सामने आ चुकी हैं. राजधानी और कई बड़े शहर शराब के रिकौर्ड बिक्री और राजस्व में अतिशय वृद्धि से अत्यंत आह्लादित थे. निसंदेह वीकेंड्स में इनकी बिक्री नए और उत्साहवर्धक  रिकौर्ड्स को भी स्पर्श करती रहती है. शराब के साथ 'चखना' की भी एक परंपरा रही है जिसने एक नए समानांतर व्यवसाय को भी आश्रय दिया है. मगर अब शराब के साथ नमकीन, मांसाहार के अलावे एक और 'वस्तु' भी अपरिहार्य रूप से जुड़ती जा रही है और वो है 'स्त्री शरीर'. 

सिनेमा, विज्ञापन, देह दर्शना आयोजनों आदि द्वारा नारी की जो एक उपभोक्ता वस्तु सदृश्य छवि बना दी गई थी, उसका नतीजा अब यह हो चुका है कि एक ऐसी मानसिकता विकसित हो गई है जो स्त्री को मात्र एक 'उपभोग योग्य शरीर' के नजरिये से ही देखती है. और यही मानसिकता 'डिमाण्ड' करती है वीकेंड के आनंदपूर्ण काल को सुनिश्चित करने के लिए  इस 'तत्व' की पूर्ति का. 

अब यह 'वस्तु' बाजार में तो सुलभ है नहीं, सो इसका शिकार या 'जुगाड' किया जाता है इन्ही वीकेंड्स के दौरान. इसके अलावे 'न्यू ईयर' आदि जैसे अन्य उपलक्ष्य भी हैं. इसकी पुष्टि इन दिनों के अख़बारों की सुर्ख़ियों से की जा सकती है. मुंबई में न्यू इयर के दौरान हुई 'छेड़खानी' की घटना की यादें अभी भूली नहीं होंगी.

गत 23 जुलाई को गुडगाँव में एक वैन चालक ने अपनी सूझ-बुझ से एक लड़की को पांच युवकों द्वारा अगवा किये जाने से बचाया था. इसमें पुलिस की भी सार्थक भूमिका रही. (जो बचाव में सफलता की हाल में शायद घटित इकलौती घटना थी) इसमें उसके कुछ मित्रों ने भी मदद की थी, जिसमें इस घटना का चश्मदीद गवाह संदीप भी शामिल था. गत मंगलवार को उसकी हत्या कर दी गई. ऐसी घटनाएं ऐसे मामलों में आम आदमी को व्यक्तिगत पहल से भी हतोताहित ही करेंगीं. त्वरित और सटीक न्यायिक कारर्वाई ही इस दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकती है.

निःसंदेह हम 100% अपराध तो नहीं रोक सकते मगर कम से कम इस शौकिया कवायद को रोकने की 1% सार्थक कोशिश तो कर ही सकते हैं, अन्यथा 'वीकेंड स्पेशल' ये खबरें मीडिया की हेडलाइंस और 'ब्रेकिंग न्यूज' ही बनती रहेंगीं. 

इतना जरूर जोडूंगा कि परिस्थितियों को देखते हुए महिलाएं भी स्वयं ही इस दिशा में उपयुक्त समाधान निकालें. अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर पूर्ण निर्भरता उचित नहीं. 

Saturday, July 16, 2011

रंगमंच से : दब न जाये कहीं भारत-पाक की एक सम्मिलित आवाज


भारत-पाक संबंध इनके स्थापना काल से ही एक तलवार की धार पर चलने सरीखे हैं, जिन्हें इनकी राह से भटकाने में कई स्वार्थजन्य तत्व भी छुपे हुए हैं. कहते हैं मो. अली जिन्ना को भी आगे चलकर अपने इस निर्णय के औचित्य पर संदेह होने लगा था, मगर तबतक राजनीति की शतरंज के खिलाडी अपने खेल में काफी दूर निकल चुके थे. उस दौर की विभीषिका झेल चुकी एक पीढ़ी अपने स्तर पर इतिहास की इस भूल को सुधारने के प्रयास करती रही. अब जब दोनों मुल्कों में एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ चुकी है जो इतिहास के उस कटु अनुभव की छाया से पूर्णतः मुक्त है. इन दोनों पीढ़ियों के मध्य एक विरासत के रूप में हस्तांतरण हो रहा है एक स्वप्न का जिसमें दोनों देशों के अपनी साझी संस्कृति, इतिहास की पृष्ठभूमि में एक साझे भविष्य की आधारशिला रखने के प्रयास हो रहे हैं. राजनयिक दांव-पेंचों के परे दोनों मुल्कों के आम बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा की जा रही ऐसी ही पहलों में से एक थी 15 जुलाई, 2011 को 'गाँधी स्मृति और दर्शन समिति' के तत्वावधान में पाकिस्तान की सीमा किरमानी जी द्वारा संचालित 'तहरीक-ए-निस्वां' (Tehrik-E-Niswan) समूह द्वारा प्रस्तुत नाटक 'जंग अब नहीं होगी'.

411 BCE  में एरिस्तोफेन्स (Aristophanes) रचित ग्रीक नाटक 'लिसिस्त्राटा' (Lysistrata), जो कि दुनिया की पहली स्त्रीवादी और युद्धविरोधी कृति मानी जाती है, से प्रभावित इस  नाटक का नए परिवेश में एडाप्टेशन फहमीदा रियाज और अनवर जाफरी ने किया था, जबकि इसके निर्देशन की कमान संभाली थी अनवर जाफरी और शीम किरमई ने. 

नाटक की विषयवस्तु उन दो कबीलों के इर्द - गिर्द घुमती है जिन्होंने कभी एक साथ मिलकर विदेशी शत्रुओं का मुकाबला कर विजय पाई थी, मगर बाद में आपस में ही हिंसक संघर्ष में शामिल हो गए. अपने संघर्ष की आग में ये अपने समाज की सुख, समृद्धि, विकास, महत्वकांक्षाएं सबकुछ झोंकते चले जा रहे थे. जाहिरा तौर पर युद्धों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं को ही भुगतने पड़ते हैं. किसी का सुहाग उजड़ता है तो किसी की गोद और विजयी पक्ष की प्रतिहिंसा का भी आसान लक्ष्य स्त्री ही बनती है. ऐसे में दोनों कबीलों की औरतों ने एकजुट हो इस संघर्ष को रोकने के लिए दबाव बनने की ठान ली. 

औरतें यहाँ प्रतीक हैं दोनों कबीलों की उस आवाज का जो अक्सर नेताओं द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं.

नाटक का एक दृश्य 
इसके लिए उन्होंने दो माध्यम चुने - पहला - 'मर्दों को अपने पास न आने दो' और दूसरा 'अपने खजाने पर कब्ज़ा कर लो क्योंकि हमारा धन समाज के विकास के लिए है गोले-बारूद और एटम बम खरीदने के लिए नहीं. ' इसके प्रत्युत्तर में पुरुषवादी मानसिकता और स्त्रियों के बीच गहरा द्वन्द होता है. धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में मुल्ले-मौलवियों को भी स्त्रियों की तर्कशक्ति के आगे झुकना पड़ता है. 

गोले-बारूद खत्म हो जाने के बाद भी अपने वजूद की तलाश की छटपटाहट, जो इन कबीलों में संघर्ष की स्थिति बने रहने पर ही निर्भर करती है;  दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों को मथ रही है.. मगर स्त्रियों का दबाव इन्हें भी अपने दंभ को परे रख वार्ता के लिए संग बैठने को विवश करता है. दोनों देशों के सैनिक आम दोस्तों की तरह उन्ही के शब्दों में 'पहली बार जंग की दोपहर में नहीं, बल्कि एक खूबसूरत शाम' में बैठते हैं, और कहीं दबे पड़े उस एहसास को पुनर्जीवित करते हैं कि आखिर उनकी भाषा, संस्कृति, सभ्यता सब तो एक ही थी फिर यह जंग बीच में कहाँ से आ गई !
नाटक का एक अन्य दृश्य 
इस भाव के पुनर्जीवित होने के साथ ही यह नाटक तो खत्म हो जाता है मगर यह सवाल भी छोड़ जाता है कि भारत-पाक जैसे देशों की आम जनता के उस वर्ग की क्षीण सी आवाजें क्या अपने हुक्मरानों तक पहुँच पाएंगीं, जिसमें वो बार-बार इन सहोदरों के बीच उपजे अविश्वास को दूर करने के आग्रह करते आ रहे हैं. कुलदीप नैयर, गुलजार साहब जैसी शख्शियतें भारत से इस विचारधारा की एक प्रखर आवाज हैं तो सीमापार से भी प्रतिध्वनि न आ पा रही हो ऐसा भी नहीं है. 

वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैयर कलाकारों का उत्साहवर्धन करते हुए 

मुंबई धमाकों जैसी घटनाओं के माध्यम से उभरती कट्टरपंथी ताकतों के शोर में चाहे ये आवाजें दब जा रही हों, मगर ये खामोश नहीं होंगीं. दोनों देशों की अंधवैचारिक और कट्टरपंथी पूर्वाग्रहों से मुक्त युवा पीढ़ी अपने हुक्मरानों को भी एक-न-एक दिन आत्ममंथन के लिए जरुर विवश कर देगी. और तबतक के लिए गाँधी दर्शन एक माध्यम है इस भाव का कि -

"अन्धकार से क्यों घबड़ायें,
अच्छा है एक दीप जलाएं."

Tuesday, July 12, 2011

रंगमंच पर : अंबेडकर और गाँधी


गाँधी और अंबेडकर दो ऐसी शख्शियतें रही हैं, जिन्होंने विचारधारा के स्तर पर मानवता को काफी प्रभावित किया है, जिनके विचारों को धरातल पर उतारने में आज भी काफी हद तक सफलता तो नहीं ही मिल पाई है, अपने मानस पटल पर भी इन्हें पूर्णतः स्वीकृति दे पाने में हम समर्थ सिद्ध नहीं हो सके हैं. तत्कालीन परिस्थितियों में देश की राजनीतिक आजादी को दोनों द्वारा प्राथमिकता दिए जाने के बाद भी सामाजिक मुद्दों पर इन दोनों शख्सियतों ने अपनी परस्पर विरोधी विचारधाराओं को भी आपसी संवाद द्वारा एक रचनात्मक दिशा देने का प्रयास जारी रख एक अनूठा और आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था (जो आज दुर्लभ है).  

स्वतंत्रता प्राप्ति जैसे महत्वपूर्ण विषय की पृष्ठभूमि में सामाजिक परिवर्तन के इस अद्भुत विचारधारात्मक संघर्ष के संबंध में आम जनता या तो अनभिज्ञ ही है अथवा उसे काफी सतही जानकारी है. या फिर इसे लेकर अंबेडकर और गाँधी दोनों की ही परस्पर एक वर्ग विशेष में नकारात्मक छवि ही बना दी गई है अथवा दोनों ही व्यक्तियों को ‘मसीहा’ और ‘महात्मा’ की श्रेणी में बाँट कर इनके विचारों पर पुनर्संवाद की संभावना ही खत्म कर दी गई है.  इतिहास के इसी अध्याय पर एक बार और पुनर्विचार का प्रयास था – अस्मिता थिएटर द्वारा 10/07/2011 को दिल्ली के श्री राम केन्द्र में मंचित नाटक – ‘ अंबेडकर और गाँधी ’.

श्री राजेश कुमार द्वारा लिखित और श्री अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित यह नाटक एक सफल प्रयास था इन दो समकालीन विभुतिओं की विचारधाराओं के संघर्ष को वर्तमान पीढ़ी के सामने पुनर्प्रस्तुति का, जिसकी सफलता मंचन के बाद दर्शकों से संवाद के क्रम में स्पष्ट भी हो गई. कल्पना और इतिहास के सम्मिलन को दर्शकों तक प्रभावशाली ढंग से पहुँचाने में नाटक के संगीत पक्ष का भी उल्लेखनीय योगदान रहा है जिसकी कमान संभाली है श्रीमती संगीता गौड़ ने.

दलितोद्धार के लिए दोनों ही व्यक्तिओं की गंभीर चिंताएं थीं, और उन्होंने इस दिशा में काफी प्रयास भी किये थे. अंबेडकर जहाँ दलितों के प्रति हिन्दुत्ववादी विचारधारा के भुक्तभोगी थे, तो गाँधी को मात्र इसके एक संवेदनशील प्रत्यक्षदर्शी के रूप में ही नहीं देखा जा सकता. अश्पृश्यता के एक और घृणित रूप का व्यक्तिगत साक्षात्कार उन्होंने द. अफ्रीका में भी किया था, और इसके विरुद्ध उन्होंने एक विशाल सामाजिक आंदोलन खड़ा कर कम-से-कम आत्मसम्मान की स्थापना तो करवा ही दी थी. मगर भारत में अंतर्मन तक धंसी अश्पृश्यता को धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई थी, इसलिए यहाँ परिवर्तन के प्रयास थोड़े अलग स्तर पर करने थे और यह प्रक्रिया काफी श्रम के साथ समयसाध्य भी थी; जो स्वतंत्रता जैसे प्रथम लक्ष्य की प्राप्ति के साथ-साथ दूसरे मोर्चे पर भी अपेक्षित तीव्रता के साथ कर पाना संभव नहीं था. गांधीजी और अंबेडकर का दृष्टिकोण समान होते हुए भी उनकी कार्यशैली अलग थी. यही बात अंबेडकर के मन में गांधीजी के प्रति असंतोष उत्पन्न करती थी. इसके अलावे गांधीजी द्वारा अपने परिभाषित हिंदुत्व में वर्णाश्रम को सहमति भी अंबेडकर को कचोटती थी. मगर यहीं गांधीजी के व्यक्तित्व का वो पहलू सामने आ जाता है जो सत्य और स्वयं के साथ उनके प्रयोगों द्वारा उनकी विचारधारा में परिवर्तन का परिचायक है और इसे गांधीजी ने कभी नकारा भी नहीं.


वैचारिक असहमति के बावजूद इन दोनों के बीच संवाद सदा जारी रहा, जिसने गांधीजी की विचारधारा को काफी परिशोधित भी किया. दलितों की पीड़ा को और भी गहराई से समझने के लिए गांधीजी ने यहाँ तक कामना कर डाली थी कि यदि उनका अगला जन्म हो तो सिर्फ शुद्र ही नहीं बल्कि महाशुद्र के रूप में हो. वो यह भी जानते थे कि जब पाप सामूहिक होता है तो सजा उसे मिलती है जो उस समाज में सबसे निर्दोष होता है.

अंबेडकर ने गांधीजी को आगाह किया था कि जबतक वो हिंदुत्व और ब्राह्मणवादियों* के अनुकूल आचरण करते रहेंगे तबतक तो ठीक है मगर जब वो उनसे पृथक राह पर बढ़ चलेंगे उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. और दुर्भाग्य से उनकी चेतावनी सत्य सिद्ध हुई और बहुत से अन्य सामूहिक पापों की बलिवेदी पर एक ‘सर्वाधिक’ निर्दोष (फैशनेबल गाँधीविरोधी ध्यान दें – कि मैं ‘संपूर्ण निर्दोष’ शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा) महामानव एक बार पुनः भेंट चढ़ा दिया गया, और देश को एक नई रचनात्मक दिशा देने में सक्षम एक अत्यंत संभावनापूर्ण संवाद अधूरा ही रह गया.

नाटक में गांधीजी और अंबेडकर के विचारों के इस टकराव को  दर्शाना इससे जुड़े लोगों के लिए काफी जटिल था, जिसे इन्होने काफी प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है, मगर इसे इस पोस्ट के माध्यम से अभिव्यक्त कर पाना स्वयं मेरे लिए काफी कठिन रहा. मुझे भी इन दोनों जटिल व्यक्तित्वों के इस पहलु की जानकारी इतने विस्तार से इस नाटक के माध्यम से ही मिली.

निःसंदेह उस दौर में अपने व्यक्तिगत योगदानों को लेकर कई हस्तियों के संबंध में हमारी जानकारी काफी कम है. अपने इतिहास की सुविधाजनक व्याख्या हमें आत्ममुग्धता में बनाये रखती है. आजादी के इतने वर्षों बाद भी ऐसे कई अनछुए विषयों पर नवीन दृष्टिकोण से पुनरावलोकन की आवश्यकता है. गांधीजी की हत्या के बाद संवाद अधूरा छूट जाने की अंबेडकर की पीड़ा का शमन तब तक नहीं होगा जबतक यह संवाद एक तार्किक अंत तक नहीं पहुँचता, और इसकी जिम्मेवारी वर्तमान पीढ़ी पर है. आज के इस सुविधाभोगी और उपभोक्तावादी दौर में थियेटर के माध्यम से लीक से हटकर किये गए ऐसे प्रयास हमें झिंझोड़ते हैं और अस्मिता थियेटर ने एक बार पुनः इस दिशा में अपनी भूमिका काफी प्रभावशाली ढंग से निभाई है. एक विचारोत्तेजक प्रस्तुति के लिय इस प्रयास से जुड़े दल को बधाई और शुभकामनाएं.  

(* अंबेडकर के विचारों में भी ब्राह्मण अलग था और ब्राह्मणवाद विशेषकर उग्र/कट्टर ब्राह्मणवाद अलग, इसी प्रकार क्या आज पुनः हिंदुत्व और क्षद्म हिंदुत्ववादियों की पृथक पहचान और उनके इरादों के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता नहीं है ! )

Sunday, July 3, 2011

छोटा सिक्का नहीं चलेगा




वर्तमान युवा पीढ़ी को उनके बाल्यपन में अर्थशक्ति से वाकिफ करवाती मुद्रा की छोटी इकाइयों में से क्रिकेट की भाषा में ‘सेकंड लास्ट’ चवन्नी भारतीय रिजर्व बैंक के आदेशानुसार 30 जून 2011 से प्रचलन से बाहर हो गई. इससे पहले यह पीढ़ी 5, 10 और 20 पैसे को बाजारवाद की दौड में पिछडते देख चुकी है. (1 और 2 पैसे तो और भी पहले चलन से बाहर हो गए थे.)
                 
1835 में पहली बार मशीन से निर्मित चवन्नी प्रचलन में आई जो ईस्ट इंडिया कंपनी के विलियम चतुर्थ के नाम जारी की गई थी. 1940 तक प्रचलित चवन्नियां चांदी की बना करती थीं, फिर मिश्रण का दौर शुरू हुआ और 1942 - 1945 तक आधी चांदी की चवन्नी प्रयोग में लाई गईं. निकल की चवन्नियां 1946 से प्रचलन में आना प्रारंभ हुईं.  अपने जीवनकाल के लगभग 175 वसंत देख चुकी रुपये की इस चतुर्थांश को बंद करने के पीछे धातु की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि और इसके दैनिक प्रयोग में आई गिरावट को प्रमुख कारण माना जा रहा है.

निःसंदेह महंगाई, मुद्रास्फीति जैसे आर्थिक पक्षों के प्रभाव में चवन्नी आर्थिक जगत में अनुपयोगी हो गई थी, मगर भावनात्मक रूप से इसका प्रभाव इसी से आँका जा सकता है कि जाने कब से मंदिरों और पूजा में सवा रु. के दक्षिणा की परंपरा आरंभ हो गई; जो कि चवन्नी के बिना अधूरी ही है.

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस की ‘चवनिया सदस्यता’ तो प्रसिद्द थी ही, गांधीजी से जुडा एक रोचक नारा भी तत्कालीन व्यवस्था में चवन्नी की महत्ता दर्शाता है, जिसमें कहा गया है कि –

 “ खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गाँधी की ”

भारत में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ही जारी धातु के सिक्कों की यात्रा विभिन्न पड़ावों को पूरा करती अभी और भी लंबा सफर तय करेगी मगर अपनी आँखों के सामने इतिहास बनती इन विरासतों से जुडी स्मृतियाँ तो बनी ही रहेंगीं. मुझे याद है बचपन में मेरी नानी अपनी खास संग्रह से चवन्नियां निकाल कर मुझे स्कूल के लंच में कुछ और खा लेने को देती और मैं इनके बदले एक लोकल हीरो से अमिताभ बच्चन की तस्वीरों वाले कार्ड्स खरीद लिया करता था. अब इस कहानी के खत्म होने की भी अपनी ही कहानी है, जो चवन्नी के साथ ही खुद भी यहाँ प्रासंगिक नहीं है.

मगर पैसे आज विश्व को संचालित करने वाली ऊर्जा के ही रूप हैं जो किसी भी प्रारूप में अपनी भूमिका निभाते ही रहेंगे, अपनी धूम मचाते ही रहेंगे. विषद चर्चा देवसाहब के माध्यम से ही सुन लीजिए -



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