Tuesday, January 24, 2012

नॉर्वे में अपने बच्चों के लिए संघर्षरत भारतीय दंपत्ति...



अपने बच्चों और परिवार के लिए बेहतर भविष्य और संभावनाओं की तलाश में विकसित देशों में जाने वाले भारतीय परिवार पहले भी कई बार विभिन्न असहज परिस्थितियों में पड़ते रहे हैं, मगर ऐसी परिस्थिति की शायद ही किसी ने कल्पना की हो - जो उन्हें अपने बच्चों, अपने परिवार से ही अलग कर दे... 

जी हाँ, ऐसा ही हुआ है भारतीय मूल के भू-भौतिकी शास्त्री अनुरूप भट्टाचार्य और उनकी पत्नी श्रीमती सागरिका भट्टाचार्य के साथ. 2007 से नॉर्वे में रह रहे इस दंपत्ति के बच्चों तीन वर्षीय अभिज्ञान और एक वर्षीय ऐश्वर्या को वहां की एक संस्था ' नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर्स सोसायटी ' ने अपने कब्जे में ले लिया है. इस निर्णय का कारण अभिभावकों द्वारा अपने बच्चो की उचित देखभाल न किये जाने को बताया गया है. और इसके समर्थन में उदाहरण ये दिए गए हैं कि ये लोग अपने बच्चों को हाथ से खाना खिलाते थे और इन्हें सोने के लिए दूसरे कमरे में नहीं रखते !!! 

जाहिर सी बात है कि भारतीय परिवेश में बच्चों के लालन-पालन के जो संस्कार इस दंपत्ति को मिले थे वो वहां की परिस्थितयों से सामंजन नहीं बिठा पा रहे थे. अब यहाँ तकनिकी समस्या ये भी है कि बच्चों की वीजा अवधि फरवरी में समाप्त हो रही है, और इस परिस्थिति में शायद उन्हें अपने माता-पिता के साथ लौटने न दिया जाये. इसके अलावे वहां के क़ानूनी प्रावधानों के अनुसार ये अपने बच्चों के 18 साल के होने तक साल में मात्र दो बार और वो भी एक-एक घंटे के लिए ही मिल पाएंगे. 

इस सन्दर्भ में भटाचार्य दंपत्ति और उनके परिजनों ने अपने स्तर पर कई प्रयास किये हैं. इन्होने बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल सहित कई संबद्ध पक्षों तक अपनी बात पहुंचाई है. नॉर्वे स्थित भारतीय दूतावास ने भी नॉर्वे की सरकार से इस मुद्दे पर हस्तक्षेप की मांग की है.

इस सन्दर्भ में विभिन्न समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में भी कई रिपोर्ट्स आदि प्रकाशित हो चुकी हैं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स में भी इस मुद्दे को उठाया जा रहा है. स्वयं हमने भी इस विषय पर फेसबुक पर ' Let's Support Anurup Bhattacharya ' नामक Page की शुरुआत की है. 

मामले को सुलझाने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत विदेश मंत्री श्री एस. एम्. कृष्णा के इस बयान से भी मिली है जिसमें उन्होंने नॉर्वे सरकार से इस मुद्दे पर शीघ्र और 'यथोचित समाधान' सुनिश्चित करने की मांग की है. इस संबंध में नॉर्वे के संबंधित अधिकारियों से बात होने की संभावना भी जताई जा रही है. माना जा रहा है कि नॉर्वे सरकार बच्चों को उनके माता-पिता के बजाये भारत में उनके दादा-दादी को सौंपे जाने पर सहमत हो सकती है. 

नॉर्वे की चाईल्ड प्रोटेक्टिव सर्विस के सख्त प्रावधानों की दुनिया भर में आलोचना होती रही है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र होने की खबरें आ चुकी हैं. इस नए विवाद ने इस विषय को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. आशा है जहाँ इस प्रसंग में भट्टचार्य दंपत्ति को न्याय मिलेगा, वहीँ दूसरे देशों की सरकारें भी ऐसे मामलों में संबद्ध देशों की संस्कृति - परिवेश आदि को भी ध्यान में रखेंगीं...

(सामग्री और तसवीरें अख़बारों, गूगल और फेसबुक आदि से संकलित)

Monday, January 23, 2012

हजारीबाग की स्मृतियों में - नेताजी सुभाषचन्द्र बोस.....



सुभाषचंद्र  बोस - एक ऐसा नाम जो सदा-सर्वदा के लिए अपने चाहने वाले देशवासिओं  के दिलो-दिमाग पर छा चूका है. यूँ तो इस नाम की छाप  पूरे देश के जर्रे-जर्रे में है, मगर मैं यहाँ उनके झाड़खंड के एक छोटे से शहर हजारीबाग से जुड़े कुछ संस्मरणों की चर्चा करने जा रहा हूँ. 

सन 1940 में हजारीबाग के रामगढ में कांग्रेस का 53 वाँ राष्ट्रिय अधिवेशन हुआ था, जिसकी अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने की थी. इसी के समानांतर सुभाष बाबु ने स्वामी सहजानंद सरस्वती के आह्वान पर 19 मार्च, 1941 को अपना प्रसिद्ध 'समझौता विरोधी सम्मलेन' किया था. हजारीबाग से उनका व्यक्तिगत जुडाव भी रहा. 11 फरवरी, 1940 को सुभाष जी का हजारीबाग आगमन हुआ और एक भव्य शोभायात्रा के पश्चात स्थानीय केशव हॉल में उनका संबोधन भी हुआ था. हजारीबाग स्टेडियम में भी राष्ट्रनायक ने जनता को संबोधित किया था. नेताजी को 1940 में कैद कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में भी रखा गया था. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार जेल में उनकी एक तस्वीर भी लगे गई थी जिसपर नेताजी के हस्ताक्षर भी थे, जो आजकल गायब है. 

स्थानीय  केशव हॉल 

इतिहास की कई स्मृतियों के साक्षी ये स्थल आज जानकारी और जागरूकता के आभाव में अपने महत्व को खोते जा रहे हैं, मगर स्थानीय बंग समुदाय के प्रयासों से पिछले कई वर्षों से यहाँ एक प्रतीकात्मक 'रंगून मार्च' का आयोजन होता आ रहा है, जिसमें भागीदारी नई पीढ़ी को इस महानतम से जुडी अपनी विरासत के प्रति एक सन्देश तो दे ही रही है. 

देश के इस अमर सेनानी को उनके जन्मदिन के पावन अवसर पर कोटिशः  नमन.....

Sunday, January 8, 2012

रंगमंच से - कालिदास की मालविकाग्निमित्रम

खजुराहो में प्राचीन भारत की समृद्ध संस्कृति और विरासत से रूबरू हो लौटने के तुरंत बाद ही हमारे समृद्ध  इतिहास की एक और विरासत से साक्षात्कार का अवसर मिला - भारत की पारंपरिक 'नौटंकी' शैली में महाकवि कालिदास की सांस्कृतिक रचना 'मालविकाग्निमित्रम' की नाट्य प्रस्तुति के रूप में. 


नई दिल्ली के ' Indian  Habitat  Centre ' के स्टीन ऑडिटोरियम में श्री अतुल यदुवंशी द्वारा परिकल्पित  व निर्देशित ' स्वर्ग रंगमंडल ' की प्रस्तुति मालविकाग्निमित्रम महाकवि कालिदास की प्रथम रचना मानी जाती है. 

लगभग 2200 वर्ष पूर्व के युग का चित्रण करते इस नाटक में शुंग वंश जो कि वैदिक पुनर्जागरण का भी दौर था के काल की कला, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था आदि की उल्लेखनीय झलक मिलती है. इस नाटक में कालिदास जी द्वारा स्वांग, चतुष्पदी क्षंद तथा गायन के साथ अभिनय के भी संकेत किये गए हैं, जो इंगित करते हैं कि उस युग में भी इन लोकनाट्य के तत्व विद्यमान थे.


नाटक की कथावस्तु राजकुमारी मालविका और विदिशा नरेश महाराज अग्निमित्र के मध्य प्रेम पर केन्द्रित है. विदर्भ राज्य पर अधिकार हेतु संघर्ष की स्थिति में माधवसेन अपनी बहन मालविका को सुरक्षा हेतु अन्यत्र भेज देते हैं. परिस्थितिवश मालविका को गुप्त रूप से विदिशा जाना पड़ता है जहाँ वो राजकीय रंगशाला में संगीत-नृत्य आदि का प्रशिक्षण प्राप्त करती है. अग्निमित्र एक चित्र में मालविका को देख उसपर मोहित हो जाते हैं. महारानी धारिणी इनके प्रेम प्रसंग को रोकने के प्रयास करती है, मगर राजा का मित्र और विदूषक (जो कि तत्कालीन नाटकों का एक अभिन्न भाग हुआ करता था) गौतम के प्रयासों से दोनों का मिलन होता है. नाटक के अंत में मालविका की राजसी पृष्ठभूमि के संबंध में ज्ञात होने पर धारिणी स्वयं मालविका और अग्निमित्र का विवाह करवा देती है. 

निर्देशक अतुल यदुवंशी अपनी टीम के साथ...
नाटक के एक दृश्य में तत्कालीन मान्यता कि सुन्दर स्त्रियों के चरण प्रहार से अशोक के फूल पुष्पित हो जाते हैं का भी रोचक वर्णन किया गया है. 

प्रमुख कलाकारों में अग्निमित्र - अजित विक्टर नाथ, मालविका - देविका पांडे, विदूषक गौतम - गौरव के अभिनय ने प्रभावित किया. नाटक के प्रस्स्तुतिकरण में इसके गीत - संगीत की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही...

लोक नाट्य और सांस्कृतिक तत्वों को अमूमन एक दुसरे पर वर्चस्व के रूप में ही कल्पित किया गया है, मगर स्वर्ग ग्रुप की ये प्रस्तुतियां देश के पारंपरिक और सांस्कृतिक विरासत के समन्वय का एक अनूठा उदाहरण हैं. इस ग्रुप ने कालिदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, रेणु आदि की कई रचनाओं को भी नौटंकी शैली में अभिव्यक्ति दी है. संस्था को उसके इस अभिनव और सांस्कृतिक समन्वय के प्रयास के लिए शुभकामनाएं.  

Wednesday, January 4, 2012

खजुराहो : गीत गाया पत्थरों ने.....



कई वर्षों से भारत की स्थापत्य कला के उदात्त प्रकटीकरण के इस प्रतीक स्थल के भ्रमण की इच्छा थी जो आख़िरकार 2011 के आखिरी दिन पूरी हो ही गई. 31  दिसंबर और 1 जनवरी की सप्ताहांत छुट्टियों का समुचित उपयोग करते हुए आख़िरकार आनन्-फानन में खजुराहो जाने का कार्यक्रम बन ही गया. 

 चंदेल राजाओं के संरक्षण में मध्यकालीन भारत के इस भाग में कला, शिल्प, साहित्य आदि हर क्षेत्र का समग्र विकास हुआ. लगभग 500  वर्षों तक इस वंश के प्रतापी राजाओं ने अपनी कीर्ति पताका फहराई और उसके सुदीर्घ स्मरण के उद्देश्य से मंदिरों की यह अद्भुत श्रंखला विकसित होती गई. मगर कालांतर में शासक वर्ग की शक्ति क्षीण होते जाने का असर इस विरासत पर भी पड़ा और ये स्मृति पटल से भी विलुप्त होने लगी. मगर इन्हें इनका वाजिब हक़ और सम्मान मिलना अभी शेष था और एक बार फिर यह विस्मृतप्राय विरासत इतिहास की धुल को झाड़ और भी प्रखरता से उभर कर सामने आई. नतीजा आज पूरा विश्व उस युग की भारतीय स्थापत्य कला, संस्कृति, ज्ञान से मंत्रमुग्ध सा है. 

न झटको जुल्फ से पानी.... : स्नान कर आई नायिका और उसके बालों से टपकते पानी को पीता  बत्तख 

इन अवशेषों को इनका सम्मान पुनर्स्थापित करवाने में फ्रेंकलिन जैसे खोजकर्ता, इंजीनियर पी. सी. बर्ट, सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम  और लेखक लेवल ग्रिफिन आदि का उल्लेखनीय योगदान दिया है. वर्तमान में आर्कियोलौजी सर्वे ऑफ इण्डिया की देख-रेख में इस स्थल को काफी सुव्यवस्थित रखा गया है, विशेषकर पश्चिमी परिसर को.

खजुराहो के मंदिर परिसर अमूमन अपनी मैथुन मूर्तियों के लिए ही चर्चा में आते हैं, मगर इनके साथ यहाँ की अन्य कलाकृतियों, स्थापत्य और शिल्प को नजरंदाज करना अनुचित है. मैथुन मूर्तियाँ तो शायद 10  % ही हों यहाँ के अन्य शिल्पों के साथ... और इनके अपने कई प्रतीकात्मक आध्यात्मिक, धार्मिक, तांत्रिक और ऐतिहासिक महत्व भी हैं. मगर यहाँ के अन्य शिल्प भी अतुलनीय हैं.....
मंदिर की बाह्य दीवार पर उत्खनित एक मूर्तिशिल्प जिसका तांत्रिक महत्व भी है 

चंदेल वंश के संस्थापक चंद्र्वर्मन, चंद्रमा के पुत्र माने गए हैं द्वारा एक सिंह को अकेले परास्त करने की मान्यता के कारण इसे ही इस वंश का राजचिह्न की मान्यता प्रदान की गई. 

चंदेल राजचिह्न 
                                                
यहाँ मंदिर मुख्यतः तीन परिसरों में पाए गए हैं-

1 . पूर्वी मंदिर समूह - इनमें ब्रह्मा मंदिर, वामन मंदिर, जवारी मंदिर आदि प्रमुख हैं. 
2 . दक्षिणी मंदिर समूह - दुल्हादेव मंदिर, चतुर्भुज मंदिर आदि.
3 . पश्चिमी मन्दिर समूह (मुख्य परिसर) - चौंसठ योगिनी मंदिर, मतंगेश्वर मन्दिर, वराह मन्दिर, लक्ष्मण   
                                                                 मन्दिर, पार्वती मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर, चित्रगुप्त मन्दिर,   
                                                                 कंदरिया महादेव मन्दिर आदि...

यहाँ भ्रमण के इच्छुक लोगों को यह सुझाव अवश्य दूंगा कि रोज शाम आयोजित होने वाले लाईट एंड साउंड शो में जरुर शामिल हों तथा 'स्लमडॉग गाइड' के बजाये उपलब्ध ऑडियो गाइड्स का उपयोग करें. जो ज्यादा प्रामाणिक और महत्वपूर्ण जानकारी देने में विशेष लाभकारी है. 

धार्मिक पर्यटकों की चिर-परिचित भीड़-भाड़ और व्यवस्थाविहीनता के शिकार अन्य पर्यटन स्थलों (विशेषकर उत्तर भारत के...) से अलग एक सुखद अनुभव एहसास है खजुराहो. कभी अवसर मिले तो अवश्य समय निकालें 'अद्वितीय भारत' की लगभग 1000  वर्ष प्राचीन इस महत्वपूर्ण विरासत के साक्षी बनाने का.....
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