प्राचीन कश्मीर की पारंपरिक आर्य शैली में बने इस मंदिर की कालावधि 8-9 वीं शताब्दी मानी जा रही है. इसके पिरामिडाकार शिखर इसे एक अलग ही स्वरुप देते हैं (जो फिलहाल तो स्थानीय बच्चों के इनपर चढ नीचे पानी में कूदने के लिए ही प्रयोग आ रहे हैं...). जलकुंड के मध्य स्थित यह मंदिर कभी अपने वास्तुशिल्प में भी विशिष्ट स्थान रखता होगा. आतंरिक जलश्रोतों की ससंभावित उपस्थिति के कारण बढते जलस्तर के कारण भी इसके पुनरुद्धार में प्राधिकरण को कठिनाइयाँ आती रही हैं. क्षेत्रीय अख़बारों के अनुसार कुछ स्थानीय लोगों ने यहाँ हर शुक्रवार को एक सांप के दिखने की बात भी कही है, जिसकी तस्वीर नहीं ली जा सकी.
मान्यताओं से परे यह एक ऐसा स्थल तो है ही जो इतिहास से वर्तमान में अपने वाजिब स्थान और पहचान का अधिकारी है और इसे इसकी वास्तविक पहचान मिलनी ही चाहिए.....
3 comments:
ख़ुशी की बात है कि वहां का विकास प्राधिकरण इस मंदिर में रूचि ले रहा है
बहुत सुन्दर एवं सार्थक वर्णन
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
और हमारी तरफ से दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें
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