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Monday, August 3, 2009

धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग !


धार्मिक स्थलों के नाम पर भूमि के अवैध अतिक्रमण के प्रयासों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका सराहनीय है। कोई भी धर्म या संप्रदाय धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर नाजायज लाभ उठाने के लोभ के संवरण से आज पीछे नहीं है। व्यक्तिगतरूप से मैं भी यह महसूस करता हूँ कि अनाधिकृत रूप से निजी हितों की पूर्ति के लिए पूजन स्थलों के नाम पर अर्जित की गई भूमि पर ईश्वर निवास कर ही नहीं सकते। कोई भी शिवलिंग या धार्मिक चिह्न स्थापित कर अच्छी-खासी भूमि का अधिग्रहण हम सभी ने देखा है, हद तो तब हो जाती है जबकि अपने निवासस्थानों जिनकी बाउंड्री अमूमन अतिक्रमित ही होती है को बचाने के लिए बाहरी कोने में एक छोटा मंदिर या आराधनालय स्थापित कर दिया जाता है। इसी भगवान की व्यक्तिगत उपासना ही उन्हें नगरनिगम के अतिक्रमण विरोधी अभियान से बचाने में ढाल का काम देती है। इस पापकर्म में जबरन भागी बनवाये जाते प्रभु के ह्रदय पर क्या गुजरती होगी, भला सोचा है उनके भक्तों ने।


कई बार काफी सावधानीपूर्वक चलाये जा रहे अभियानों में भी एक छोटी सी असावधानी जैसे 'प्रभु की एक ऊँगली का टूटना' जैसी घटनाओं ने बड़े दंगों का रूप भी ले लिया है। ऐसी घटनाओं का लाभ उठाने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहे हैं।


जरुरत है कि सभी धर्मों के प्रतिनिधि और राजनीतिक दल व्यक्तिगत हितसाधन के इस शर्मनाक प्रयास के विरोध में एकजुट हों। अतिक्रमित धर्मस्थलों को उपासना के लिए अयोग्य घोषित किया जाये और भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कर उसका उपयुक्त उपयोग सुनिश्चित किया जाये। साथ ही साथ धार्मिक आयोजनों के नाम पर सावर्जनिक स्थलों के असंतुलित अतिक्रमण के विरुद्ध भी जनमानस बनाये जाने की जरुरत है।


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