(Image from google)
बाल-दिवस और बाल गीत
बाल दिवस आया और एक बार फ़िर कई वादों और इरादों के आश्वाशन के साथ चला गया। कई बच्चों ने इसे फैशन परेड और बड़ों के गानों पर छोटे -छोटे ठुमकों के साथ मनाया और कईयों को इस बार भी पता नहीं चला की उनके लिए भी इस देश में कोई दिन निर्धारित है। मगर मैं मुख्यतः बात कर रहा हूँ उन बच्चों की जिन्हें इस देश का कर्णधार मानते हुए आज के प्रतिस्पर्धी समाज के अनुकूल ढालने के प्रयास किए जा रहे है। इस प्रयास की एक झलक तो तथाकथित reality shows में दिख ही रही है जहाँ इनका मासूम बचपन इनसे किस तरह छीना जा रहा है!
इस पीढी को शायद ही याद होंगे वो ख़ूबसूरत बाल लोक गीत जो इस देश की मिट्टी की खुशबु में भीगे होते थे और अनजाने में ही उन्हें अपने परिवेश और प्रकृति से मजबूती से बाँध लेते थे। ऐसा ही एक बाल खेल गीत है-
ओका-बोका तीन तरोका,लउआ लाठी चंदन काठी,चनवा के नाम का ?, 'रघुआ',खाले का? 'दूधभात',सुतेले कहाँ? 'पकवा इनार में',ओढ़ेले का?, 'सूप' देख 'बिलायी के रूप'।
गर्मी की दुपहरी में बच्चे इस खेल में अपने 4-5 दोस्तों के साथ अपने पंजों को केकड़े के रूप में रखते थे और कोई लड़का यह गीत गाते हुए इन पंजों की गिनती करता। इस क्रम में जिसके पंजे पर 'सूप' शब्द आता उसे सभी 'बिलाई' कह चिढाते।
खाने को मनाने के लिए माँ की ममता चाँद का भी सहारा लेती -
चंदा मामा,
आरे आव- पारे आव, नदिया किनारे आव,
दूध-रोटी लेके आव,बेटवा के मुंहवा में गुटुक।
और चंदा मामा को निहारते हुए माँ के हाथों से भोजन का सुख लेता बालक कब उनसे अपना एक रिश्ता बना लेता उसे पता ही नहीं चलता।
वही रिश्ते उसे हमेशा अपनी मिटटी और संस्कृति से जोड़े रहते। आज जब बच्चों को मिट्टी को गन्दा कह हाथ धोने का पाठ पढाना सभ्यता समझी जा रही है तो उसके अपनी मिट्टी से कटने की शिकायत भी अभिभावकों को नहीं होनी चाहिए।
(यदि आपकी यादों में भी बचपन में सुने ऐसे कोई गीत बसे हों तो कृप्या मुझसे भी साझा करें। )
12 comments:
bahut sundar lekh aur sachhai kehta bhi aa ka bachpan kahi kho raha hai.
Abhishek ji kitani bidambanaa hai ki jab kisi garib kaa 14 varsh se kam umra kaa bachchaa bhookhe pet ke liye kuchh kaam karataa hai tab use waal shram kaa aparaadh maaankar rok dete hain aur doa roti use dete nahin jabki usi umra kaa bachchaa advertisements mein yaa reality shows mein kaam karataa hai to jaayaj maankar kuchh nahin kahate.
बिल्कुल सही
मौका मिलते ही बचपन की यादों के संग मिलूंगा
वादा रहा
आपको बधाई
लगता है बचपन फिर जी रहे हो दोस्त
अभिषेक जी बहुत सुंदर आलेख बधाई
बिल्कुल ठीक कह रहे हो अभिषेक जी, अपना बचपन हम भी याद करते हैं, तो अब कुछ खालीपन का एहसास होता है। मैं तो ढंग के कपड़े पहनना और रोजाना नहाना भी अभी सीखा हूँ। शोर मचाकर खेलने कूदने वाले बच्चे अब विलुप्त होते जा रहे हैं।
Mujhe aisa mahsus hua jaise aapne apne blog mai mere blog ke pictures ko shabd de die hai. bahut hi sahi baate apne likhi hai. padhker achha laga.
बहुत गजब का लिखा भाई आपने ! शुभकामनाएं !
बचपन की यादें ताजा हो गई आपके ब्लॉग पर आकर।धन्यवाद।
बाल-दिवस के अवसर पर एक उत्तम रचना का आविष्कार करने के लिए धन्यवाद्!
बाल-लोकगीत और बच्चों के लिए उमदा साहित्य का निर्माण आवश्यक है!.... तभी तो आने वाला कल सुखदायी हो सकता है!... सुंदर लेख!
बच्चों के लिए बालगीत का विशेष महत्व है। आपने बालदिवस के बहाने इन्हें याद किया, यह देख कर प्रसन्नता हुई। आप हिन्दी बाल गीतों को मेरे ब्लॉग बालमन (http://baal-man.blogspot.com) में भी देख सकते हैं।
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