Saturday, March 14, 2009

पीड़ा: एक पत्रकार होने की

पढाई पूरी करने के बाद मैं भी किसी अच्छी सरकारी नौकरी में जा सकता था। किन्तु मैं पत्रकारिता में आया, क्योंकि मैं आम जनता से सीधा संवाद करना चाहता था. सुना था लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है पत्रकारिता, तो इस स्तम्भ को और मजबूती देना चाहता था मैं.
इसीलिए पुरे उत्साह के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया में गया। सोचा था मेरे न्यूज़ की एक-एक बाईट से समाज की सच्चाई झलकेगी और समाज को बदलने में मैं भी सहभागी बन सकूँगा. मगर यहाँ आकर पता चला कि जिस बाजारवाद के विकल्प की तलाश की आशा में मैंने इस और रुख किया था, वो तो पूरी तरह इसे अपने शिकंजे में ले चुका है. साबुन और शैम्पू की तरह न्यूज़ की भी मार्केटिंग हो रही है और इसे ऐसे सजा-धजा कर बेचा जा रहा है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना ही नहीं.
भूत-प्रेतों के इंटरव्यू लेने से बेहतर मैंने प्रिंट मीडिया की राह चुनी। बड़े मीडिया घरानों की राजनीतिक प्रतिबद्धता में तटस्थ पत्रकारिता की उम्मीद कम ही दिख रही थी, इसलिए मैने हिंदी के ह्रदय प्रदेश के इस छोटे से शहर से कलम की अपनी लडाई जारी रखी.
छोटे शहरों में बाजार तो ज्यादा हावी होता नहीं साथ ही आम लोगों से संवाद भी आसानी से कायम हो जाता है। इसी क्रम में मैं भूल गया कि मैं एक पत्रकार हूँ समाज-सुधारक नहीं. स्थानीय फैक्ट्रियों में दुर्दशा और शोषण के शिकार बाल-मजदूरों को जब मेरी रिपोर्टिंग ने बाल-सुधार गृह पहुंचा दिया तो एक बार को लगा कि मेरा पत्रकारिता में आना सार्थक हो गया. किन्तु जब से पता चला है कि बड़े ही सौहाद्रपूर्ण माहौल में वो बच्चे वापस अपनी कर्मस्थली पहुँच गए हैं, मैं खुद से ही निगाहें नहीं मिला पा रहा.
बात यहीं तक रहती तो भी ठीक थी, कि मैने अपनी ओर से प्रयास तो किया। मगर मैं इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा कि मुख्यालय में मेरे द्वारा भेजी ख़बरों की चीड़-फाड़ ऐसा व्यक्ति करे जिसे स्थानीय मुद्दों, सरोकारों और जज्बातों का जरा भी भान नहीं.
हममें से जो हवा के रुख के साथ स्वयं को बदलने में सक्षम हैं वो तो ऐसी परिस्थितियों के अनुकूल खुद से समझौता कर ले रहे हैं, मगर मेरे जैसे लोग जिनके लिए पत्रकारिता एक पेशा नहीं आदर्श और जीने का ढंग है वो क्या करें! नया विकल्प तलाशें! ब्लॉग को आजमा कर देखें! हमें तो अभिव्यक्ति और आत्मसंतुष्टि का माध्यम मिल जायेगा, मगर पत्रकारिता जो हमारे लोकतंत्र की जिवंत धरोहर है को इससे जो क्षति पहुँच रही है और पहुँचेगी उसके लिए क्या किसी ने कुछ सोचा है ?
(अपने तथा कुछ पत्रकार मित्रों के अनुभवों पर आधारित)

15 comments:

Arvind Mishra said...

दूसरों की पीडा अपने गले क्यों मढ़ रहे हो अभिषेक -अभी तुम्हारी सारी पढाई पडी है !

Anonymous said...

आज की खबर खबर नहीं, आज खबर एक उत्पाद है...
सही कायदे में पत्रकारिता करना तो अपराध है.

ओम आर्य said...

There is a dire need of developing a 'com' who can fight for the negative aspects of this evergrowing market. till the fight occurs, we all are products, and we do everything for producing something to market.

Vineeta Yashsavi said...

Yaha peedha to kmobesh her us patrakaar ki hai jo sachh ki raah mai chalne ki liye is field mai aata hai...

aaj media ka meaning hi badal chuka hai isiliye to hume utpatang news details mai mil jaati hai par asli news ka kahi koi ata-pata nahi hota...

mark rai said...

kuchh bhi ho jaaye ham badalege nahi... hamaari pahchan isi se hai bhale hi baajaarwaad havi hai lekin ham apanewali hi karege...

नीरज मुसाफ़िर said...

सही लिखा है अभिषेक जी. ऐसा ही होता है.

विष्णु बैरागी said...

यह बहुत ही उलझनभरी स्थिति है। पत्रकारिता अर्थात् समाचार आगे तक पहुंचाना। अर्थात् यह काम वस्‍तुपरक भाव से किया जाना चाहिए। किन्‍तु पत्रकार चूंकि धारा के बीच में खडा होकर घटनाओं से साक्षात्‍कार करता है सो वह कब अपने समाचार का अंश बन जाता है, पता हीं नहीं चलता। इसी क्षण से 'वस्‍तुपरक भाव' तिरोहित होकर 'आत्‍मपरक' बन जाता है। जैसे ही 'आत्‍मपरकता' आती है, तत्‍क्षण ही 'अपेक्षा भाव' पैदा होता है और अपने समाचार पर हुई कार्रवाई की प्रतीक्षा होने लगती है। कार्रवाई हो गई तो दिल बाग-बाग और न हुई तो जीवन व्‍‍यर्थ अनुभव होने लगता है - अपने लिखे की उपेक्षा होते देखकर, उसे अप्रभावी होते देख कर।

मुझे लगता है कि लगभग इसी बिन्‍दु से 'पत्रकार' को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए। यदि 'पत्रकार' समाज का हिस्‍सा बन कर, उसमें व्‍याप्‍त असन्‍तुलन, अनाचार, अन्‍याय, शोषण आदि से मुक्ति अभियान चलाना चाहते हैं तो फिर वे पत्रकार नहीं रहते, आन्‍दोलनकारी अ‍थवा अभियान का हिस्‍सा बन जाते हैं। जब वे 'पक्ष' बन जाते हैं तो फिर उनकी तटस्‍थता स्‍वत: ही समाप्‍त हो जाती है।
इसीलिए यह बहुत ही उलझनभरी स्थिति है। कोई दो टूक बात कह पाना अथवा किसी सुस्‍पष्‍ट निष्‍कर्ष पर पहुंच पाना और अधिक कठिन, और अधिक उलझनभरा।

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

प्रिय अभिषेक, आज आपको जैसा लग रहा है वैसा मैंने भी कई बार महसूस किया है जब मैं यहाँ-वहां तरह-तरह के काम करने में लगा रहता था और हमेशा यह देखता था की समझौते करके निबाह कर लेनेवाला और प्रैक्टिकल रहनेवाला आदमी ही हमेशा आगे निकल रहा था. आप चाहें तो ब्लॉग्स पर वह सब कर सकते हैं जो अन्यत्र संभव नहीं है पर यह मेरा पर्सनल दृष्टिकोण है की भारत में चीज़ें ऐसे ही चलती रहती हैं और उन्हें बदलना भगवान् के लिए भी मुश्किल है.

संगीता पुरी said...

सब समस्‍या की जड हर क्षेत्र का निजीकरण है ... इसके कारण हर जगह लोगों को बस नफा नुकसान ही दिखाई दे रहा है ... मानवीय मूल्‍यों का लागातार ह्रास हो रहा है ... पत्रकारिता भी इसमें पीछे कैसे रह सकती है ?

अभिषेक मिश्र said...

I went through your feelings related to being a journalist of no sense. yes, when i started active journalism in 1988, i had also the same opinion. but, with the advent of advertisement era, scene has changed drastically. the journalists of our age should prepare themselves to be the part of stream, but not fall pray of this advertisement vandalism. that's all.

(Ghanshyam Srivastava: By E-mail)

admin said...

इस दुनिया में हर जगह झमेले ही झमेले हैं।

अनुपम अग्रवाल said...

यह कष्ट तो बहुत सारी जगहोँ पर है.

परंतु इससे पार पाने के लिये आपको और आगे बढना होगा .

BrijmohanShrivastava said...

आपने यही गलती की कि आप भूल गए कि आप पत्रकार हैं समाज सुधारक नहीं / आपको यह याद रखना चाहिए था कि आप पत्रकार भी हैं और समाज सुधारक भी / जहाँ तक आपके द्वारा समाचार को भेजी रिपोर्ट में काटा पीटी का ताल्लुक है यह तो हमेशा से ही होता आया है ,/जहा तक ब्लॉग का सवाल है कितने लोग पढेंगे और कितनो पर असर होगा ,सब कह कर चले जायेंगे ""हम सहमत है "" ""बहुत अच्छा लिखा है "इत्यादि इत्यादि /बस लिखते रहिये कुरीतियों के विरोध में ,मन में जो चीज़ बुरी लगे उस पर ,सुधारके तरीके भी ,अगर आप यह सोच कर लिखना बंद कर देंगे कि कोई असर तो होता नहीं ,तो आप अपने आप के साथ अन्याय करेंगे /विद्वानों द्वारा ,अराजकता ,अन्याय देख कर बजरी में मुह छुपाना उचित नहीं होता /समाचार पत्रों में ही लिखिए ,पत्रिकाओं में लिखिए -कर्म करो फल की चिंता मत -करो -

sandhyagupta said...

Anya baton par dhyan diye bina aap apna kaam kijiye.Samaj me badlav lane ki jo chahat hai use bhi kam mat hone dijiye.Result se jyada prayaas mahatvpurna hai.

Mahesh Savale said...

वा बहोत खूब कही.....

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