लोकयात्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी को समर्पित
यूँ तो यह पोस्ट अपनी ही धुन में अलमस्त यायावर एक ऐसी महानात्मा को ही समर्पित करना चाहता था, जिसने लोक गीतों के संग्रह के अपने अभिनव सफर में पूरे भारत को एक सूत्र में पिरो दिया. मगर इनके सफर की यह कहानी अधूरी ही कही जायेगी यदि इसमें इनकी जीवनसंगिनी की सहभागिता का उल्लेख न किया जाये; के जिनत्याग, सामंजन और सहभागिता के बिना सत्यार्थी जी का जीवन सफर संपूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता. जी हां, बात हो रही लोक साहित्य को अपने अप्रतिम योगदान से अपूर्व ऊंचाई पर पहुँचाने वाले देवेन्द्र सत्यार्थी जी की. 1927 से आरंभ हुआ लोकगीतों के संग्रह का इनका सफर जीवनपर्यंत जारी रहा.
पुत्र की घुमक्कड प्रवृत्ति से चिंतित माता-पिता ने इनका विवाह कर दिया, मगर इस बंधन की दुर्बलता भी तब सामने आ गई जब चार आने की सब्जी लेने निकले सत्यार्थी जी चार महीने बाद लौटकर आए. श्रीमती जी (जिन्हें बाद में वो ‘लोकमाता’ कहकर पुकारने लगे थे), ने पूछा तो जवाब मिला – “देखो मेरा झोला, इसमें चार हज़ार लोकगीत हैं”.
थोड़े दिनों बाद पुनः इनके बदलते रंग-ढंग को भांप साहस कर लोकमाता ने टोक ही दिया कि – “इस बार आप घर से गए तो मैं भी साथ जाउंगी”. यह घुमक्कड प्राणी पहली बार इस परिस्थिति में पड़ा था, काफी समझाया उन्होंने, मार्ग की कठिनाइयाँ बतलाईं; मगर लोकमाता फैसला कर चुकी थीं कि –" तुम राजा तो मैं रानी, तुम भिखारी तो मैं भिखारिन, मगर चलूंगी तुम्हारे साथ. “
सत्यार्थी जी को सहमति देनी पड़ी, कहा – “ठीक है... राजा रानी छोडो, भिखारी-भिखारिन वाला रिश्ता ठीक है. चलो मेरे साथ.”
और इस प्रकार लोकयात्री और लोकमाता की यह जोड़ी एक अनंत सफर में साथ-साथ बढ़ चली; जिसमें समय के साथ उनकी बेटियां भी शामिल होती रहीं.
सत्यार्थी जी का यात्रा के विभिन्न चरणों में महात्मा गाँधी और गुरुदेव टैगोर के अलावे प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल जैसे व्यक्तित्वों से संपर्क हुआ जिन्होंने इनकी जिजीविषा को सराहा ही. साहिर लुधियानवी और बलराज साहनी जैसी हस्तियाँ इनकी कई यात्राओं में सहभागी भी रहीं.
1948 में ये प्रतिष्ठित पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक बने, 1956 में इससे मुक्त हो इनकी खानाबदोशी पुनः आरंभ हो गई, ऐसे में घर को चलाने की पूरी जिम्मेवारी लोकमाता पर आ गई और सत्यार्थी जी के लेखन और लोकमाता की सिलाई मशीन में ज्यादा चलने की होड लग गई. लेखन को व्यवसाय तो सत्यार्थी जे ने कभी बनाया ही नहीं था, ऐसे में बेटियों कविता, अलका और पारुल की शिक्षा तथा शादियां लोकमाता की सिलाई मशीन से ही संभव हो सकी. सत्यार्थी जी ने स्वयं भी स्वीकार किया है कि – “लोकमाता के कारण ही यह घर चला. वर्ना ...मेरे बस का तो कुछ भी न था. “
अपनी अभिरुचि के प्रति ही जीवन समर्पित कर देने का यह अप्रतिम उदाहरण कभी अस्तित्व में आ नहीं सकता था यदि सत्यार्थी जी को ‘लोकमाता’ जैसी सच्चे अर्थों में जीवन संगिनी, सहधर्मिणी न मिली होती. ऐसे ही उदाहरण इस धारना को पुष्ट करते हैं की - “हर सफल आदमी के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है. “
यह देश आज तक अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है तो ऐसी ही महानात्माओं के योगदानों की वजह से.
9 comments:
देवेन्द्र जी को सुनने के कुछ सुअवसर मुझे भी मिले. बहुत मुश्किल है ऐसे लोगों का फिर धरती पर आना. अपने में मस्त बालहृदय.
कम ही लोग होते हैं, जो ऐसा कर पाते हैं.
ज्ञानवर्धक आलेख.
बहुत सुंदर बात कही आप ने, सहमत हे आप से
घर को बनाने वाली...होम मेकर...ऐसी संगिनी जो पूरा का पूरा घर लेकर चल दे...अनुकरणीय है...मदर'स डे पर जीवन संगिनी का ये संस्मरण नारी के त्याग को दर्शाता है...
It was wonderful to read of Satyarthi Ji. You are right such people are not made any more; even God seems to run out of ideas. keep on posting such indifferent blogs.
Subhashis Das
एक मार्मिक अनुकरणीय दास्तान
पहली बार जीवनसंगिनी के बारे में विस्तार से जाना ..अच्छा लगा पोस्ट ..
wah..dhanya hai wo jeevansangini...aisa samanjasya to virle hi dekhne ko milta hai
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