Tuesday, May 10, 2011

दिल्ली में मंचित – ‘ Sons of Babur ’


सलमान खुर्शीद, टॉम आल्टर और ‘बहादुर शाह जफ़र’

गत 8 मई को दिल्ली के श्रीराम कला केन्द्र में सलमान खुर्शीद लिखित और टॉम ऑल्टर अभिनीत व निर्देशित नाटक ‘ सन्स ऑफ बाबर ’ का मंचन हुआ. बहादुरशाह जफ़र के रूप में केंद्रीय भूमिका टॉम ऑल्टर ने निभाई थी तो सूत्रधार सदृश्य पात्र रूद्रांशु सेनगुप्ता की भूमिका निभाई थी – राम नरेश दिवाकर ने. अन्य प्रमुख कलाकारों में – हरीश छाबड़ा, मनोहर पांडे, अंजू छाबड़ा, यशराज मलिक, एकांत कॉल, पंकज मत्ता आदि थे.

“ बाबर के बेटों – वापस जाओ “ सरीखे राष्ट्रवाद (!) के प्रकटीकरण के जुबानी नारों की पृष्ठभूमि में आरम्भ हुआ यह नाटक एक प्रयास है ‘ बाबर के बेटों ’- मुग़लों का अपनी जड़ों को तलाशने का.

नाटक की शुरुआत एक शोध क्षात्र (भारत का सबसे निरीह प्राणी) रूद्रांशु सेनगुप्ता से होती है, जो इतिहास पर अपने शोध के सन्दर्भ में रंगून जाना चाहता है. और जाये भी क्यों नहीं जब ‘ भारत में पंचायती राज ‘ पर शोध करने के लिए उसका एक मित्र अमेरिका जा सकता है तो मुग़लों पर शोध करने के लिए उसके आखरी बादशाह जफ़र के अंतिम समय का साक्षी रहा रंगून क्यों नहीं !

खैर रंगून तो वो जा नहीं ही पाता, मगर लाइब्रेरी में ढूंढते हुए इतिहास के रंगमंच के एक कोने में उसे स्वयं जफ़र ही मिल जाते हैं. दोनों के मध्य रोचक संवाद होते हैं जिसमें बादशाह – ए – आजम द्वारा रूद्र के बंगाली उच्चारण में ‘ जोहापोनाह ‘ के उच्चारण से स्वाभाविकतः तिलमिलाना भी शामिल है, जो अंत तक उनकी आदत में भी शामिल हो जाती है, J, साथ ही यह पीड़ा भी उभरती है कि दिल्ली आजाद हो गई है तो उन्हें अब तक वापस क्यों नहीं बुलाया गया ?
                
                    
एक कटाक्षपूर्ण संवाद में रूद्र द्वारा ‘ डेमोक्रेसी ‘ की परिभाषा – “Democracy of the people, for the people, by the people”  पर जफ़र चौंकते हुए फ़ौज के बारे में पूछते हैं. जवाब में रूद्र के मुंह से भी निकल ही जाता है – “ Army also follow the people, but that is only Pakistan where people follow the Army “.

 बाबर के बेटों के बारे में हालिया इतिहास में जुडी नई जानकारियों से ओतप्रोत रूद्र की टिप्पणियां जफ़र को विचलित करती हैं और वो बाबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगलकाल के सफर को उसके मानसपटल के रंगमंच पर उकेर देते हैं.

इस क्रम में एक उल्लेखनीय टिप्पणी मुग़लों के रक्त सम्मिश्रण पर भी है, जब जफ़र कह उठते हैं – “इन मुग़ल बादशाहों की रगों में खून तो हिन्दुस्तानी माँओं का ही बह रहा था. Paternity may be doubted, but not the Maternity.

जफ़र के माध्यम से लेखक ने इतिहासकारों से एक और महत्त्वपूर्ण आग्रह भी किया है कि – “ वो इतिहास तो लिखें मगर इतिहास का पुनर्लेखन न करें. “

अंत में नाटक जफ़र के एक हृदयस्पर्शी प्रश्न पर आकर समाप्त होता है जब वो पूछते हैं कि – “ मुझे किस रूप में याद करोगे रूद्र ? ”
रूद्र – “ आखरी मुग़ल बादशाह. ”
जफ़र – “ नहीं, First Emperor of the Free India “ – 
     “ First Emperor of the Democratic India. ”

7 comments:

Subhashis Das. said...

salman Khurshid ki shandar natak dekhne ki privlaege tumko prapt hua, bahur achha. Tumhara interest ab natak ki or ja raha hai. bada hi positive development hai ye, ise barkarar rakhna.
Mausaji

Rahul Singh said...

पठनीय समीक्षा.

Arvind Mishra said...

जफ़र का जीवन कारुणिकता से भरपूर था -नए शिल्प विधान की प्रस्तुति जिसमें स्वयं जफ़र जीवंत हैं !
एक शायर के रूप में पता नहीं जफ़र का व्यक्तित्व कितना उभर पाया इस रंगमंचीय प्रस्तुति में!

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति!!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Aapka rangmanch prem dekh kar achchha lagta hai.

............
तीन भूत और चार चुड़ैलें।!
14 सप्ताह का हो गया ब्लॉग समीक्षा कॉलम।

Amrita Tanmay said...

रोचक लगा समीक्षा .सलमान खुर्शीद ने अंत सुन्दर लिखा है ..जफ़र का सच अच्छा लगा ..आभार

SANDEEP PANWAR said...

LAGE RAHO

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