"..... लड़के ने मुस्कुराकर पूछा, "तेरी कुड़माई हो गई?"
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्ज़ीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली, "हाँ हो गई।"
"कब?"
"
कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।...."
प्रबुद्ध ब्लौगर समझ ही गए होंगे कि उपरोक्त पंक्तियाँ प्रसिद्द लेखक श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की लोकप्रिय कहानी 'उसने कहा था' से उद्धृत हैं. यह मेरी सर्वाधिक पसंदीदा कहानियों में से एक है. इस पोस्ट के माध्यम से मैं आज इस कहानी पर कोई विशेष चर्चा नहीं कर रहा, बल्कि मेरा प्रयास है विभिन्न माध्यमों द्वारा अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति का.
अक्सर हम आक्रोश को यदि अपने अंदर जज्ब नहीं कर पाते तब किसी-न-किसी माध्यम से उसे अभिव्यक्त कर देते हैं, कभी मौखिक अपशब्दों के प्रयोग द्वारा तो कभी ज्यादा आक्रामक ढंग से भी.
ऐसा आक्रोश यदाकदा तब उभरता है जब किसी रिलेशन में दोनों पक्षों को अभिव्यक्ति का समान अवसर नहीं मिलता. क्या किसी रिलेशनशिप - चाहे मित्रता ही सही - में एक पक्ष पर ही सामंजन का सारा दारोमदार निर्भर होना चाहिए ? अपनी भावनाओं को एकपक्षीय रूप से दबा कर निभाए जा रहे संबंध क्या स्थायित्व की गारंटी हो सकते हैं !
कई बार ऐसे संबंध जो कोई स्थायी स्वरुप ग्रहण नहीं कर पाए होते हैं उनमें भी ऐसी मनःस्थिति के बीज छुपे रहते हैं, जैसा कुछ उपरोक्त कहानी में भी है.
कई बार ऐसा भी होता है जब मूड भी किसी ग्राफ सदृश्य व्यवहार करता हुआ फ्लक्चुएशन दिखलाता रहता है.
पिछले कुछ दिनों से मैं भी ऐसी ही किसी कशमकश से गुजर रहा हूँ जिसका नतीजा अनावश्यक और गैरजरुरी स्थानों तथा व्यक्तियों से वाद-विवाद के रूप में सामने आ रहा है. स्पष्ट कर दूँ कि इसके पीछे - "तेरी कुड़माई हो गई ?"- जैसा कोई विषय नहीं है. :-) मुझे खुद भी इसके मूल के बारे में कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आ रहा मगर यह एक प्रकार का विचलन तो है ही.
13 comments:
कुडमाई हमारे यहां प्रयोग नहीं होता है
प्रिय दोस्त कुछ निजी कारणों से आपकी पोस्ट/सारी पोस्टों का पढने का फ़िलहाल समय नहीं हैं, क्योंकि 20 मई से मेरी तपस्या शुरू हो रही है. तब कुछ समय मिला तो आपकी पोस्ट जरुर पढूंगा. फ़िलहाल आपके पास समय हो तो नीचे भेजे लिंकों को पढ़कर मेरी विचारधारा समझने की कोशिश करें.
दोस्तों,क्या सबसे बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करोंगे. मत करना,वरना......... भारत देश के किसी थाने में आपके खिलाफ फर्जी देशद्रोह या किसी अन्य धारा के तहत केस दर्ज हो जायेगा. क्या कहा आपको डर नहीं लगता? फिर दिखाओ सब अपनी-अपनी हिम्मत का नमूना और यह रहा उसका लिंक प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से
श्रीमान जी, हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु सुझाव :-आप भी अपने ब्लोगों पर "अपने ब्लॉग में हिंदी में लिखने वाला विजेट" लगाए. मैंने भी लगाये है.इससे हिंदी प्रेमियों को सुविधा और लाभ होगा.क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ.
अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?
यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.? कोशिश करें-तब ब्लाग भी "मीडिया" बन सकता है क्या है आपकी विचारधारा?
आक्रोश काम का मनोभाव है। समस्या यह है कि हम उसे फ्रिक्शनल तरीके से अपने स्वास्थ की हानि झेलते हुये व्यक्त करते हैं।
खैर, अगर हम विष्णुगुप्त चाणक्य न बन सकें तो कम से कम यह तो गुनगुनायें - हर फिक्र को धुयें में उड़ाता चला गया!
आक्रोश का निदान? विचारणीय पोस्ट.
@ ज्ञानदत्त जी
शायद इस गीत की इन पंक्तियों में ही कई मर्ज की दवा छुपी हुई है.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (16-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुंदर लिखा आपने.....
आक्रोश , गुस्सा... इस पर हमे रोक लगानी जरुरी हे, वर्ना अपने संग हम बहुत सारे लोगो का नुकसान भी इस लडके की तरह से...
यह कहानी मेरी भी पसंद की है --हम पंजाबियों मे कुडमाई शब्द इस्तेमाल होता है --
@ Vandana ji,
Is pryas ko sarahane ke liye aapka dhanyavad.
(Comment by mobile)
@ राज भाटिया जी,
आप सही कह रहे हैं, क्रोध दूसरों के अलावे स्वयं को भी नुकसान पहुंचाता है, मगर कभी - कभी भावनाएं बुद्धि पर ज्यादा हावी हो जाती है. कल की मेरी पोस्ट ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना पर.
आक्रोश से डील कर सकते हैं अगर पता चल जाये की ये है , पर आक्रोश का सही निदान तभी हो सकता है जब कारण समझ में आ जाए, दबा हुआ आक्रोश विकार पैदा करता है । विचारणीय और बहुत अच्छी पोस्ट । धन्यवाद ...
हम तो अमृतसर के बाज़ारों की हलचल ढूंढ रहेथे .मौजू सन्दर्भ जुटाया है आपने .आक्रोश निकाला जाना चाहिए किसी भी विध ,आदमी अपनी मौत मरे आक्रोश के संग क्यों मरे ?आपके कहने से हमने एक पोस्ट और लिख दी है सामाजिक "डॉ चाचाजी ".कृपया पधारें .
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