महिला अपराधों की बढती वारदातें दिल्ली और एन. सी. आर. क्षेत्र में इतनी वीभत्स रूप ले चुकी हैं कि बेबस आम आदमी अब इन्हें देख-पढ़ कर सिर्फ शर्मिंदा ही हो पाता है. कुछ करने के लिए जो न्यूनतम बैकअप उसे मिलना चाहिए था वो राजनीतिक और प्रशासनिक मुखियाओं द्वारा अपने बयानों से पूर्व में ही छीना जा चुका है, जिसमें महिलाओं को रात में घरों से बाहर न निकलने, शालीन कपडे न पहनने के प्रतिफल आदि जैसे 'व्यवहारिक' विचार व्यक्त किये जा चुके हैं. (अब कौन समझाए कि रातों में निकलने वाली 'सभी' महिलाएँ सिर्फ तफरीह के लिए ही नहीं निकलतीं.)
निश्चित रूप से आस-पास के क्षेत्रों के अपराधी इन वारदातों सहित कई आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं, मगर पुख्ता क़ानूनी कारर्वाई न होने से उन्हे प्रोत्साहन तो मिलता ही है. इसके अलावा एक और वर्ग भी है इन वारदातों के पीछे जो 'वीकेंड्स' को अपने 'शिकार' या 'इन्जॉयमेंट' पर निकलता है.
राहुल रॉय अभिनीत 'जूनून' तो याद ही होगी आपको.
जी हाँ, उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध जिन प्रतिरोधी विचारों को कभी दकियानुसी माना गया था, वो अब अपने विकृत रूप में सामने आ चुकी हैं. राजधानी और कई बड़े शहर शराब के रिकौर्ड बिक्री और राजस्व में अतिशय वृद्धि से अत्यंत आह्लादित थे. निसंदेह वीकेंड्स में इनकी बिक्री नए और उत्साहवर्धक रिकौर्ड्स को भी स्पर्श करती रहती है. शराब के साथ 'चखना' की भी एक परंपरा रही है जिसने एक नए समानांतर व्यवसाय को भी आश्रय दिया है. मगर अब शराब के साथ नमकीन, मांसाहार के अलावे एक और 'वस्तु' भी अपरिहार्य रूप से जुड़ती जा रही है और वो है 'स्त्री शरीर'.
सिनेमा, विज्ञापन, देह दर्शना आयोजनों आदि द्वारा नारी की जो एक उपभोक्ता वस्तु सदृश्य छवि बना दी गई थी, उसका नतीजा अब यह हो चुका है कि एक ऐसी मानसिकता विकसित हो गई है जो स्त्री को मात्र एक 'उपभोग योग्य शरीर' के नजरिये से ही देखती है. और यही मानसिकता 'डिमाण्ड' करती है वीकेंड के आनंदपूर्ण काल को सुनिश्चित करने के लिए इस 'तत्व' की पूर्ति का.
अब यह 'वस्तु' बाजार में तो सुलभ है नहीं, सो इसका शिकार या 'जुगाड' किया जाता है इन्ही वीकेंड्स के दौरान. इसके अलावे 'न्यू ईयर' आदि जैसे अन्य उपलक्ष्य भी हैं. इसकी पुष्टि इन दिनों के अख़बारों की सुर्ख़ियों से की जा सकती है. मुंबई में न्यू इयर के दौरान हुई 'छेड़खानी' की घटना की यादें अभी भूली नहीं होंगी.
गत 23 जुलाई को गुडगाँव में एक वैन चालक ने अपनी सूझ-बुझ से एक लड़की को पांच युवकों द्वारा अगवा किये जाने से बचाया था. इसमें पुलिस की भी सार्थक भूमिका रही. (जो बचाव में सफलता की हाल में शायद घटित इकलौती घटना थी) इसमें उसके कुछ मित्रों ने भी मदद की थी, जिसमें इस घटना का चश्मदीद गवाह संदीप भी शामिल था. गत मंगलवार को उसकी हत्या कर दी गई. ऐसी घटनाएं ऐसे मामलों में आम आदमी को व्यक्तिगत पहल से भी हतोताहित ही करेंगीं. त्वरित और सटीक न्यायिक कारर्वाई ही इस दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकती है.
निःसंदेह हम 100% अपराध तो नहीं रोक सकते मगर कम से कम इस शौकिया कवायद को रोकने की 1% सार्थक कोशिश तो कर ही सकते हैं, अन्यथा 'वीकेंड स्पेशल' ये खबरें मीडिया की हेडलाइंस और 'ब्रेकिंग न्यूज' ही बनती रहेंगीं.
इतना जरूर जोडूंगा कि परिस्थितियों को देखते हुए महिलाएं भी स्वयं ही इस दिशा में उपयुक्त समाधान निकालें. अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर पूर्ण निर्भरता उचित नहीं.
20 comments:
अभिषेक जी बहुत सार्थक बातें लिखी हैं आपने .आभार
अभिषेक जी ,सौन्दर्य प्रतियोगिता और शराब बाज़ी अन्यत्र भी होतीं हैं .हमारा समाज अभी भी अन्दर से जड़ और प्रति -क्रिया वादी है क्रिया करना भूल चुका है और क़ानून तो सब की रखैल है इस देश में ये ही बातें किसी समाज की सिविलिती के स्तर नागर -भाव को तय करतीं हैं .(कृपया विभीत्स और अलावा का प्रयोग करें अलावे का नहीं .,विभत्स नहीं ,शुद्ध कर लें .).
एक तरफ घर से बाहर दफ्तरों का परिवेश आधुनिक हो चुका है इवोल्व हुआ है लेकिन समाज रुका हुआ है तालाब सा .
Bahut hi umda aur wichharaniya lekh hai Bhaiya....specially for Mahilaayen...is lekh ki antim do line dil ko chhu gayi...
@ वीरुभाई जी
आपकी प्रतिक्रिया का धन्यवाद. आपके द्वारा सुझाया संशोधन कर दिया है, मगर मेरे ख्याल से 'विभत्स' शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है.
साभार.
थैंक्स सुरेश.
abhishek जी aapki har post सराहनीय होती है पर स्त्रियों पर आधारित vishesh रूप से .आप यदि पसंद करें तो ''भारतीय नारी'' ब्लॉग से जुड़े व् अपने सार्थक आलेखों को हम सभी के साथ साझा करें .आप अपने इमेल मुझे 'shikhakaushik666@hotmail.com' पर preshit करें ताकि मैं आपको निमंत्रण भेज सकूँ .सादर
बहुत ही सार्थक सुन्दर आलेख.
सार्थक और सामयिक महत्व की पोस्ट -सहमत!
विभत्स =वीभत्स
धन्यवाद अरविन्द जी, आपके सुझावानुसार भी सुधार कर दिया है.
विचारणीय और समसामयिक पोस्ट..... सच यह चिंतन का विषय है....
सशक्त, विचारोत्तेजक आलेख।
दिल्ली ही क्यों हर जगह यही हाल है। बस दिल्ली राजधानी होने से चर्चा मे आ जाती है अब तो कसबे गाँव भी सुरक्षित नही।
बहुत सामयिक और चिन्ताजनक विषय. सार्थक और सुन्दर आलेख.
अभिषेक जी बहुत सार्थक बातें लिखी हैं आपने .आभार
चिंताजनक विषय है
bahut sarthak baat hai jab kunye me hi bhang padi ho kya kiya ja sakta hai.
rachana
सच्चाई को आपने बड़े ही सुन्दरता से शब्दों में पिरोया है! बहुत सुन्दर, सार्थक और विचारणीय लेख! बेहतरीन प्रस्तुती!
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प्रिय बंधुवर अभिषेक मिश्र जी
सस्नेहाभिवादन !
हर गांव-शहर अब दिल्ली बन चुका है ।
महिलाएं स्वयं ही इस दिशा में उपयुक्त समाधान निकालें. अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर पूर्ण निर्भरता उचित नहीं.
विचारणीय आलेख है … आभार !
पता नहीं क्यों यह गीत याद आ रहा है …
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां है… … …
बहुत गंभीर विषयों को उठाते हैं आप … आपकी पुरानी पोस्ट्स भी सराहनीय हैं ।
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
yah samsya bahut hi aam hoti ja rahi hai hamare samaj me...bahut hi dukh ki baat hai ki jo purush ek stri ki hi kokh se utpann hota hai wo use yathochit samman nahi de pata.... puja to uske devi roop ki karta hai,par samaj me har stri ko bhogya hi samjhta hai...apke vichar shayad logon ki soch ko ek nayi disha dene me kamyab hon..
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