Wednesday, August 3, 2011

देल्ही बेली की कॉपी - पेस्ट नहीं है युवा पीढ़ी

माटी की खुशबु से थिरकता है इसका भी मन




 देल्ही बेली और ऐसी ही कई आईं और अब तो शर्तिया आनेवाली बेसिर-पैर की फिल्में जिनके द्वारा स्वयं को युवा वर्ग की प्रतिनिधि फिल्मों के रूप में प्रचारित करने की आक्रामक कवायद ने कई लोगों को वर्तमान युवा पीढ़ी के प्रति भ्रमित सा कर दिया था. मैं बार-बार कहता आ रहा हूँ कि यह पीढ़ी (न सिर्फ इस उपमहाद्वीप की, बल्कि वैश्विक भी) तमाम रुढिवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो नवीन परिवर्तन और सृजन करने को उत्सुक है, यह कोई नई बात भी नहीं है, यह इस वर्ग का शाश्वत स्वभाव भी है; जो अक्सर परिवेश के प्रभाव में अपनी दिशा से भटक जाता है. 

इसे 'माटी' की खुशबु और 'शीट' का फर्क बखूबी पाता है; मगर कोई गुलाब उगाने की मेहनत तो करे. यह तथ्य एक बार फिर स्थापित हुआ नई दिल्ली  के 'इन्डियन हैबिटेट सेंटर' में जहाँ 'तीज उत्सव' पर 'सावन के गीत' कार्यक्रम में डॉ. संगीता गौड़ जी द्वारा लोकगीतों की प्रभावशाली प्रस्तुति की गई. 

यह इस देश की विचित्र विडंबना है कि जब आपका कोई व्यक्तिगत कार्यक्रम हो तब ऑफिस में सारे 'अर्जेंट' काम उसी दिन आ पड़ते हैं. खैर अपनी जिम्मेवारियों को समेटता किसी तरह भागता मैं कार्यक्रम स्थल पर विलंब क्या कहिये समाप्त होने से पहले पहुँच ही गया. जारी गीत पर श्रोताओं की प्रतिक्रिया हौल के बाहर से ही महफ़िल चरम पर पहुँच चुके होने का आभास दे चुकी थी. गीत की समाप्ति के बाद जब उद्घोषिका ने अंतिम गीत की घोषणा की तो एक झटका सा लगा. मगर तब तक श्रोताओं के उस मूड का अंदाजा लग चुका था कि जो अपनी मिट्टी से जुड चुके होने के बाद इतनी जल्दी अलग होने को सहर्ष तैयार नहीं थे. गीत "झूला झूले रे बिहारी बृंदावन में......" पर श्रोताओं विशेषकर युवाओं का उत्साह देखने लायक था.  उनके झूमते नृत्य में माइकल जैक्सन या शकीरा से उधार लिए आयातित स्टेप्स नहीं थे, बल्कि दिल की गहराईयों से उभरे मौलिक सहज भाव और प्रेरणा थी.  स्पष्ट है कि यह जेनरेशन अपनी मिट्टी से भी उतनी ही जुडी हुई है जितनी किसी रौक' या 'पॉप' से जुडी प्रतीत होती है, मगर जरुरत उन तक अपनी संस्कृति की झलक पहुँचाना सुनिश्चित करने की है. मगर जरा सोचिये कि युवा पीढ़ी को संस्कृति के गरिमामय मार्ग से पथभ्रष्ट होने पर दहाड़ें मार रोने वाले स्वयं भी अपनी संस्कृत को वाकई में कितना समझ पाते हैं, और इसी पाखंड के लिए वो युवा पीढ़ी द्वारा नकारे जाते हैं और इसी अंतराल को भरने में आक्रामक अपसंस्कृति अपनी जगह बना लेती है. 

अमेरिका में पाकिस्तान का राग अलापवाने के लिए जिस प्रकार फई दोषी हैं उसी प्रकार भारत की युवा पीढ़ी को उसकी वाजिब विरासत से काट कर पाश्चात्य कूड़े की ओर धकेलने वाले भारतीयों (!) को भी राष्ट्द्रोही की ही श्रेणी में रखना चाहिए.

खैर 'राजनीति', 'राष्ट्रवाद' और 'राष्ट्रप्रेम' जैसे भारी-भरकम शब्दों पर बात करने के लिए बड़ी फ़ौज खड़ी है, मैं वापस आता हूँ अपनी विरासत पर.

अपने प्रशंसकों के अत्यधिक आग्रह को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए संगीता जी ने एक और रचना सुनाई और अंततः बारिश की बूंदों से उठी अपनी मिट्टी की खुशबु को मन में बसाये श्रोतागणों से कलाकारों ने विदा ली.

इतना जरुर कहूँगा कि इस अनुभव ने मंत्रमुग्ध ही नहीं भावुक भी कर दिया. 

कार्यक्रम में संगीता जी का साथ दिया था - बांसुरी पर श्री ऋषभ प्रसन्ना ने, गिटार पर श्री सैंडी, Pad पर श्री सोनू, तबला पर श्री अनिल मिश्र और कीबोर्ड पर श्री मोनू ने.

यहाँ बताता चलूँ कि श्रीमती संगीता गौड़ जी प्रख्यात रंगमंच
 निर्देशक श्री अरविन्द गौड़ जी 
की पत्नी हैं और इनके कई नाटकों में संगीत भी दे चुकी हैं. यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे आज संगीता जी से भी मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ. यह अद्वितीय रचनात्मक जोड़ी यूँ ही नित्य-नवीन सार्थक सृजन करती रहे; यही अपेक्षा है. आमीन. 


संगीता जी की जादुई आवाज और अपनी मिट्टी की खुशबु में अलमस्त युवाओं को  यहाँ यू-ट्यूब पर भी देख सकते हैं.

या फिर ब्लॉग के इस पेज के अंत में (सारी पोस्ट्स के बाद भी यह वीडियो है जिसे सेटिंग में एड किया है.)
(मोबाइल से लिए वीडियो को अपलोड नहीं कर पाया, यू-ट्यूब का कोड भी ब्लौगर में वीडियो नहीं सर्च और अटैच कर पाया, इसलिए यह नई खोज की गई. क्या कोई तकनिकी सलाह दे सकता है !) 

13 comments:

Rahul Singh said...

वाह, सावन आया.

Shikha Kaushik said...

अभिषेक जी -बहुत भावुकता के साथ प्रस्तुत की है आपने यह पोस्ट .हरियाली तीज पर संगीता जी के मधुर स्वर ने सबको आह्लादित कर दिया होगा ऐसा मुझे विश्वास है .आभार संगीता जी के विशेष परिचय हेतु .

Anju (Anu) Chaudhary said...

अभिषेक जी आपकी इस पोस्ट को बहुत खूब कहूगी तो वो भी कम है....आज का युवा भटका नहीं हुआ ....उसे भटकाया जा रहा है ...पारिवारिक मौहाल देकर आज के युवा को हम अपने साथ वैसे ही बांध सकते है जैसे आज से ३० साल पहले हम लोग थे ...बल्कि मुझे लगता है की आज के बच्चे ज्यादा प्यार को तरसते है ..बहुत आसानी से इन लोगो को अपने साथ बांधा जा सकता है ....आपकी प्रस्तुति से मन खुश हो गया ....आज आभार आपका जो आप ये लेख लेके आये .............आशीष के साथ आपको आभार एक बार फिर से ............अनु

रेखा said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

Suresh Kumar said...

भैया..आपके इस पोस्ट ने दिल को छू लिया...सच में हमारा युवावर्ग ऐसा नही है..
काश! हमसब युवा ये समझ पाते..
बहुत ही अच्छा भैया...
thanx for "Sawan ka geet"

Arvind Mishra said...

मस्त करता लोकगीत

मनोज कुमार said...

तकनीकी सलाह के मामले में मैं तो ज़ीरो हूं।
पर आपके इस आकर्षक लेख के साथ कई क्षण मैं भी उस औडिटोरियम में गुज़ार आया।
कितनी सही बात कही है आपने ..
“यह जेनरेशन अपनी मिट्टी से भी उतनी ही जुडी हुई है जितनी किसी रौक' या 'पॉप' से जुडी प्रतीत होती है, मगर जरुरत उन तक अपनी संस्कृति की झलक पहुँचाना सुनिश्चित करने की है. ”
चयन तो आखिर हमें ही करना है।

Jyoti Mishra said...

Agree.. youth is not at all like Delhi Belly one and every one knows exceptions are always there in every age group.

Awesome read !!

Urmi said...

बहुत बढ़िया लगा! दिल को छू गई! इस उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://www.seawave-babli.blogspot.com/

Vivek Mishrs said...

Ekdam sahi kaha aapne bhai..
देल्ही बेली की कॉपी - पेस्ट नहीं है युवा पीढ़ी

virendra sharma said...

अभिषेक मिश्र जी ,हबिटात और इंडिया इन्तार्नेश्नल सेंटर ,मंडी हाउस, दिल्ली की संस्कृति शून्यता को भर के दिल्ली को एक नया चेहरा देतें हैं ,अपने जोधपुर ऑफिसर्स होस्टिल ,पंडारा रोड और पश्चिमी किदवाई नगर रहवास के दरमियान तकरीबन तीन बरसों में ऐसे ३०० कार्यक्रमों में शिरकत की होगी यहाँ भी अमूमन बहुलांश पचासे के पार जा चुके या फिर सेवा निवृत्त लोगों का होता है .नै पीढ़ी पर इलज़ाम लगाना बहुत आसान काम है ,उसके पास हमें देने के लिए बहुत कुछ है ,युग के साथ आलमी धड़कन के साथ बना रहना है तो इस पीढ़ी के साथ सह जीवन संवर्धन बेहद ज़रूरी है .एक दम से बिंदास अंदाज़ है इस पीढ़ी का अपने दो टूक खयालात भी . अंदाजा लगा सकतें हैं हम श्रावण के लोक गीतों का -तीजों चर्चा एरी बहना ...एजी कोई ,हम्बे कोई ,सावन की री ....,अब के बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय री भी लोक से ही उठाया हुआ गीत है .बेहद सार्थक रिपोर्टिंग है आपकी .अभी कल शाम हेबितात सेंटर (आई एच सी ) के थियेटर में अपर्णा अधिकारी (शिष्या सुलोचना बृहस्पति )के हिन्दुस्तानी वोकल का लुत्फ़ उठाया ,राग यमन ,मियाँ की मल्हार ,और देश की प्रस्तुति आलिशान थी .सारंगी और तबले की संगत अप्रतिम थी .दो घंटा अच्छा बीता .शाम ७-९ तक .

virendra sharma said...

.कृपया यहाँ भी कृतार्थ करें .http://veerubhai1947.blogspot.com/
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
-

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

रंगमंच की यह अलख जगाए रखिए।

------
कम्‍प्‍यूटर से तेज़...!
सुज्ञ कहे सुविचार के....

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...